Wednesday, January 9, 2013

तुम खर्राटे भरते हुए सिर्फ अगले दिन के लिए जग रही होगी .

कवि आलोचक विजय कुमार जी की स्त्री विषयक  दस कविताएं प्राप्त हुईं हैं. ये कविताएं उन के तीन काव्य संग्रहों - "अदृश्य हो जाएंगी सूखी पत्तियाँ", "चाहे जिस शक्ल सेतथा "रात पाली" से चुनी गईं हैं. ये क्रमशः विभिन्न ब्लॉग्ज़ पर दिखेंगी.  इस कड़ी मे उन की एक विचलित करने वाली गद्य कविता 'उस के जिए हुए वर्ष'  यहाँ  तथा उन की एक अन्य महत्वपूर्ण कविता  'वसुन्धरा ' यहाँ पढ़ी जा सकती हैं . इस कड़ी मे उन की तीसरी कविता "देविका के लिए - 


"चारों तरफ की स्थितियां आज भयावह रूप से वहशी और हैवानियत से भरी हुई हैं. सोचो तो कई बार बाहर रोज़ रोज़ घटती घटनाओं से कहीं ज़्यादा  अपने भीतर बैठा एक पितृसत्तात्मक समाज , उसका सोच और संस्कार डराने लगता  है . लडाई जितनी बाहर कानूनव्यवस्था और राज्य -सता को लेकर   हैउतनी , बल्कि उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर  के मर्दवादी सोच और संस्कारों से   है.  हम सब कहीं न कहीं अपने भीतरअपने चेतन- अवचेतन में उस   पुरुषवादी सत्ता को ही तो  ढोते रहे हैं ."      -      विजय कुमार


देविका के लिए एक कविता

देविका जब तुम अठारह बसंत पार कर लोगी

तुम एक सम्पूर्ण औरत बन जाओगी

इसी शहर के किसी दफ्तर में


तुम चर्चगेट की विशाल इमारत से

हज़ारों औरतों के संग निकलोगी

बाज़ार में बहुत सी दुकानों से गुज़रोगी

म्यूज़ियम और फाउंटेन की भीड़ में डूबोगी

हार्निमन सर्कल तक पहुँच जाओगी


घर लौटते हुए तुम्हारे पास दो सब्ज़ी के थैले होंगे

एक टिन नेस्केफे

एक साप्ताहिक पत्रिका

और पर्स में चालीस रुपये

एक मुसरा हुआ रूमाल

तब क्या तुम मुझे अंकल कह कर

बीच सड़क पर पुकारोगी देविका ?


आसमान में बदली होगी

कभी भी संभावित होगी बरसात

देविका तुम कोई बात नहीं करोगी

हालाँकि सारा समय बोल रही होगी

तुम लोकल में लटकोगी

बित्ता  भर सीट के लिए कचकच करोगी

घर आ कर चिट्ठी खोलोगी

टीवी ऑन करोगी

पानी भरोगी

गैस पर चढाओगी पतीली


पसीने से  बस्साता हुआ दिन बीतेगा

और खाली नहीं बीतेगा

रात भी ठीक समय पर आयेगी

तुम खिड़कियों के पर्दे खींचोगी

मुँह धोओगी ,

और सोने चली जाओगी


अँधकार में तुम्हे काट काट डाला जाएगा

तुम्हें अंग अंग पर

तपती हुई सलाखें दागी जाएंगी

एक बीमा कर्मचारी तुम्हारे बगल में लेट कर

तुम्हारे शरीर में अँधेरा भर देगा

और


बीस बरस बाद देविका तुम

खर्राटे भरते हुए

सिर्फ अगले दिन के लिए जग रही होगी. 

2 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

अच्छी लगी कविता।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सुन्दर...उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...