Thursday, October 17, 2013

हमारे यहां हिंदी का हर अध्यापक-पत्रकार तो कवि-साहित्यकार होता ही है


प्रियंकर पालीवाल की महत्वपूर्ण टिप्पणी, उन की फेसबुक वॉल से उन्हीं की इजाज़त से साभार -


हमारे यहां इतिसकार इतिहास के मास्टरों को कहा जाता है और दार्शनिक दर्शन के अध्यापक को. हिंदी का हर अध्यापक-पत्रकार तो कवि-साहित्यकार होता ही है .सो यह कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि रामविलास जी इतिहासकार नहीं थे . दरअसल उनकी स्कॉलरशिप विदाउट बॉर्डर्स को उचित मान देने की ज़ुरूरत है जो हिंदी में उनके जैसे व्यक्तित्व के विरल होने के कारण मुश्किल दिखाई देता है. कुछ हद तक राहुल जी और भगवत शरण उपाध्याय जैसे विद्वानों को इस श्रेणी में शामिल किया जा सकता है. 

रामविलासजी जब लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे तो वहां प्रो.धूर्जटिप्रसाद मुखर्जी अध्यापन कर रहे थे. समाजशास्त्री,इतिहासकार,अर्थशास्त्री,दार्शनिक,कलाविद,वास्तुविदसंगीतशास्त्री आदि-आदि क्या नहीं थे वे. पर किसी ने नहीं कहा कि वे यह नहीं हैं और वह नहीं हैं. वर्ष 2000 में जानेमाने एस्ट्रो-फिजिसिस्ट और वैज्ञानिक संस्थान निस्टैड्स के निदेशक डॉ. राजेश कोछर ने एक किताब लिखी : द वैदिक पीपल -- देयर हिस्ट्री एण्ड ज्योग्रैफी (ओरिएंट लोंगमैन) पर किसी ने नहीं कहा कि वे इतिहासकार नहीं हैं तो क्यों इस विषय में टांग अड़ा रहे हैं . पुरातत्वविद बी.बी. लाल ने स्थापना दी कि महाभारत काल रामायण काल के पहले का हो सकता है तो किसी ने उन्हें हास्पास्पद नहीं ठहराया . बहुअनुशासनिक अध्ययन के युग में ये सब गुजरे जमाने के - कालबाह्य -- और ठहरे हुए तर्क हैं. 

मार्टिन बर्नाल की तान खण्डों वाली किताब -- ब्लैक अथेना : द ऐफ्रो-एशियाटिक रूट्स ऑव क्लासिकल सिविलाइजेशन -- ने ग्रीक क्लैसिकल प्रोजेक्ट के हामी आचार्यों को बौखला दिया है . पर इससे वह हास्पास्पद नहीं हो जाती . बल्कि वह रामविलास जी की ही बात को आगे बढ़ाती है . प्रबोधन का पूरा सिद्धांतपूरा का पूरा आर्यन मॉडल और उसके साथ पश्चिम की श्रेष्ठता की समूची अवधारणा प्रश्नों से घिरी है . 1987 से शुरु हुए बर्नाल के काम की तीखी आलोचना हुई पर वे 2001में फिर हाज़िर हुए अपनी नई किताब के साथ -- ब्लैक अथेना राइट्स बैक: मार्टिन बर्नाल रेस्पॉन्ड्स टु क्रिटिक्स. दिक्कत सिर्फ यह है कि हमारे यहां ज्ञान के पश्चिमी मॉडल को सेकुलर माना जाता है और तमाम शिक्षा-संस्थान उसी की आधार आगे बढ‌ते हैं. रामविलास जी गेमचेंजर के रूप में सामने आते हैंवे उनके पैराडाइम में फिट नहीं बैठते सो असुविधाजनक हैं . असुविधाजनक हैं तो उन्हें खारिज करने के लिए सबसे आसान है उन्हें हिंदुत्ववादियों से जोड़ देना. 

मैक्स मुलर-व्हीलर-गार्डन चाइल्ड-पिगट-विट्जेल के 'आर्यन इनवेज़नके लगभग पूर्ण स्वीकृत सिद्धांत के खिलाफ जाना भी एक समय हास्यास्पद माना जाता था और घोड़े दौड़ाते युयुत्सु आर्यों के भयावह आक्रमण और प्राणरक्षा के लिए भागते निरीह नागरिकों और मुअनजोदड़ो की वीथियों पर सामूहिक नरसंहार के काल्पनिक चित्रों से इतिहास की किताबें पटी पड़ी थीं . जबकि आर्यों के आगमन के सारे सिद्धांत सांकेतिक थे निश्चयात्मक नहीं . रामविलास जी की स्थापना भीअगर वह सांकेतिक हो तो भी हास्यास्पद कैसे है हालांकि मार्शल और फेयरसर्विस ने सिंधु सभ्यता के अंतिम चरण में प्रशासनिक और आर्थिक गिरावट के संकेत देखने शुरू कर दिये थे पर भला हो विज्ञान/भूविज्ञान का कि उसके सहारे यह सिद्ध किया जा सका कि सिंधु सभ्यता आर्यों के हमले की वजह से नहीं पर्यावरणीय/ भूविवर्तनिक (टेक्टॉनिक) कारणों से नष्ट हुई . 

