Thursday, June 13, 2013

मैंने सोचा था अगर दुनिया के वीरानों में - रफ़ी साहब की एक याद



बहुत दिनों बाद रफ़ी साहब का यह गीत सुना. आपसे साझा करने की इच्छा हुई. न्याय शर्मा की लिखी इस नज़्म को खैय्याम साहब ने संगीत में बांधा है.


मैंने सोचा था अगर मौत से पहले पहले
मैंने सोचा था अगर दुनिया के वीरानों में
मैंने सोचा था अगर हस्ती के शमशानों में
किसी इंसान को बस एक भी इंसान की गर
सच्ची बेलाग मुहब्बत कहीं हो जाए नसीब
वही साहिल जो बहुत दूर नज़र आता है,ख़ुद बख़ुद खिंचता चला आता है कश्ती के क़रीब
मैंने सोचा था यूँ ही दिल के कँवल खिलते हैं
मैंने सोचा था यूँ ही सब्र-ओ-सुकूँ मिलते हैं
मैंने सोचा था यूँ ही ज़ख्म-ए-जिगर सिलते हैं

लेकिन,सोचने ही से मुरादें तो नहीं मिल जाती
ऐसा होता तो हर एक दिल कि तमन्ना खिलती
कोशिशें लाख सही बात नहीं बनती है
ऐसा होता तो हर एक राही को मंज़िल मिलती
मैंने सोचा था के इंसान की क़िस्मत अक्सर
टूट जाती है बिखरती है सँभल जाती है
अप्सरा चाँद की बदली से निकल जाती है
पर मेरे वक़्त की गर्दिश का तो कुछ अंत नहीं
ख़ुश्क धरती भी तो मझधार बनी जाती है
क्या मुक़द्दर से शिकायतक्या ज़माने से गिला
ख़ुद मेरी साँस ही तलवार बनी जाती है

हाए,फिर भी सोचता हूँ,रात की स्याही में तारों के दीये जलते हैं
ख़ून जब रोता है दिल गीत तभी ढलते हैं
जिनको जीना है वो मरने से नहीं डरते हैं
इसलिये,मेरा प्याला है जो ख़ाली तो ये ख़ाली ही सही
मुझको होँठों से लगाने दो यूँ ही पीने दो
ज़िंदगी मेरी हर एक मोड़ पे नाकाम सही
फिर भी उम्मीदों को पल भर के लिये जीने दो

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