Friday, February 8, 2013

यह जिजीविषा जो कभी सितार है कभी बाँसुरी



संगीत है

-कुमार अम्बुज

यह संगीत है जो अविराम है
यह भीड़ में है
जो अकेलेपन के कक्ष में
गूँजता है अलग बंदिश में
शब्द में
निःशब्द में हवा में
निर्वात में
संगीत है
यह जिजीविषा जो कभी सितार है
कभी बाँसुरी
कभी अनसुना वाद्ययंत्र
और यह दुःख के साथ-साथ
जो कातरता बज रही है शहनाई में
और यह दुराचारी का दर्प
जो भर गया है नगाड़े में
यह संगीत है
जो छिप नहीं सकता
यह है भीतर से बाहर आता हुआ
यह है बाहर से
भरता हुआ भीतर
यह संगीत है
कभी टिमटिमाता हुआ एक तार पर
कभी गुँजाता हुआ पूरी कायनात का सभागार

3 comments:

Rajendra kumar said...

बहुत ही बेहतरीन रचना।

Guzarish said...

bahut sunder

कविता रावत said...

अम्बुज जी की बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुति हेतु आभार