कबाड़न मनीषा पाण्डेय ने इस साल मई में बिज्जी से ‘इण्डिया टुडे’ के लिए एक
बातचीत की थी. प्रस्तुत है.
उस दिन सुबह बिज्जी इंटरव्यू के नाम से ऐसे घबरा रहे थे, जैसे मां की गोद से
उतरकर पहले दिन स्कूल जा रहा कोई बच्चा. साथ रहने वाले राजस्थानी लेखक मालचंद तिवाड़ी
से वे बोले, ‘‘एक काम कर, तू ही विजयदान
देथा बनकर बैठ जा और इंटरव्यू दे दे.’’ लेकिन फिर जब सफेद धोती, कुर्ता और जैकेट पहनकर तैयार हो गए तो पूछते हैं, ‘‘क्यो,
लग रहा हूं न दूल्हे जैसा?’’
बच्चों जैसी निश्छलता और हास्य बोध से भरे ये शख्स हैं राजस्थानी के प्रसिद्घ लेखक
विजयदान देथा. जोधपुर से तकरीबन 100 किमी दूर एक कस्बेनुमा छोटे-से गांव बोरूंदा में
उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी. उन्हें लोग प्यार से बिज्जी कहते हैं. चार साल
की उम्र में पिता को खो देने वाले बिज्जी ने न कभी अपना गांव छोड़ा, न अपनी भाषा. ताउम्र
राजस्थानी में लिखते रहे और लिखने के सिवा कोई और काम नहीं किया. दो जोड़ी कपड़ों में
संतोषी जीवन जिया. बहुत चाह भी नहीं थी. बोरूंदा के रास्ते में साइकिल की दुकान पर
पंचर बनाने वाले से लेकर गायों को हंकाकर ले जा रहा किसान तक बिज्जी के घर का पता जानते
हैं. जो पढ़ भी नहीं सकता, उसने उनकी कहानियां सुनी हैं. राजस्थान
के गांवों में घर-घर में लोग बिज्जी की कहानियां सुनते-सुनाते हैं. राजस्थान की लोककथाओं
को मौजूदा समाज, राजनीति और बदलाव के औजारों से लैस कर उन्होंने
कथाओं की ऐसी फुलवारी रची है कि जिसकी सुगंध दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है.
बिज्जी बड़े ही दिल से वह किस्सा सुनाते हैं, जब मैक्सिको के एक लेखक ने दूर अर्जेंटीना
के एक गांव में कुछ मछुआरों को एक गीत गाते सुना. वे जाल डालते और गीत गाते जाते थे.
आश्चर्य से भरकर लेखक ने मछुआरों से पूछा, ‘‘तुम्हें पता है यह
गीत किसका है? क्या तुम पाब्लो नेरुदा को जानते हो?’’ अनपढ़ मछुआरे बोले, ‘‘कौन नेरुदा? हम तो बस इस गीत को जानते हैं.’’
बिज्जी धीरे से अपनी आंखों के कोर पोंछते हैं, ‘‘कितना महान था वह कवि कि जिसके गीत
दूर देश के मछुआरे गाते थे.’’ ऐसी ही हैं बिज्जी की कहानियां. उनकी पहचान से भी बड़ी
हो गईं. हवाओं में घुली हुईं, खेतों में समाई हुईं.
उनका तकरीबन पूरा साहित्य हिंदी में अनूदित हो चुका है. उनकी कहानियों पर दुविधा
और परिणति जैसी फिल्में बनीं. हबीब तनवीर का प्रसिद्घ नाटक चरणदास चोर उन्हीं की कहानी पर आधारित है. दुविधा कहानी पर 2005 में अमोल पालेकर ने शाहरुख खान-रानी
मुखर्जी को लेकर पहेली फिल्म बनाई थी. कहानियों
के इतने अकूत खजाने में से बिज्जी की कहानी पर ही फिल्म क्यों बनाई? यह सवाल पूछने पर अमोल
पालेकर कहते हैं, ‘‘मुझे कोई दूसरी कहानी बताइए, जिसमें इतना रहस्य, रोमांच और रोमांस हो और साथ ही वह
इतनी देशज भी हो.’’ इस फिल्म को फाइनेंस करने के अपने फैसले के बारे में शाहरुख खान
कहते हैं, ‘‘मैं कहानी के जादू में बंध गया था.’’ बिज्जी को रानी
मुखर्जी पसंद हैं. सचमुच किसी जवान दूल्हे जैसे मुस्कराते हुए वे कहते हैं,
‘‘गले लगाकर रानी ने कहा था, ‘थैंक यू सो मच.’’
