Saturday, November 2, 2013

उस्ताद अमीर ख़ान – शख्सियत और उनका संगीत - एक

उस्ताद अमीर ख़ान की शताब्दी के मौक़े पर 'जलसा' का तीसरा अंक उन्हें समर्पित था. इस अंक के लिए मुझे पत्रिका के संपादक श्री असद ज़ैदी द्वारा एक आलेख का अनुवाद करने का काम सौंपा था. पत्रिका को छपे हुए अब अरसा बीत चुका है. इस लेख को वहीं से साभार लगा रहा हूँ.


उस्ताद अमीर ख़ान – शख्सियत और उनका संगीत

प्रोफ़ेसर दीपक बनर्जी

उस्ताद अमीर ख़ान का जन्म २५ फ़रवरी १९१२ को हुआ था (कुछ लोग इस तारीख को १५ अगस्त १९१२ मानते हैं) और १३ फ़रवरी १९७४ को एक कार दुर्घटना में उनका निधन हुआ. जब उनका देहांत हुआ, उन्हें अपनी शक्तियों पर पूरा अधिकार हासिल था और वे ख़याल गायकी के महान उस्ताद के तौर पर पहचाने जाते थे. आज, उनका प्रभाव न सिर्फ़ ख़याल गायकी में बल्कि कई घरानों के वादकों द्वारा राग की बढ़त लेने के तरीकों में देखा जा सकता है. बेहतरीन युवा गायक राशिद ख़ान इस के स्पष्ट उदाहरण हैं; यही बात ख्यात सितारवादक स्वर्गीय निखिल बनर्जी के लिए भी कही जा सकती है. सितार के समूचे इमदादखानी घराने में, जिसके खलीफा विलायत खान थे, अमीर ख़ान का गहरा प्रभाव नज़र आता है. यहाँ तक की सरोदनवाज़ अमज़द अली खान भी इस प्रभाव से पूरी तरह अछूते नहीं हैं.

एक उस्ताद का निर्माण

अमीर ख़ान संभवतः ऐसे इकलौते महान उस्ताद थे जिन्होंने किसी एक घराने से शुरुआती प्रशिक्षण लिया हो. इस प्रशिक्षण में छात्र की आवाज़ को इस तरह तैयार किया जाता है कि वह घराने की विशिष्ट गायन शैली और विविध बंदिशों के माध्यम से रागों के ट्रीटमेंट के हिसाब से दुरुस्त बन सके. बगैर प्रशिक्षण के किसी भी बाहरी व्यक्ति के लिए उस्ताद बन पाने की बहुत कम संभावना बचती है.

इस मायने में अमीर खान पूरी तरह से बाहरी नहीं थे. उनके पिता शाहमीर खान का ताल्लुक इंदौर में बसे वादकों के खानदान से था, और वे सारंगी और वीणा बजाया करते थे. सारंगी को आमतौर पर गायन की संगत के तौर पर बजाया जाता है और अधिसंख्य सारंगीवादकों को शास्त्रीय गायन की विषद समझ होती है. सच तो यह है कि विख्यात गायक अब्दुल करीम खान और बड़े गुलाम अली खान, दोनों ही उस्ताद सारंगीवादक थे जिन्होंने शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में और अधिक नाम कमाया. शाहमीर खान ने अपने युवा बेटे को विभिन्न रागों में तमाम बंदिशें सिखलाईं; उन्होंने सुरों के विभिन्न क्रम-व्युत्क्रमों कर्र खंडमेरु (मेरेखंड) परम्परा के सुद्धांत भी अपने पुत्र को सिखाए. ग्वालियर के छज्जू खान के साथ हुए वीणा - प्रशिक्षण ने शाहमीर खान को थोड़ा बहुत ध्रुपद भी सिखा दिया था. इस तरह अपने पिता से मिली प्रारंभिक शिक्षा ने अमीर खान के संगीत की बुनियाद में ध्रुपद और ख़याल की ग्वालियर परम्परा के तत्व बिठा दिए.

अमीर खान ने सारंगी बजाना सीखा ज़रूर पर उनका मन उसमें नहीं लगा. उन्हें गाना अधिक प्रिय था. भिन्डीबाज़ार घराने के नामी उस्ताद रजब अली खान शाहमीर खान के पुराने दोस्त थे और इंदौर में शाहमीर खान के घर पर नियमित बतौर मेहमान पधारा करते थे. इस उभरते गवैये में उन्होंने गहरी दिलचस्पी दिखाई और उन्हें आवाज़ की ट्रेनिंग और कई तकनीकी मसले समझने में मदद की. इतनी ही महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने अमीर खान को ख़याल गायकी अपनाने को प्रेरित किया.

