Friday, July 5, 2013

पहन के जिस्म भटकतीं मजाज़ की नज़्में – १ - शलभ श्रीराम सिंह

 [ये रचनाएं ‘उद्भावना मजाज़ विशेषांक’ से साभार ली गयी हैं. अंक मुझे प्रिय कवि और रचनाकार डॉ. संजय चतुर्वेदी ने उपलब्ध करवाया था. सो इस ब्लॉग पर लगने वाली मजाज़ से सम्बंधित इस पोस्ट के अलावा अगली सारी पोस्ट्स के लिए मैं उनका और सम्पादक श्री अजेय और विशेषतः इस अंक के अतिथि सम्पादक श्री जानकीप्रसाद शर्मा का धन्यवाद कहता हूँ. मजाज़ की नज़्मों को लेकर लिखी गयी अपनी नज़्मों की भूमिका में शलभ श्रीराम सिंह ने लिखा है –

13 दिसम्बर ’80 के बाद म.प्र. क्व शहर विदिशा में रहते हुए मैंने छोटी-बड़ी कई कविताएँ, ग़ज़लें और नज़्में कहीं और लिखी हैं. उनमें ससे कुछ ग़ज़लें मेरी किताब ‘राहे-हयात’ में शामिल की जा चुकी हैं. एक लम्बी कविता ‘मालविका’ नरेंद्र जैन द्वारा संपादित ‘अंततः’ की आठवीं ज़िल्द में प्रकाशित होने के बाद काफ़ी चर्चित हुई और पाठकों ने उसे बहुत पसंद किया.

‘मजाज़ की नज्में’ विदिशा में रहकर मेरे द्वारा लिखी गयी दूसरी अहम् रचना है जो उर्दू के तरक्क़ी पसंद शायर ‘मजाज़’ लखनवी और उनकी मशहूर नज़्म ‘आवारा’, ‘नूरा’ और ‘नन्ही पुजारिन’ को विषयवस्तु के रूप में समेत कर आगे बढ़ती है और विदिशा अर्थात मालविका की नगरी तो इसकी पृष्ठभूमि में है ही. रवीन्द्रोत्तर बंगाली कविता के वरिष्ठ कवि जीवनानंद दास की सुप्रसिद्ध काव्य कृति ‘वनलता सेन’ का सम्बन्ध भी विदिशा से कहीं न कहीं है. तभी न वनलता सेन को संबोधित करते हुए कहते हैं, “चूल तोमार कबेकार विदिशार अन्धकार’ और मजाज़ के आसपास उनके शाइर दोस्त अख्तर शीरानी की मौजूदगी इस नज़्म में उनकी दो प्रेमिकाओं (जिन पर उन्होंने नज़्में कही हैं) के नामोल्लेख से हो जाती है. ‘सलमा’ और ‘अज़रा’ का ज़िक्र इसी हक़ीक़त की ताईद करने वाला है.

‘मजाज़’ की ‘नन्ही पुजारिन’ जिसे उन्होंने शायद रुदौली, अलीगढ़, लखनऊ या दिल्ले में कहीं देखा हो उसे मैंने विदिशा में देखा और जवान होते हुए देखा है. अब उसमें मुक़ाम-उम्र और वक़्त का फ़र्क़ अगर दिखलाई पड़ता है तो इसे भी आज की शाइरी के तकाज़े का एक हिस्सा माना जाना चाहिए. और आख़िर में यह कि मफ़हूम और मक़सद को बरक़रार रखने की कोशिश में यहाँ शाइरी के परम्परागत व्याकरण और ज़ुबान का जुगराफ़िया अगर कहीं से दरकता-धसकता मालूम पड़े तो इसे ‘कंटेंट’ की ज़रुरत समझ कर नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए. इस गुज़ारिश के बाद भी अगर कोई ब-ज़िद निगाह और घमंड से भरी उंगली उठती है तो मैं यह कहने की छूट चाहूँगा कि अपनी कविता का व्याकरण निर्धारित करने का अधिकार मेरे पास है और यह भी कि मैं जिन के लिए लिखना चाहता हूँ मेरी कविता का व्याकरण मेरे और उनके बीच संवाद की स्थिति में कहीं भी आड़े नहीं आता कि मैं ‘कंटेंट’ की पीठ पर वज़न और मात्रा की लाठी दे मारने का क़ायल कभी नहीं रहा और अपने कंटेंट के साथ दूसरों को भी इस तरह का सुलूक करने की छूट मैं अपनी ओर से नहीं देना चाहता, नहीं दे सकता. यही बात मेरी दीगर ग़ज़लों और गीतों पर भी लागू होती है.]    


१.

पहन      के        जिस्म
भटकतीं मजाज़ की नज़्में
हरेक शहर में मिलतीं हैं मुझको शाम ढले!
न सिर्फ़ मिलतीं हैं मिल कर के मुझ से कहती हैं-
ठहर भी जाओ यहाँ तुम कि उनका नाम चले!!

मुराद ‘उनका’ से उनके मजाज़ से है यहाँ
मजाज़ जिसने मुहब्बत को इबादत माना!
मजाज़ रूह के रिश्तों का नवजवाँ शायिर
मजाज़ जिसने सदा फ़न को सफ़ारत माना!!

य’ शहर जिसमें मिली है अभी पनाह मुझे
य’ शहर जिसमें मेरा दोस्त विजय रहता है!
य’ शहर जो कि है तारीख़ का सफ्फाफ़ सफ़ह
जो कि अपनी दास्तान ख़ुद जहां से कहता है!!
य’ शहर जिसकी सरज़मीं पे क़ब्ल ईसा के
अभी अशोक का लश्कर अज़ीम उतरा था!
य’ शहर जिसकी फ़ज़ाओं के रास्ते से कभी
व’ कालिदास का अब्री सफ़ीर गुज़रा था!!

मज़हबो जंगो अमन का अजीब संगम यह
न सिर्फ़ शहर है फ़न की पनाहगाह भी है!
य’ ज़मीं जिसने कि औरंगज़ेब तक को सहा
सुरों की, ताल की, लय की गुज़ारगाह भी है!!

(विजय -  जाने माने कवि आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह. चित्र - विदिशा की एक पुरानी गुफा.)

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