"चारों
तरफ की स्थितियां आज भयावह रूप से वहशी और हैवानियत से भरी हुई हैं. सोचो तो कई बार बाहर रोज़
रोज़ घटती घटनाओं से कहीं ज़्यादा अपने भीतर बैठा एक पितृ- सत्तात्मक समाज , उसका सोच और संस्कार डराने लगता है . लडाई जितनी बाहर कानून- व्यवस्था और राज्य -सता को लेकर है, उतनी , बल्कि उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर के
मर्दवादी सोच और संस्कारों से है. हम सब कहीं न कहीं अपने भीतर, अपने चेतन- अवचेतन में उस पुरुषवादी सत्ता को ही तो ढोते रहे हैं ." -
विजय कुमार
देविका के लिए
एक कविता
देविका जब तुम
अठारह बसंत पार कर लोगी
तुम एक सम्पूर्ण
औरत बन जाओगी
इसी शहर के किसी
दफ्तर में
तुम चर्चगेट की
विशाल इमारत से
हज़ारों औरतों
के संग निकलोगी
बाज़ार में बहुत
सी दुकानों से गुज़रोगी
म्यूज़ियम और
फाउंटेन की भीड़ में डूबोगी
हार्निमन सर्कल
तक पहुँच जाओगी
घर लौटते हुए
तुम्हारे पास दो सब्ज़ी के थैले होंगे
एक टिन नेस्केफे
एक साप्ताहिक
पत्रिका
और पर्स में
चालीस रुपये
एक मुसरा हुआ
रूमाल
तब क्या तुम
मुझे अंकल कह कर
बीच सड़क पर
पुकारोगी देविका ?
आसमान में बदली
होगी
कभी भी संभावित
होगी बरसात
देविका तुम कोई
बात नहीं करोगी
हालाँकि सारा
समय बोल रही होगी
तुम लोकल में
लटकोगी
बित्ता भर
सीट के लिए कचकच करोगी
घर आ कर चिट्ठी
खोलोगी
टीवी ऑन करोगी
पानी भरोगी
गैस पर चढाओगी
पतीली
पसीने से
बस्साता हुआ दिन बीतेगा
और खाली नहीं
बीतेगा
रात भी ठीक समय
पर आयेगी
तुम खिड़कियों
के पर्दे खींचोगी
मुँह धोओगी ,
और सोने चली
जाओगी
अँधकार में
तुम्हे काट काट डाला जाएगा
तुम्हें अंग अंग
पर
तपती हुई सलाखें
दागी जाएंगी
एक बीमा
कर्मचारी तुम्हारे बगल में लेट कर
तुम्हारे शरीर
में अँधेरा भर देगा
और
बीस बरस बाद
देविका तुम
खर्राटे भरते हुए
सिर्फ अगले दिन
के लिए जग रही होगी.
2 comments:
अच्छी लगी कविता।
सुन्दर...उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
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