Friday, February 1, 2013

एक बुरूंश कहीं खिलता है


१९५२ में जन्मे हरीश चन्द्र पाण्डे इलाहाबाद में महालेखाकार कार्यालय में नौकरी करते हैं. 'कुछ भी मिथ्या नहीं है' के लिए उन्हें १९९५ का सोमदत्त सम्मान दिया गया. कविताओं की उनकी पहली बड़ी किताब 'एक बुरूँश कहीं खिलता है' कुछ साल पहले छपी (साल मुझे याद नहीं आ रहा). हिन्दी जगत में इसे काफ़ी चर्चित पुस्तकों में गिना गया और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के सर्जना पुरुस्कार से सम्मानित हुई. प्रतिष्ठित केदार सम्मान और ऋतुराज सम्मान भी इस कवि को मिल चुके हैं.
वर्ष २००६ में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उनका नवीनतम संग्रह 'भूमिकाएं ख़त्म नहीं होतीं' प्रकाशित हुआ है. कबाड़खाने पर इस पूरे महीने उनकी कविताओं से आप को रू-ब-रू करवाया जाएगा, यह अलग बात है कि उनकी रचनाओं को इस ब्लॉग पर लगाने का सौभाग्य हमें पहले भी मिल चुका है. 


एक बुरूंश कहीं खिलता है

- हरीश चन्द्र पांडे 

खून को अपना रंग दिया है बुरूंश ने
बुरूंश ने सिखाया है
फेफड़ों में भरपूर हवा भरकर
कैसे हंसा जाता है
कैसे लड़ा जाता है 
ऊंचाई की हदों पर
ठंडे मौसम के विरूदद्य
एक बुरूंश कही खिलता है
खबर पूरे जंगल में
आग की तरह फैल जाती है
आ गया है बुरूंश
पेड़ों में अलख जगा रहा है
कोटरों में बीज बो रहा है पराक्रम के
बुरूंश आ गया है
जंगल में एक नया मौसम आ रहा है

2 comments:

संतोष त्रिवेदी said...

....बुरुंश होना भी आज एक खबर है !

मुनीश ( munish ) said...

कहते हैं इन फूलों का रस दिल के लिए अच्छा है । कहीं शुद्ध मिलता हो तो बताएँ ।