भाषा और साहित्य के एक स्कूल में हुई पढाई के दौरान अमीर खान ने हिन्दी, उर्दू, संस्कृत और शास्त्रीय फारसी सीखी. वे कविता के बड़े मुरीद थे, खास तौर पर फारसी के सूफी कवियों के. लेकिन उनका ज़्यादातर समय और ध्यान संगीत के साथ कटा करता था. विरासत में मिली बंदिशों से वे संतुष्ट नहीं थे; इसका एक नतीज़ा यह हुआ कि पन्द्रह साल की अकल्पनीय आयु में उन्होंने राग मालकौंस में गीत “लागे ला मनवा” कम्पोज किया. लेकिन ताज़ा कम्पोजिशनों को एक दुर्लभ स्रोत में बदलने वाली प्रतिभा की देवी कृपण होती है. अमीर खान हर संभव स्रोत से बंदिशें इकठ्ठा करना शुरू कर दिया. अगर ज़रूरत पड़ती थी तो वे ध्यान खींचने वाली बंदिश के बदले पैसे भी दिया करते थे. इस तरह उन्होंने ढेर सारी बंदिशें जमा कर लीं; भिन्डीबाज़ार घराने के उस्ताद अमान अली खान ने एक बड़े ज़रूरी स्रोत का काम किया.

बंदिशें सिर्फ कच्चा माल होती हैं. फिनिश्ड प्रोडक्ट के लिए ज़रूरी होती है अपनी शैली. इस निगाह से देखा जाए तो अमीर खान किराना घराने के दो खलीफाओं से बहुत प्रभावित थे. अब्दुल करीम खान की गायकी का अंदाज़ ऐसा था कि सुनने वाले को लगता था कि गीत धार्मिक थे, कि संगीत इबादत का एक तरीका था, ईश्वर की बनाई सृष्टि के प्रति आदर व्यक्त करने का एक जरिया – सूफी कविता और संगीत में यही दर्शन पगा हुआ था जिससे अमीर खान इस कदर प्रभावित थे.

किराना घराने एक दुसरे खलीफा अब्दुल वाहिद खान ने ध्यान की शक्ल में संगीत का अपना नया संस्करण विकसित किया था. वाहिद खान विलंबित में बहुत मंद झुमरा ताल में गाया करते थे, जिससे उन्हें राग के इमोशनल कंटेंट को विकसित करने के लिए अधिक गुंजाइश मिलती थी. विस्तार की इस तकनीक को अमीर खान अपनी ख़याल गायकी में पिरोना चाहते थे. एक किस्सा यूँ है कि वाहिद खान ने अमीर खान को यह कहते हुए भगा दिया था कि वे उन्हें प्रशिक्षित नहीं करेंगे; कि अमीर खान चोरी से वाहिद खान को अपने शिष्यों को सिखाता हुआ सुना करते थे और यह कि अमीर खान की विलंबित ख़याल की प्रसिद्ध कम्पोजीशंस वाहिद खान की जस की तस प्रतिलिपियाँ हैं. यह किस्सा इस बात को कभी नहीं समझाता कि लंबी विलम्बित बढ़त के साथ राग मारवा आमीर खान का ट्रीटमेंट – जो उनकी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि है – उन्हीं लक्षणों को क्यों दिखाता है जो उनके दरबारी कान्हड़ा में पाए जाते हैं. यह आम जानकारी है कि अमीर खान को वाहिद खान का दरबारी कान्हड़ा बहुत प्रिय था, लेकिन न वाहिद खान ने न किसी पुराने उस्ताद ने राग मारवा को लंबी बढ़त का ट्रीटमेंट कभी नहीं दिया था. एक दफा मैंने अमीर खान से उन पर वाहिद खान के प्रभाव की मात्रा की बाबत पूछा. उनका उत्तर था कि शुरू में, जब वे विलंबित विस्तार में अपना रास्ता खोज रहे थे, यह मात्रा अच्छी खासी थी; एक बार जब वे जान गए कि वाहिद खान के विचार को वे अपने तरीके से कैसे सूरत दे सकते थे, उनके रास्ते बदल गए. लेकिन, वे कहते हैं, ऐसा हमेशा ही होता है. किसी धंधे में कोई आपको एक शुरुआत दे देता है, आखिर में आप पहुँचते कहाँ हैं वह आपकी समस्या है.  
  

लेकिन अक्सर किस्से वास्तविकताओं से ज़्यादा ताकत रखते हैं. जब किसी बे-घराना नौसिखुवे का पर्दाफ़ाश नकलची के तौर पर किया जाता हो, तो तथ्य जैसी तुच्छ चीजों की कौन परवाह करता है?