ग्रेगरी पॉशेल,डीपी अग्रवाल,जॉर्ज डेल्स और धवलीकर जैसे नामी पुराविद अपने अकादमिक अध्ययन में यह सब दिखा चुके हैं . तो इन दोनों सभ्यताओं में संबंध-समानता और निरन्तरता तो बहुत से विद्वान देखते हैं . जिम शेफ़र,कनिंघम और लिचेनसेतिन से लेकर केनोयर और पोशेल तक. यानी आक्रमणकारी और परवर्ती होने से आगे बढ़ कर यह तो मान लिया गया कि वे समकालीन/समानांतर सभ्यताएं हो सकती हैं . 

यह सही है जब तक सिंधु लिपि को स्वीकार्य रूप में डिसाइफर नहीं किया जा सकता तब तक प्रामाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता पर वैदिक ग्रंथों के भ्रामक अनुवाद से भी संदेह की स्थिति बनी है. बौधायन स्रौतसूत्र के विट्जेल के जिस अनुवाद को रामशरण शर्मा बिना कोई सवाल किए अपने सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए स्वीकार करते हैंबी.बी. लाल उसे भ्रामक मानते हैं. विलियन क्लांद का डच अनुवाद कुछ और कहता है. 2003 में काशिकर ने इसका अलग अनुवाद किया है. 

इधर कुछ विद्वान यह स्थापना सामने रख रहे हैं कि वैदिक सभ्यता सिंधु सभ्यता के पहले हुई होगी. फ़्रांसीसी-भारतीय विद्वान माइकेल डैनिनो अपने अध्ययन से यह संकेत देते हैं कि ऋग्वैदिक लोग पूर्व-हड़प्पन हो सकते हैं. इस संदर्भ में इंडियन आर्केयोलॉजिकल सोसाइटी के वार्षिक बुलेटिन पुरातत्त्वके छत्तीसवें अंक (2006) में उनका लेख जेनेटिक एण्ड आर्यन डिबेट और सैंतीसवें अंक (2006-2007) में उनका लेख फ्लॉगिंग अ डेड हॉर्स महत्वपूर्ण है. 2010 में डैनिनो की नई किताब सरस्वती पर आई है जो पेंगुइन से छपी है: द लॉस्ट रिवर: ऑन द ट्रेल ऑव रिवर सरस्वती. सिर्फ पुराने मोनोग्राफ्स के सहारे बैठे नहीं रहा जा सकता. वैदिक सभ्यता और सिंधु सभ्यता के बारे नित नए-नए विचार और नित नई अवधारणाएं आ रही हैं और आती रहेंगी . चूंकि ज्ञान के अनुशासनों की सीमा रेखाएं ओवरलैप कर रही हैं और बहुअनुशासनात्मक अध्ययन समय की आवश्यकता है तो ऐसे तथ्यात्मक पर्चे साइंटिफिक जर्नल्स में छप रहे हैं. 

तथ्य और सत्य किसके पक्ष में जाएगा और उसका उपयोग कौन करेगा यह सोचना राजनीतिज्ञों का काम है . जी.एम. ट्रैवेलियन के शब्दों का इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं कि : Disinterested intellectual curiosity is the life blood of civilization. एक स्कॉलर का काम है तथ्य उजागर करना और तथ्य अपने लिए खुद बोलते हैं . रामविलास जी को सभ्यता-समीक्षक यूं ही नहीं कहा जाता है . और वे अपना काम किसी को ठेस पहुंचाने के लिए या किसीको फायदा पहुंचाने के लिए नहींअपने इंटेलेक्चुअल परस्यूट के तहत कर रहे थे.


1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

शीर्षक से लगा था महज़ व्यंग्य होगा लेकिन ये तो काफ़ी गहरी बात है । वैसे हिन्दी अध्यापकों के साहित्यकार होने में फिर भी बचाव है मैंने तो बहुत से अफ़सर कवि देखे हैं जो जबरन अपनी कविताओं को थोपते हैं स्टाफ़ पर और दौरे भी बना लेते हैं कवि सम्मेलन की सुविधा देख भाल कर । जब तक अफ़सरों के काव्य सृजन पर रोक नहीं लगती कुछ नहीं हो सकता ।