Friday, January 11, 2013

देवी तुम तो काले धन की बैसाखी पर खड़ी हुई हो - 1


जनाब करन सिंह चौहान के ब्लॉग बेतरतीब विचारसे कुछेक चीज़ें आपको यहाँ पहले भी पढने को मिल चुकी हैं. आज उनके ब्लॉग से बाबा नागार्जुन ने सत्तर वर्ष पूरे होने पर करन जी द्वारा लिखा गया कोई तीस बरस पुराना आलेख-सम्भाषण
 [नागार्जुन सत्तर (1981) के हुए तो कई सभागोष्ठियां हुईंउनमें पहल की दिल्ली की हिंदी अकादमी ने जिसमें उन दिनों सचिव दिल्ली प्रशासन के अधिकारी हुआ करते थेउसी से साहित्य प्रेमी श्री दयाकॄष्ण सिन्हा उसके पदाधिकारी थे जिन्होंने यह कार्यक्रम विट्ठलभाई पटेल भवन,नई दिल्ली में आयोजित कियाचंद्रभूषण तिवारी जी के शब्दों में यह ‘पर्सनल एस्सेउसी गोष्ठी में प्रस्तुत किया गया थाभीष्म साहनी भी उसमें उपस्थित थे और वे इसकी टोन से इतना प्रभावित हुए कि तुरत प्रस्ताव रखा कि हिंदी के लेखकों को बाबा के लिए कुछ करना चाहिएसवाल था कि लेखक किस-किस के लिए क्या-क्या करेंगे जब अधिकतर मसिजीवियों का हाल यह हो.]

नागार्जुन का नाम सुनते ही हमें कितना कुछ याद आ जाता है और अगर वे सम्मुख हों तो साक्षात आँखों के सामने से गुज़र जाता है।मसलन,हिंदी ही क्यों,देश-विदेश में कवियों के साथ जुड़ी चली आ रही फक्कड़पन,मस्ती,घुमक्कड़ी और जोखिम भरे साहस की लंबी परंपरा-हिन्दी में कबीर और निराला जिसकी खूबसूरत मिसालें हैं। उन्हें देखकर हमें इस देश के नाथ,सिद्ध,संत या जनप्रिय लोककवियों की परंपरा याद आती है,जनता के बीच यहाँ से वहाँ तक बेधड़क घूमते,डंके की चोट अपनी बात कहते या फिर ढपली लिए गाते उन्हीं में घुलमिल जाते हुएनागार्जुन को देख हमें हमारा देश,उसकी माटी की गंध और उसमें रचे-बसे भारतीय  जन-गण की वास्तविक आकृतियों का आभास होता है -बेतरतीब पहने मैले मोटे कपड़े,पैरों में घिसटती चप्पलें,सिर पर अँगोछा,अनसँवरी जंगली घास सी उग आई खिचड़ी दाढ़ी,कंधे पर थैला और सफर में हैं तो दूसरी बगल में दबी कपड़ों और कलेवे की पोटलीबाबा हँसते हैं बात और बेबात। अपनी ही कही बात का जैसे अचानक कोई नया अर्थ उन्हें भा गया तो बगल में चलने वाले आदमी को रोक उसका मुँह अपनी ओर घुमा प्रतिक्रिया पढ़ते हैं या पास बैठे आदमी की हथेली रगड़ते हैं,मानो पूछ रहे होंकहो कैसी रही’,जबरदस्ती पकड़ कर हाथ मिलाते हैं या झूमकर गले लगाते हैं.

जिन लोगों ने बाबा को जीवन में और नजदीक से देखा है वे जानते हैं कि बाबा अपने स्वभाव और  रुचियों और स्वाद और गुस्से और प्यार में बिल्कुल बच्चों जैसा व्यवहार करते हैं कभी-कभीमुझे याद पड़ता है,मैं और सुधीश पचौरी तब साथ रहते थेबाबा आ टपके हैंअचानक फरमाइशें होती हैं-सेब,केला,अंडा-वंडा हो तो निकालो,चाय बनाओआँखें घर के गुप्त भंडारों को टटोलती हैंलेकिन चील के घोंसले में मांस कहाँबाबा भूख के कच्चे हैंबाबा दाँत किटकिटाते हैं,बात-बात पर,मानो अभी मुंह नोच लेंगे। ...आज बाबा की जेब में दस -दस के कई नोट हैंफिर तो कहना ही क्याबाबा साथ के लोगों को जलेबियां उड़वा रहे हैं,हर चटपटी चीज पर उनकी आँखें घूम रही हैं,मानो बाजार अब उन्हीं का हैउस दृश्य को देखकर ‘अकाल और उसके बादनामक बाबा की कविता की इन  पंक्तियों का चित्र मूर्त हो जाता है मानो-

दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुँआ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.