पूरे उरूज पर उस्ताद

१९५१ में जब मैंने अमीर खान को पहली बार सुना था, वे तब तक अपनी खास शैली विकसित कर चुके थे. जब वे गाने बैठते थे उनकी उपस्थिति विराट होती थी, बल्कि तब भी जब वे प्रवेश किया करते - ६ फुट २ इंच के कद वाले, किसी भारतीय के हिसाब से वे बहुत लंबे थे, और किसी बुद्धिजीवी का चेहरा. वे पालथी मार कर सीधा बैठते थे, और गाते वक्त उनकी आँखें बंद रहतीं, उनके हाथ धीमी गरिमामयता के साथ गतिमान रहते और उनके मुंह पर न्यूनतम विकृति आती था. यह सब संयम के किसी अभ्यास जैसा नज़र आता था, शायद शान्ति के लिए प्रवृत्त होने के वास्ते कोई योगाभ्यास. पहले उन्होंने दरबारी कान्हड़ा में एक विलम्बित ख़याल गाया और उसके बाद एक द्रुत कम्पोजीशन, इस सब में कोई नब्बे मिनट लगे. तालियों के बाद श्रोताओं में से किसी एक ने ठुमरी की फरमाइश की. अमीर खान की प्रतिक्रया मुझे बिलकुल साफ़ याद है. हाथ बंधे हुए उन्होंने उन्हें ध्यान से सुनने के लिए हर किसी का धन्यवाद दिया. लेकिन “जैसा जगजाहिर है” वे बोले “मैं ठुमरी नहीं गा सकता. अलबत्ता अगर आप चाहते हैं कि मैं कुछ और गाऊँ तो मैं एक कर्नाटक राग में एक छोटा सा टुकड़ा सुनाऊंगा – हंसध्वनि. ”  और उन्होंने अमान अली खान से प्राप्त हुई एक कम्पोजीशन गई – “लागी लगन, सखी पति सजन”.

विलंबित विस्तार की उनकी बहुत मंथर गति का जोर राग के भावनात्मक कंटेंट पर था, और राग का सम्पूर्ण चित्र की सुर-दर-सुर बढ़त ने ध्यान का वातावरण पैदा कर दिया. पैटर्न के हिसाब से विस्तार ख़याल का एक सुस्पष्ट हिस्सा था लेकिन ध्रुपद के आलाप से उसकी संरचनात्मक एकरूपता को अनदेखा नहीं किया जा सकता था. जोर अंग सरगम के एक अंतरे में प्रतिविम्बित हो रहा था, स्वरों के नामों के हिसाब से तानों का दोहराव नहीं बल्कि गीत का एक स्वतंत्र हिस्सा बन कर. यहाँ तक कि जब विलम्बित तानों ने अपनी जगह बनाई तब भी ध्यान के मूड में कोई खलल नहीं पड़ा. द्रुत ख़यालों में उन्होंने राग विस्तार का एक मिश्रण पेश किया जिसमें यहाँ-वहाँ तानें छितरी हुई थीं. उनकी तानों की एक खास बात थी दो अष्टपदों में एक के बाद एक आने वाले दो नोट्स में आसान आवाजाही. तानों के सजावटी टुकड़े बहुत संयम के साथ हाईलाईट किए गए थे ताकि वे राग की तस्वीर को बिगाड़ न पाएं.

अपनी पहचान बनाने के लिए बे-घराना उस्ताद को लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ा, लेकिन देर से मिली पहचान ने उन्हें अपने शैली रच पाने को ज़्यादा गुंजाइश मुहैय्या कराई. ऐसे समय में जब कलाकारों को आजीविका के वास्ते सार्वजनिक जगहों पर गाना पड़ता है, अमीर खान भीड़ के लिए गाने के सांस्कृतिक भ्रंश का प्रतिरोध करने वाले एक महान उदाहरण हैं. ठुमरी गाने से उनका इनकार इसी प्रतिरोध का हिस्सा था, दूसरा यह था कि जब उन्हें फिल्मों में उनके द्वारा गाये गए छोटे टुकड़ों को सुनाने की फरमाइशों से दो-चार होना पड़ता था वे पहली पंक्ति गाने के बाद हाथ बाँध कर माफी मांगते कि वे आगे का हिस्सा भूल गए हैं. सीधे सीधे इनकार कर देना उनकी विनम्रता का हिस्सा नहीं बन सकता था. व्यक्तिगत रूप से उनका मानना था कि ऐसे गानों का हल्का मूड ख़याल को लेकर उनकी एप्रोच से मेल नहीं खाता. लेकिन उनके प्रतिरोध का सबसे बड़ा हिस्सा था जनता की पसंद के हिसाब से अपनी गायन शैली में किसी भी तरह का बदलाव करने से साफ़ इनकार.

(जारी)

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