Saturday, January 12, 2013

देवी तुम तो काले धन की बैसाखी पर खड़ी हुई हो - 2


बाबा नागार्जुन पर श्री करन सिंह चौहान जी का आलेख-सम्भाषण


(पिछली क़िस्त से आगे)

मुक्तिबोध के शब्दों में कहूँ तो बाबा शायद हमेशा यही महसूस करते हैं कि "बहुत बहुत कर सकते थे किया बहुत कम. मर गया देश अरे जीवित रह गए तुम." इसीलिए उन्हें जहाँ भी सुगबुगाहट दिखाई पड़ती है, नई लगन और जोश दिखाई पड़ता है वे एक आल्हादमई आशावादी ललक से उसके पास पहुँचते हैं - स्वयं को और अपनी कविता को उसे समर्पित कर देते हैं. मुझे अच्छी तरह याद है बाबा उन दिनों हमारे विचारों और काम में बड़ी गहरी दिलचस्पी लेते थे, ध्यान से सब सुनते थे, अभिभूत हो उठते थे और कभी-कभी तो उठकर गले लगा लेते थे. उन्हीं दिनों उन्होंने "मैं तुम्हें  अपना चुंबन  दूंगा" कविता लिखकर पूरी की थी-

मैं तुम्हीं को अपनी शेष आस्था अर्पित करूंगा
मैं तुम्हारे लिए ही जिऊँगा,मरूँगा
मैं तुम्हारे ही इर्द गिर्द रहना चाहूँगा
मैं तुम्हारे ही प्रति अपनी वफादारी निबाहूँगा
आओ,खेत-मजदूर और भूदास किसान
आओ,खदान-श्रमिक और फैक्ट्री वर्कर नौजवान
आओ,कैंपस के छात्र और फैकल्टियों के नवीन-प्रवीण प्राध्यापक
हाँ,हाँ,तुम्हारे ही अंदर तैयार हो रहे हैं
आगामी युगों के लिबरेटर.

लेकिन इस जिंदगी से अलग भी बाबा की एक व्यक्तिगत जिंदगी है जहाँ अन्तरालों में वे लौटते हैं. चिंताओं,जिम्मेदारियों और व्यक्तिगत संघर्ष की दुनिया. जैसे पिछले कई सालों से बाबा ने दिल्ली में टैगोर पार्क में रहने के लिए तो एक कमरानुमा जगह डेढ़ सौ माहवार किराए पर ले रखी थी. इस शहर में इतने किराए के कमरे की कल्पना आप सहज ही कर सकते हैं. आप आकर देखिए इस खूबसूरत बस्ती में शायद यह एकमात्र मकान है जिसके बारे में जितना कहा जाय उतना ही कम है. मकान क्या है दर्जनों लघुतम घरेलू उद्योग-धंधों का एक केंद्र है और उनमें लगे तमाम लोगों का आश्रय भी. छोटी-सी बीड़ी-सिगरेट,दाल-आटे की दुकान है,भैंसों के दूध का कारोबार है,धोबी का धंधा है...और भी कई कुछ इस दो-तीन कमरों वाले मकान में चलता है. उसी में किताबों से अटी कोठरिया में,एक पैर सिकुड़ी धँसी चारपाई पर बाबा लेटे हैं अपना सारा माल-आसबाब समेटे.

रह रहकर दमा उभरता है,रजाई में मुँह दिए बाबा खाँसी से काँप रहे हैं और सोच रहे हैं कि फलाँ प्रकाशक चार चक्कर लगवा चुका लेकिन अभी तक धेला नहीं दिया. सालों से कई किताबें अनुपलब्ध हैं लेकिन उन्हें छापने की बजाय वे चाहते हैं कि फरमाइश पर एक टैक्स्टबुक लिख दूं तो कुछ एडवांस दे दें. पिछली बरसात में गाँव का घर गिर गया,अबकी फिर बनवाना है. न जाने बुढ़िया कैसे दिन काटती होगी वहाँ. लड़कियों की शादी करनी है,मिसिरों के चोंचले. तीन लड़के लगभग बेकार हैं,उन्हें अपने जीते जी किसी धंधे से लगाना है....किसी छोटे-बड़े प्रकाशक से बात करूँगा. सौ-डेढ़ सौ की नौकरी दे ही दे पसीज कर. छोटे लड़के को तो चलो गुजारे लायक मिल गई अब बड़े शोभाकांत को भी ले आते हैं,भागदौड़ कर किताबें बेचकर सौ दो सौ बचा ही लेगा,फिर बाद में गाँव से बीवी बच्चे भी यहीं ले आयगा....बिचले को प्रेस का काम सिखाना है कुछ दिन बाद अपना पेट भरने लगेगा....चारों प्राणी उसी कोठरी में बैठे हैं,स्टोव पर चाय,चपाती,दाल बनती है,कमरा तपता है - अगले महीने हो सका तो किराए पर एक टेबल फैन का जुगाड़ करना है. तेल और धुएं से आँखें चुचुआती हैं. बेटों को चिंता है बाबूजी की ऐसे कितने दिन चलेंगे ? और बाबा को बेटों की,गांव में पड़ी पत्नी की,शोभाकान्त के बीवी-बच्चों की. बाबा मुर्गी की तरह अपने पंखों में ढके-दाबे बैठे हैं परिवार और उसकी परेशानियों को.