लोग जानते हैं और कइयों ने लिखा भी है कि बाबा के पैरों में चक्कर है बचपन से ही। बचपन में ही जब शादी हो गई तो बाबा घर छोड़कर जो उड़ंतू हुए तो फिर दस सालबाद ही लौटकर सूरत दिखाई। न जाने कहाँ-कहाँ की खाक नहीं छानीकितने पापड़ नहीं बेले। सिंहल जाकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। इससे घूमने को और  बढ़ावा तो मिला ही सार्थकता भी मिली। पालि के पंडित बने। केलानिया में तीन साल रहे,अंग्रेजी भी सीखी कामचलाऊ। संस्कृत पर  अधिकार था ही और मैथिली तो अपनी जबान ठहरी।

इसी घुमक्कड़ी और पिपासा का परिणाम है कि बाबा संस्कृत,पालि,प्राकृत,अर्धमागधी,अपभ्रंश,सिंहली,तिब्बती,मराठी,गुजराती,बंगाली,पंजाबी,सिंधी के साहित्य को रुचि से पढ़ते हैं और उनके साहित्य से लाभ उठाते हैंप्रभाकर माचवे ने इस ज्ञान-पिपासा के प्रसंग में लिखा है - "बाबा के पास कल के भोजन के पैसे नहीं हैं पर वे दिल्ली में सेंट्रल न्यूज एजेंसी से दस नई बंगाली,मराठी,पंजाबी पत्र-पत्रिकाएं खरीद कर ले जा रहे हैंऐसा भी मैंने देखा हैऐसी ज्ञान पिपासा एक छियासठ वर्ष के,शरीर से रोगग्रस्त और निरंतर चिंताकुल व्यक्ति में दुर्लभ पाई जाती  हैउनकी जीवट अद्भुत है।"

जो भी उनके संपर्क में जरा भी आया होगा उसे बाबा के हाथ की लिखी संक्षिप्त सी चिट्ठियाँ वक्तन-बेवक्तन मिलने का अवश्य अनुभव होगा. "प्रिय,विदिशा में भाई विजयबहादुर के यहाँ ठहरा हूँतीन दिन और रहूँगा फिर इलाहाबाद में कुछ दिन भूमिगत होने का इरादा है। अधूरा उपन्यास थैले में पड़ा लातें जड़ रहा है। फिर पटना और कलकत्ता होकर दो एक महीने में दिल्ली आना होगाफिर लिखूँगाविजय,गुगलू और गुड़िया को प्यारतुम्हारा...ना."

बाबा नियम से १५-२० खत रोज लिखते हैंढेरों पते लिखे खाली पोस्टकार्ड उनके थैले में हमेशा पड़े रहते हैंशायद उठने पर सबसे पहला काम यही होता हैयही कारण है कि बाबा आजकल कहाँ रमे हैं,क्या कर रहे हैं,देश के इस कोने से उस कोने तक,शहर से कस्बे तक,नए से नए और पुराने सभी लेखकों को पता रहता हैइस देश का कोई ऐसा बड़ा शहर या कस्बा नहीं जहाँ बड़ी संख्या में बाबा के आत्मीय और श्रद्धालु साहित्यिक-गैर साहित्यिक न हों,बाबा पर जान निछावर करने वाले  परिवार न हों - सभी प्रांतों में,सभी जातों के,सभी  भाषाओं,संस्कृतियों और वय केबाबा जिससे भी मिलते हैं उसे जन्म-जन्मांतर का मित्र बना लेते हैं। लेकिन बाबा का स्नेह सर्वाधिक उन नवोदित साहित्यकारों,कालेज के नवयुवक छात्रों और युवा अध्यापकों को मिलता है जो साहित्य और जीवन में अभी प्रवेश ही कर रहे हैंयही कारण है कि वे सहज ही युवा लेखकों के सबसे प्रिय रचनाकार,मार्गदर्शक और मित्र हैंमुझे याद है शायद वे१९७०-७१ के दिन थेहम लोग नए-नए प्राध्यापक बने थे और विश्वविद्यालय संगठनों से लेकर मजदूर संगठनों तक में सक्रिय थेउन्हीं दिनों बाबा अक्सर यह कविता आकर सुनाया करते थे जो उन्होंने बच्चों की तोतली बोली में वियतनाम का नारा लगाते सुनने पर लिखी थी :

सुने इन्हीं कानों से मैंने तुतलाहट में गीले बोल
तीन साल वाले बच्चों के प्यारे बोल : रसीले बोल
मेले नाम तेले नाम
बिएनाम बिएनाम


(जारी)

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