Sunday, October 6, 2013

ये बने ख्‍वाब की तफसील अंधेरों की शिकस्त - कानपूर पर दस कवितायेँ

कानपूर


- वीरेन डंगवाल

प्रेम तुझे छोड़ेगा नहीं !
वह तुझे खुश और तबाह करेगा।

सातवीं मंज़िल की बालकनी से देखता हूँ

नीचे आम के धूल सने पोढ़े पेड़ पर 
उतरा है गमकता हुआ वसन्‍त किंचित शर्माता.

बड़े-बड़े बैंजली-

पीले-लाल-सफेद डहेलिया 
फूलने लगे हैं छोटे-छोटे गमलों में भी.

निर्जन दसवीं मंज़िल की मुंडेर पर 
मधुमक्खियों ने चालू कर दिया है 
अपना देसी कारखाना.

सुबह होते ही उनके झुण्‍ड लग जाते हैं काम पर 
कोमल धूप और हवा में अपना वह 
समवेत मद्धिम संगीत बिखेरते 
जिसे सुनने के लिए तेज़ कान ही नहीं 
वसन्‍त से भरा प्रतीक्षारत हृदय भी चाहिए 
आँसुओं से डब-डब हैं मेरी चश्‍मा मढ़ी आँखें

इस उम्र और इस सदी में.

पूरे शहर पर जैसे एक पतली-सी परत चढ़ी है धूल की

लालइमली इल्गिन म्‍योर ऐलेनकूपर-

ये उन मिलों के नाम हैं 
जिनकी चिमनियों ने आहें भरना भी बंद कर दिया है 
इनसे निकले कोयले के कणों को 
कभी बुहारना पड़ता था 
गर्मियों की रात में 
छतों पर छिड़काव के बाद बिस्‍तरे बिछाने से पहले 
इनकी मशीनों की धक-धक

इस शहर का अद्वितीय संगीत थी

बाहर से आया आदमी 
उसे सुनकर हक्‍का-बक्‍का हो जाता था


फिर मकडियां आई 
उन्‍होंने बुने सुघड़ जाले 
पहले कुशल मजदूर नेताओं 
और फिर चिमनियों की मुख-गुहाओं पर 
फिर वे झूलीं

और फहराई

फूटे हुए एसबेस्‍टस के छप्‍परों 
और छोड़ दी गई सूनी मशीनों पर 
अपनी सफेद रेशमी पताका जैसी.


फूलबाग में फूल नहीं 
चमन गंज में चमन

मोतीझील में झीन नहीं 
फजल गंज चुन्‍नी गंज कर्नल गंज में 
कुछ गंजे होंगे जरूर 
मगर लेबर दफ्तर और कचहरी में न्‍याय नहीं


पूरी रात तैयारी के बाद अपनी धमन भट्टी दहकाते हैं

सूरज बाबू और चुटकी में पारा पहुंच जाता है अड़तालीस 
लेकिन सूनी नहीं होगी थोक बाजारों 
और औद्योगिक आस्‍थानों की गहमागहमी


कुछ लद रहा होगा 
या उतर रहा होगा 
या ले जाया जा रहा होगा 
रिक्‍शों, ऑटों, पिकपों, ट्रकों 
या फिर कंधों पर हीः

लोहा-लंगड़-अर्तन-बर्तन-जूता-चप्‍पल-पान-मसाला

दवा-रसायन-लैय्यापट्टी-कपड़ा-सत्‍तू-साबुन-सरिया 

आदमी से ज्‍यादा बेकाम नहीं यहां कुछ 
न कुछ उससे ज्‍यादा काम का


ककड़ी जैसी बांहें तेरी झुलस झूर जाएंगी

पपड़ जाएंगे होंठ गदबदे प्‍यासे-प्‍यासे 
फिर भी मन में रखा घड़ा ठण्‍डे-मीठे पानी का 
इस भीषण निदाघ में तुझको आप्‍लावित रक्‍खेगा


अलबत्‍ता 
लली, घाम में जइये, तौ छतरी लै जइये


फिर एक राह गुजरी 
फिर नई सड़क बेकनगंज ऊंचे फाटकवाला यतीमखाना 
बाबा की बिरियानी 
'न्‍यू डिलक्‍स' के गरीब परवर कबाब-रोटी विद रायता 

रमजान की पवित्र रातें 
रात भर चहल-पहल पीतल के बड़े-बड़े हण्‍डों वाले चायखानों में 
और फिर ईदः

टोपियां 
नए कपड़ों में टोलियां 
नेताओं और अफसरों से गले मिलते लोगों की 
सालाना तस्‍वीरें स्‍थानीय अखबारों में 

लाल आंखों वाला एक जईफ मुसलमान,
जब वो मुझसे पूछता है तो शर्म आती हैः 
'जनाब, हमारी गलती क्‍या है?

