केदारनाथ
समेत सारे उत्तराखंड में बरसात ने तबाही मचाई है. २०१२ में भी ऐसा हुआ था. २०११ में भी और
२०१० में भी. पुराने रिकॉर्ड खंगाल कर देख लीजिए हाल के कई सालों
से ऐसा होता आ रहा है और यकीन मानिए हालात तो खराब होना अब शुरू हुए हैं.
पिछले साल
बाढ़ अगस्त के महीने के शुरू में यानी मानसून के चरम पर आई थी; इस साल प्रकृति ने जून में ही चेता दिया है
कि अब सम्हलने का नहीं, उस से डरने और उसे मनाने का समय आ गया
है. पर्यावरण और पारिस्थिकी हमारी सरकारों के सबसे निचले सरोकारों
पर रहे हुए विषय हैं – आँखों पर पट्टी बांधे दशकों से प्राकृतिक
संसाधनों का अंधदोहन करते या ऐसा करने में हरसंभव सहायता मुहैय्या कराने को तत्पर रहने
वाले सरकारी तंत्र से अगर लोग अब भी कोई उम्मीद लगाए बैठे हैं तो इसे उनका भोलापन (बुद्धूपन पढ़ें) समझा जाना चाहिए.
अभी इस विषय
पर बहुत ज़्यादा विश्लेषण, आलोचना का नहीं कुछ किये जाने का समय है.
मुझे कुछ
बरस पहले कुमाऊँ की धारचूला तहसील के मालपा के भूस्खलन (जी हां बेकाबू बारिश की वजह से घटा वही हादसा
जिसमें कबीर बेदी की पत्नी प्रोतिमा बेदी मारी गयी थीं तीनेक सौ अन्य लोगों के साथ.
यह उन्हीं की मृत्यु का ‘प्रताप’ था कि यह हादसा अंतर्राष्ट्रीय समाचार बन सका वरना उत्तराखंड की क्या बिसात!)
के बाद मित्र कवि अतुल शर्मा का लिखा एक मार्मिक जनगीत लगातार याद आ
रहा है. उसे प्रस्तुत करता हूँ और वादा करता हूँ कि इस घटनाक्रम
पर यह अंतिम पोस्ट नहीं है.
बोल रे मौसम कितना पानी !
सिर से पानी गुजर गया
हो गई खतम कहानी
बोल रे मौसम कितना पानी !
झुलसी हुई कहानी है
आग बरसता पानी है,
दबी हुई सांसे जिनकी
सूनी लाश उठानी है,
चीखा जंगल, रोया पर्वत
मौसम की मनमानी
बोल रे मौसम कितना पानी!
आंसू डूबी झींलें हैं
गाल नदी के गीले हैं,
सूनी लाशें ढूंढ रहीं
आश्वासन की चींलें हैं,
देखे कोई समझ न पाये
किसको राहत खानी
बोल रे मौसम कितना पानी!
बहाव नदी का दूना है
घर आंगन भी सूना है,
सीढ़ीदार खेत बोले
गुम हो गया बिछौना है,
नींद आंख से रूठ गई
खून सना है पानी
बहाव नदी का दूना है
घर आंगन भी सूना है,
सीढ़ीदार खेत बोले
गुम हो गया बिछौना है,
नींद आंख से रूठ गई
खून सना है पानी
बोल रे मौसम कितना पानी!
3 comments:
kiya kya ja sakta hai is par bhii socho!
marmik, behad marmik!
पानी ने प्रसयसम स्थिति पैदा कर दी।
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