Friday, November 1, 2013

एक यात्रा में बिताओ रातें तब तुम जानोगे मेरी कविता को - मात्सुओ बाशो के तीस और हाइकू


पिछले लिंक देखने के बाद पढेंगे तो ज़्यादा आनंद आएगा -

जागो! जागो! दोस्त बना जाए ओ सोती हुई तितली


६१.

बीतता हुआ साल
कूटे जाते चावल की प्रतिध्वनियाँ
एक उजाड़ नींद

६२.

(किकाकू की जुगनू कविता के जवाब में)

वह जो नाश्ता करता है
सुबह की शान का:
वह हूँ मैं

६३.

शुरुआती चन्द्रमा –
सुबह की गरिमा की एक कोंपल
फूलती हुई रात में

६४.
(बूढ़े दू फ़ू के बारे में सोचते हुए)

उसकी दाढ़ी से गुज़रती हवा
शोक मनाती देर शरद का:
कौन है वह?

६५.

बरसातों की दुनिया में
जीवन है सो-गी की
अस्थाई शरण जैसा

सर्दियां १६८२-८३

६६.

इतने भारी हो रहे मेरे चादर-तकिये
शायद देखूँगा बर्फ़ को
वू के आसमान से

वसंत १६८३

६७.

नए साल का पहला दिन –
गहरे ख़यालों में, अकेली
शरद की शाम

६८.

झाड़ियों में फुदकने वाली चिड़िया
उसकी आत्मा है क्या? सोया हुआ
शानदार एक विलो का पेड़

६९.

गाओ कोयल:
तुम हो छठे महीने के
आलूबुखारों की बौर

७०.

(“वह हैट पहना, घोड़े की सवारी कर रहा भिक्षु कहाँ से आ रहा है, किस चीज़ के पीछे है वह?” “यह” चित्रकार ने जवाब दिया  “यात्रारत तुम्हारा चित्र है.” “अच्छा ,अगर यूं है, तो तीन संसारों में यात्रा कर रहे अनाड़ी मुसाफिर, ध्यान देना, कहीं गिर न पड़ो उस घोड़े से.”)

चहलकदमी कर रहा है एक घोड़ा  
मैं ख़ुद को देखता हूँ एक पेंटिंग में
गर्मियों में घोड़े की टापें

सर्दियां १६८३-८४

७१.

(एक नई बाशो-झोपड़ी बनाई गयी है मेरे वास्ते)

ओलों की आवाज़ सुनता हुआ-
मैं ख़ुद, पहले जैसा,
बलूत का एक पुराना पेड़

वसंत १८६८४-८७

७२.

मंद होती जाती है घंटी
बजती हुई कोंपलों की महक :
शाम की शुरुआत

७३.

सनकी –
बगैर खुशबू वाली घास पर
डेरा जमाती है एक तितली

गर्मियां १६८४-८७

७४.

जैसे ही निकालता हूँ
बजने लगता है वह मेरे दांतों में –
सोते का पानी

शरद १६८४-८७

७५.

साफ़-शफ्फ़ाफ़ उसकी आवाज़
गूंजती आती ध्रुवतारों से –
भरती हुई चीज़ों को

७६.

संसार में किसी से चावल प्राप्त करना
अनाज-कटाई का समय होता है क्या?
मेरी फूंस-ढंकी झोपड़ी

७७.

(यह रचना यात्रा डायरी के खांचे में नहीं अटाती. पहाड़ी पुलों और देसी दुकानों के दृश्यों के बीच ह्रदय की गति का दस्तावेज़ है यह. नाकागावा जोकूशि ने डायरी के लपेटे कागजों पर रंग लगा दिए हैं – शब्दों में व्यक्त कर सकने की मेरी अक्षमता की भरपाई में. अगर बाकी लोगों को सिर्फ़ उसके चित्र ही नज़र आयें, तो मुझे यक़ीनन शर्म आएगी)

एक यात्रा में बिताओ रातें
तब तुम जानोगे मेरी कविता को –
शरद की हवा.

वसंत १६८४-९४

७८.

गिरती कोंपलें –
चिड़ियाँ भी हक्काबक्का हैं:
कोतो की धूल

(नोट – जापान में कहावत है कि संगीत धूल को गतिमान बना देने की ताकत रखता है. इस हाइकू में एक शास्त्रीय वाद्ययंत्र कोतो पर बनाई गयी एक पेंटिंग का संदर्भ है)

७९.

आड़ू के पेड़ों के दरम्यान
पगलाई खिलतीं:
चेरी की पहली कलियाँ

८०.

वसंत की एक रात:
और चेरियों पर भोर के साथ
ख़त्म हो गयी है वह.

८१.

युवा कबूतरों को
जवाब देते, चिंचियाते
अपने घोंसलों में चूहे

८२.

(लार्ड रोसेन के घर पर)

यह भी लगता है
साई-ग्यो की झोपड़ी सा
कोंपलों का एक बागीचा

८३.

बाहर आ जाओ तुम भी, चमगादड़:
ये सारे परिंदे इस तैरते संसार की
कोंपलों के दरम्यान

८४.

वसंत की बारिश –
बहती आगे-पीछे  भूसे के कोट जैसी,
नदी किनारे के विलो

८५.

आलूबुखारों की महक
मुझे वापस ले जाती है
ठण्ड के पास

८६.

तितलियाँ और चिड़ियाँ
फड़फड़ाते बगैर थमे –
कोंपलों के बादल

८७.

उसके लिए जो कहता है
“मैं ऊब गया हूँ अपने बच्चों से”
नहीं हैं कोई कोंपलें

८८.

खिली हुई कलियाँ
संसार भर में: उनके वास्ते भी
“आमीदा बुद्ध की जय”

(‘आमीदा’ अनंत सहानुभूति वाले बुद्ध माने जाते हैं और “नमू आमीदा बुत्सू” यानी “आमीदा बुद्ध की जय” एक लोकप्रिय जाप है)

८९.

यह मुंगरी –
बहुत समय पहले थी क्या कैमेलिया?
या आलूबुखारे का एक पेड़?

गर्मियां १६८४-९४

९०.

(बुकिन के घर बांस का पेड़)

बारिश नहीं हो रही, अलबत्ता
बांस-बुवाई के दिन
एक बरसाती और एक हैट

2 comments:

मुनीश ( munish ) said...

Rasvarsha . Koto ward me leta hoon jahan ki chidiyon ki baat hui . Pehle Musashi talwarbaaz ke ilaqe me raha jahan ki baat hui pichhli baar ke hiku me . Madhur. Shukria .

मुनीश ( munish ) said...

Chidiyan bhi hain hakka bakka
Koto ki dhool . Waaaah !