बिज्जी की पूरी मौजूदगी अथाह प्रेम से भरी है. लेकिन जिस प्रेम को वे आज तक भुला
नहीं पाए, वह हैं उनकी पत्नी
सायर कंवर. वे कहते हैं, ‘‘हमेशा मुझसे लड़ती रहती थी. मैं लिखने
में लगा रहता और उसकी तो बस एक ही रट, ‘‘खाना खा लो, खाना खा लो.’’ पता नहीं यह बुढ़ापे की कमजोरी है या कुछ और. सचमुच सायर का जिक्र
करते ही बिज्जी की आंखें भर आई हैं. वे चुपके से आंखों के कोर पोंछते हैं. उनके बेटे
ने शानदार घर बनवाया है. हर ओर समृद्घि की चमक है. मोजैक की फर्श, सागौन के दरवाजे, शीशम का फर्नीचर, खूबसूरत रंग-रोगन. लेकिन बिज्जी आज भी घर के पिछवाड़े लोहे की सांकल,
लकड़ी की खिड़की और दीवार में बने आले वाले उसी मामूली-से कमरे में रहते
हैं, जिसमें अपनी पत्नी के साथ उन्होंने जिंदगी के 47 बरस गुजारे.
कहते हैं, ‘‘कैसे भूल जाऊं, उसने किन तकलीफों
में मेरा साथ दिया? धूप, गर्मी,
बारिश और ठिठुरन में पास रही. और अब वह नहीं तो मैं अकेले सुंदर घर का
सुख भोगूं? ये कैसे होगा?’’ बिज्जी तो उस
दुनिया के वासी हैं, जहां जंगल में आग लगने पर हंस पेड़ों से कहते
हैं, ‘‘हम तुम्हें छोड़कर क्यों उड़ जाएं? तुम्हारी छांह में हमने सुख पाया, फल खाया, जीवन पाया और अब जब संकट आया तो तुम्हें अकेला छोड़कर उड़ जाएं? ये न होगा.’’
एक बार बिज्जी की कहानियों से गुजरिए, फिर उनके व्यक्तित्व से. मामूली-सी फांस
भी नहीं दिखती. राजा-रानी, राजकुमार, घोड़ा,
चिडिय़ा, पेड़ उनकी कहानियों के पात्र हैं. उन्होंने
14 भागों में राजस्थानी लोककथाओं को संकलित किया है. लेकिन कहते हैं, ‘‘यह तो उस समुद्र की एक बूंद भी नहीं है.’’ चर्चित कथाकार राजेंद्र यादव बिज्जी
के बारे में कहते हैं, ‘‘उनकी कहानियां हिंदी साहित्य की अमूल्य
निधि हैं. वे आजीवन शोरगुल से दूर किसी साधक की तरह सृजन के काम में लगे रहे. बिज्जी
जैसा कोई दूसरा नहीं.’’ टैगोर के बाद बिज्जी ही भारतीय उपमहाद्वीप के एकमात्र ऐसे लेखक
हैं, जिनका नाम 2011 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित
हुआ.
86 साल के बिज्जी बूढ़े और कमजोर हो गए हैं, मुश्किल से बोल पाते हैं. पढ़ भी नहीं
सकते. किताबों को घंटों हाथ में लिए उसके अक्षरों पर उंगलियां फिराते रहते हैं. दुख
में कहते हैं, ‘‘बिना इनके क्या जीवन?’’
मालचंद तिवाड़ी इन दिनों बिज्जी के साथ रहकर 14 भागों में फैली उनकी किताब बातां री
फुलवारी का हिंदी में अनुवाद कर रहे हैं और उनकी रोजमर्रा की बातों को एक डायरी में
दर्ज भी कर रहे हैं. उनकी डायरी में लिखा है, ‘‘एक दिन अचानक
बिज्जी बोले, ‘‘मृत्यु तो जीवन का शृंगार है. ये न हो तो कैसे
काम चले? सोच, मेरे सारे पुरखे आज जिंदा
होते तो क्या होता?’’ एक दिन बीकानेर के हरीश भादानी की मृत्यु
पर तिवाड़ी की लिखी श्रद्घांजलि पढ़कर बोल उठे, ‘‘मुझ पर भी लिखकर
पढ़ा दे मुझे. मरने के बाद तो दूसरे ही पढ़ेंगे, मैं कैसे पढूंगा?’’
ऐसे हैं बिज्जी. वे न होंगे तब भी हम उन्हें पढ़ेंगे. दुनिया उन्हें पढ़ेगी. अपनी
बातों की फुलवारी में बिज्जी हमेशा रहेंगे.
(फ़ोटो - सेनीदान सिंह चारण उदरासर की फेसबुक वॉल से)
1 comment:
बेहद आत्मीय एवम प्रेरक पोस्ट .लगा जैसे देथा जी पास ही बैठे हम से बतिया रहे थे . आज दफ्तर में कोई काम नहीं करूँगा . कहीं से खोज कर देथा जी की कोई कहानी ज़रूर पढ़ूँगा . चाहे बॉस से लड़ना ही पड़ जाए
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