Friday, June 28, 2013

बोली में बिराजी रहै धमक कबित्त की

आज संजय चतुर्वेदी की तीन कवितायेँ. ये कविताएँ जून १९९९ में छपे ‘पहल’ के अंक ६० में छपी थीं.


भक्तिकाल

- संजय चतुर्वेदी

कई दिनों से लिखना भूले
यहाँ लोग कविता लिखते थे
शायद ऊब गए है बन्दे
पहले असल ख़ुदा लिखते थे

वे दिन भी मुश्किल के दिन थे
शोषण और दमन का हल्ला
उथल-पुथल नागर जीवन में
दुखी गाँव, घर, गली, मुहल्ला
पर संतों ने हार न मानी
कठिन कर्म का थामा पल्ला
सच्चे की सच्चाई लेकर
छोटे लोग बड़ा लिखते थे

दुनिया में फ़ैली हिंसा को
ब्यौरेवार सहा लोगों ने
सगुण विश्व की चिंताओं से
आगे भी देखा लोगों ने
जो भी देखा उसे सगुण का
प्रतिसंसार कहा लोगों ने
कोलाहल में घिरे मनीषी
ध्वनि से बाहर क्या लिखते थे

घोर अभाव अँधेरा आंगन
टिमटिम सी सच्चाई होगी
बालसुलभ उम्मीद लगाए
सदियों की बीनाई होगी
बेसूरत की ख़ूबसूरती
पंचभूत में पाई होगी
सूरदास जैसे लोगों में
रूपकार दुआ लिखते थे.

बाक़ी जंजाल का हवाल

हिन्दी कविता में भक्तिकाल महाकाल हुआ,
                   बाक़ी जंजाल का हवाल अभी होना है.
आधुनिकता के नाम गड़बड़ी हज़ार हुई,
                   साझा वह भूल थी मलाल अभी होना है.
शब्द के दरोगा जिसे लीपते रहे हैं उसी,
चिकनी ज़मीन पे वबाल अभी होना है.
आधुनिकता का सामान हो गया है मगर,
                   आधुनिकता का कविकाल अभी होना है.

काब्यदेस

एशिया को दक्खिन भूभाग काब्यदेस अहै,
कोऊ-कोऊ जाने गति उतपाती चित्त की.
बेदन की भासा कथानक में रेखता में,
छंदकूटछाया है अनूठे बात-पित्त की.
टूटै गीतकाया पुनि पुनि प्रगीतमाया जुरै,
नित्त-नित्त लीला छबिरचना अनित्त की.
गद्य में पद्य में निखद्द भद्द-भद्द हू में,
बोली में बिराजी रहै धमक कबित्त की.

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