सरबत सखी जमावड़ा - १
-संजय चतुर्वेदी
कविता में तिकड़म घुसी जीवन कहाँ समाय
सखियाँ बैठीं परमपद सतगुरु दिया भगाय
घन घमंड के झाग में लम्पट भये हसीन
खुसुर पुसुर करते रहे बिद्या बुद्धि प्रबीन
सतगुरु ढूंढे ना मिलै सखियाँ मिलें हज़ार
किटी पार्टी हो गया कविता का संसार
रूपवाद जनवाद की एक नई पहचान
सखी सखी से मिल गयी हुआ खेल आसान
ऊंची कविता आधुनिक पकड़ सकै ना कोय
औरन बेमतलब करै खुद बेमतलब होय
कवियों के लेहड़े चले लिए हाथ में म्यान
इत फेंकी तलवार उत मिलन लगे सम्मान
कविता आखर खात है ताकी टेढ़ी चाल
जे नर कविता खाय गए तिनको कौन हवाल
जनता दई निकाल सो अब मनमर्जी होय
मंद मंद मुस्काय कवि कविता दीन्ही रोंय
खुसुर पुसुर खडयंत्र में फैले सकल जुगाड़
निकल रही यश वासना तासें बंद किवाड़
सरबत सखी जमावड़ा गजब गुनगुनी धूप
कल्चर का होता भया सरबत सखी सरूप
(शेष कल सुबह पढ़ें)
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