कि हम यहां क्‍यों रहे?
हम वहां क्‍यों नहीं गए?'
इस पुराने सवाल का जवाब पूछती उसकी दाढ़ी 
आधी सफेद आधी स्‍याह है.


शहर के सबसे गरीब लोग 
इन्‍हीं पुरपेंच गलियों में रहते हैं 
काबुक में कबूतरों की तरह दुमें सटाये 
जिस्‍म की हरारत से तसल्‍ली लेते

सबसे भीषण-जांबाज युवा अपराधी भी यहां रहते हैं,

किश्‍तों पर ली गई सबसे ज्‍यादा तेज रफ्तार मोटर साइकिलें यहीं हैं

सबसे रईस लोग गोकि घर छोड़ गए हैं

मगर उनके अपने ठिकाने अब भी हैं यहीं.


घण्‍टाघर 
जैसे मणिकर्णिका है जिसे कभी नींद नहीं 
थके कुए मनुष्‍यों की रसीली गंध पर 
लार टपकाता 
एक अदृश्‍य बाघ 
बेहद चौकन्‍ना होकर टहलता भीड़ में

एहतियात से अपने पंजे टहकोरता 
कि कहीं उसकी रोयेंदार देह का कोई स्‍पर्श 
चिहुंका न दे

फुटपाथ पर ल्‍हास की तरह सोते 
किसी इन्‍सान को 

'नंगी जवानियां' 

यही फिल्‍म लगी है 
पास के 'मंजु श्री' सिनेमा में 
घटी दर पर.


गंगाजी गई सुकलागंज 
घाट अपरंच भरे-भरे 
भैरोंघाट में विराजे हैं भैरवनाथ लाल-काले 
चिताओं और प्रतीक्षारत मुर्दों की सोहबत में, 
परमट में कन्‍नौजिया महादेव भांग के ठेले और आलू की टिक्‍की, 
सरसैयाघाट पर कभी विद्यार्थी जी भी आया करते थे 
अब सिर्फ कुछ पुराने तख्‍त पड़े हैं रेत पर, हारे हुए गंगासेवकों के, 
जाजमऊ के गंगा घाट पर नदी में सीझे हुए चमड़े की गंध और रस 

माघ मास की सूखी हुई सुर सरिता के ऊपर समानान्‍तर 
ठहरी-ठहरी सी बहती है 
गन्‍धक सरीखे गाढ़े-पीले कोहरे की 
एक और गंगा.


दहकती हुई रासायनिक रोशनी में 
बालू के विस्‍तार पर 
सिर्फ रेंगता सा लगता है दूर से 
एक सुर्ख ट्रैक्‍टर 
सुनाई नहीं पड़ता 
चींटियों सरीखे कई मजदूर 
जो शायद ढो रहे हैं कुछ भारी असबाब 
जैसे शताब्दियों से! 
किरकिराती आंखों से देखता हूं 
बनता हुआ गंगा बैराज 

एक थकी हुई पराजित सेना के घोड़े 
और देहाती पदातिक 
उतरेंगे अभी 
क्‍लांत नदी में रात के अंधेरे में बार-बार 
बिठूर के टीलों भरे तट पर 
किसी फिल्‍म में निरंतर दोहराये जाते 
मूक दृश्‍य की तरह 

इसी तट के पार 
शुरू होते हैं 
उद्योगपतियों के फार्म हाउस 
और विलास गृह

१०


रात है रात बहुत रात बड़ी दूर तलक 
सुबह होने में अभी देर हैं माना काफी 
पर न ये नींद रहे नींद फकत नींद कहीं 
ये बने ख्‍वाब की तफसील अंधेरों की शिकस्त

2 comments:

azdak said...

मन लहका रे बहका जैसे गाने का फिर पिक्‍चराइज़ेशन करना हो तो डंगवाल जी के इस कानपुर ने तो फिर बड़ी दिक्‍कत देनी है? वैसे हिन्‍दुस्‍तान में कोई नगरपुर खोज दे जहां पूरे शहर पर धूल की एक पतली सी परत चढ़ रखने को न छटपटा रही हो..

Madan Mohan Saxena said...

बेह्तरीन अभिव्यक्ति!!शुभकामनायें.
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
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