यह भी बाबा की जिंदगी का एक पक्ष है. और यह पक्ष ऐसा क्रोध उत्पन्न करने वाला है,ऐसी जुगुप्सा और घृणा जगाने वाला है -इस पूरी व्यवस्था के प्रति,उसके कर्णधारों के प्रति और उसके तमाम छोटे-बड़े पायों के प्रति जिनमें प्रकाशक भी आते हैं. जिसके नाम पर मोटी रकम कमाते हैं,जिसका उल्लेख साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में करते हैं उसके साथ सुलुक इस तरह का करते हैं. यह व्यवस्था रीढ़ हीन,बौनों और बटमारों को प्रश्रय देती है,ईमानदार,जिंदादिल और साबुत आदमी को उसने तिल-तिल कर मारा है.

बाबा पर आरोप लगाया जाता है ‘सम्पूर्ण क्रांतिऔर आपातकाल के दौर में उनके व्यवहार को लेकर. आपातकाल से पहले इस देश में असहिष्णुता का जो माहौल पैदा हो रहा था,राजनीतिक एकाधिकार वाद और भ्रष्टाचार जो बढ़ रहा था,नागार्जुन की उस समय लिखी तमाम रचनाएं इस बात की गवाह हैं कि वे उन पर बहुत तीखे और जमकर प्रहार कर रहे थे. केवल कुछ प्रमाण देना ही पर्याप्त होगा१९७२ में जब पबंगाल में सत्तादल ने गुंडागर्दी के बल पर चुनाव जीते तो उन्होंने एक ललकार भरी कविता "अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन" लिखी और आगे आने वाले दिनों के बारे में लोगों को आगाह किया-

"तानाशाही रंगमंच है प्रजातंत्र का अभिनय"

तथा-

"श्लोकों में गूंजेंगे अबकी फौजी अध्यादेश"

बाबा की भविष्यवाणी सच हो रही थी. ऐसे में जयप्रकाश तरुणों के बल पर संपूर्ण क्रांति का नारा लेकर सामने आए. बाबा,जिन्होंने जीवन भर जयप्रकाश का विरोध किया था उस आंदोलन में तन-मन-धन से कूद पड़े,इस हालत और उम्र में जेल गए.

लेकिन संपूर्ण क्रांति के झंडे के नीचे एकत्र हुए लोगों और दलों की कारगुजारियों से जनता का मोहभंग  तो बाद में हुआ,बाबा ने जेल में ही काफी कुछ समझ लिया था. वे इन लोगों और दलों के चेहरों को बखूबी पहचानते थेइसलिए वे उनसे अलग हो गए. जनता सरकार बनी. लोगों ने नई सरकार में पहुँच बनाना शुरू किया लेकिन बाबा फिर अपने अभियान में जुट गए. जो आदमी एक सरकार के भ्रष्टाचार,अन्याय और  तानाशाही को बर्दाश्त नहीं कर सकता वह दूसरे की क्यों करेगा भला. बाबा उन कुछेक लोगों में से थे जिन्होंने अपनी आपातकाल की शहादत को भुनाया नहीं बल्कि जनता के बीच से इस नई सरकार को भी ललकारा. मोरारजी के पुत्र का मामला आया तो जो नागार्जुन संजय प्रसंग पर एक जमाने में लिख चुके थे-"पार्लियामेंट पर चमक रहा है मारुति का ध्रुवतारा" या "देवी तुम तो काले धन की बैसाखी पर खड़ी हुई हो" - उन्होंने मोरारजी को साबुत बचकर नहीं जाने दिया. जनता सरकार के एक बरस पर जब कुछ लोग  सालगिरह मना रहे थे तो बाबा ने पूछा-

कुर्सियों पर जमे तुमको
फाइलों में रमे तुमको
क्रांति पथ पर थमे तुमको
हो गये बारह महीने,हो गये बारह महीने.

इसी काल में हरिजनों पर हुए अत्याचारों के खिलाफ उन्होंने एक लंबी कविता लिखी ‘हरिजन गाथा.

(जारी)

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

आगत की आहट सुना गये बाबा।