Saturday, November 2, 2013

कोकिला को भी नमो ही चाहिए ...


कोकिला को भी मोदी ही चाहिए ...

गांधी जी ने एक बार कहा था – “पागलपन से भरा विनाश चाहे सर्वसत्तावाद के नाम पर किया जाए या स्वतंत्रता और जनतंत्र जैसे पवित्र शब्दों के नाम पर,  मृतकों, अनाथों और बेघरों को क्या फर्क पड़ता है?”

स्टीवन प्रेस्फील्ड की छोटी सी किताब ‘वॉर ऑफ़ आर्ट’ से कुछेक उद्धरण –

कट्टरपंथी (बल्कि चारों तरफ से घिरा एक व्यक्ति जिसे कट्टरपंथ को अपनाना पड़ा) स्वतंत्रता को बर्दाश्त नहीं कर सकता. उसे भविष्य में जाने का अपना रास्ता नहीं मिल पाता, सो वह भूतकाल में लौटता है. अपनी कल्पना में वह अपनी प्रजाति की शान-ओ-शौकत के युग में लौटता है और उस युग को और ख़ुद को उनकी ज़्यादा परिष्कृत ज्यादा पवित्र रोशनी में पुनर्निर्मित करता है. वह ‘फंडामेंटल’ चीज़ों की तरफ मुड़ता है.

कट्टरपंथ और कला “म्यूचुअली एक्सक्लूसिव” होते हैं. कट्टरपंथी कला जैसी कोई चीज़ नहीं होती. इसका यह मतलब नहीं कि कट्टरपंथी रचनाशील नहीं होता. बल्कि यू होता है कि उसकी रचनात्मकता उल्टी दिशा में मुड़ी होती है. वह विनाश रचता है. यहाँ तक कि उसकी बनाई संरचनाएं, उसके स्कूल, और संगठनों के नेटवर्क – सारे के सारे उसके दुश्मनों और ख़ुद उसके विध्वंस को समर्पित होते हैं.

कट्टरपंथ का विरोध दुष्ट आदमी की पुकार है, जो उसे उसके ‘गुणों’ से बाहर निकालने को सिड्यूस करती है. कट्टरपंथी पूरी तरह शैतान के चपेटे में आ चुका होता है जिसे वह उतना ही प्यार करता है जितना मृत्यु को. यह कोई संयोग है कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के आत्मघाती बॉम्बर अपने प्रशिक्षण के दौरान स्ट्रिप क्लबों में जाया करते थे या कि उन्होंने अपने काम के बदले में जन्नत में मिलने वाली कुंवारी वधुओं का तसव्वुर किया था? कट्टरपंथी स्त्रियों से नफ़रत करता है और उनसे डरता है क्योंकि वह उन्हें शैतान के वाहन के रूप में देखता है, जैसे सैमसन की सारी ताकत डिलाइला के मोहपाश के कारण ख़त्म हो गयी थी.

पाप की पुकार का सामना करने के लिए कट्टरपंथी या तो अपने पसंदीदा काम में जुट जाता है या पवित्र ग्रंथों का अध्ययन शुरू कर देता है. वह ख़ुद को उसमें खो देता है जिस तरह कलाकार रचना प्रक्रिया में खो जाता है. फर्क इतना ही है कि जहां एक बेहतर संसार रच सकने की नीयत से सामने देखता है, वहीं दूसरे की निगाहें पीछे देख रही होती हैं, उस ‘पवित्र’ संसार को खोजती हुईं जहां से उसका और हमारा पतन हुआ था.

मानवतावादी इस बात पर यकीन करता है कि मानवता को, व्यक्तियों के समुच्चय के रूप में, यह ज़िम्मा सौंपा गया है कि वह ईश्वर के साथ मिलकर संसार की रचना करे. इसी लिए उसके लिए मानव जीवन इतना महत्वपूर्ण होता है. उसके विचार में, जीवन लगातार विकसित होता है; कम से कम संभावना के रूप में  हर व्यक्ति के पास नैतिक मूल्य होते हैं ताकि इस उद्देश्य की तरफ बढ़ा जा सके. कट्टरपंथी इस बात की कल्पना तक नहीं कर सकता. उसके समाज में विरोध न सिर्फ़ एक अपराध होता है, बल्कि धर्म-त्याग भी – ऐसा करना ब्लासफेमी होता है, स्वयं ईश्वर के ख़िलाफ़ खड़े होना.

कट्टरपंथी जब जीतता है, संसार अन्धयुग में प्रविष्ट होता है. तो भी जो इस विचारधारा की तरफ आकृष्ट हो जाता है मैं उसकी निंदा नहीं कर सकता. मैं अपनी अंदरूनी यात्रा की बाबत सोचता हूँ - शिक्षा, समृद्धि, पारिवारिक सहयोग, स्वास्थ्य और एक देश में जन्म लेने का सौभाग्य के बारे में  सोचता हूँ. तब भी मैंने एक स्वायत्त व्यक्ति की तरह जीना सीख लिया है ...   


ऐसा हो सकता है कि मानव प्रजाति अभी स्वतंत्रता के लिए तैयार नहीं. स्वतंत्रता की हवा का दबाव शायद हमारी सांस लेने के वास्ते बहुत कम होता है ... विडम्बना यह नज़र आती है, जैसा कि सदियों पहले सुकरात ने साबित कर दिखाया था, एक सच्चा स्वतंत्र व्यक्ति अपने आत्म-अधिपत्य की सीमा तक ही स्वतंत्र होता है. जबकि अभिशप्त हैं वे, जो अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख सकते कि उन्हें काबू करने के लिए समय समय पर स्वामी मिलते रहेंगे.

6 comments:

hillwani said...

ये भयानकता भी वहींकहीं थी, सार्वजनिक तो हुआ. लताएं, शाखाएं, टहनियां,पत्ते पूरा पेड़, न जाने कैसे कैसे झोंके खा रहा है, अशोक जी.
आशीष नंदी ने अपने एक लेख में बताया था कि कैसे गांधी का साबरमती आश्रम 2002 में निस्पृह और उदासीन बना रहा. मानो वैसा ही सन्नाटा हो जैसा वहां दिखता है...
करुणा और प्रेम जगाने वाली आवाज़ें भी इतनी ही खाली और ख़तरनाक थीं अंततः.
मन को अभी और टूटना है.."टूट मेरे मन टूट"
अपने दीपक हम आप बने...बुद्ध का अप्प दीपो भव.दिवाली पर यही कामना है.
-शिवप्रसाद जोशी

Tamasha-E-Zindagi said...

आपकी यह पोस्ट आज के (०२ नवम्बर, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - ये यादें......दिवाली या दिवाला ? पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई

मुनीश ( munish ) said...

कई साल हुए रामू ने एक फ़िल्म बनाई थी सरकार जो मुझे तो खास नहीं जमी लेकिन मुझे याद है अब तलक कि वो पर्दे पर मारियो पूजो को श्रद्धासुमन अर्पित करने के बाद एक इबारत से शुरू होती थी - वेन देयर शैल बी ए वैकम ऑन द टॉप ए पार विल राइज़ ।

मुनीश ( munish ) said...

लता जी की कोकिल वाणी में भजन सुन कर पुराने दिनों की याद हो आई जब जहाज़ इंसान उड़ाते हुए बम गिराया करते थे और इस गीत में दूसरी जंगे
अज़ीम के कई बेहतरीन शॉट्स डाले गए थे । अब तो विडियो गेम हो गया सब इस ड्रोनधर्मा समय में ।

मुनीश ( munish ) said...

जहाज़ के बाद कौमे की कल्पना करके ही पढ़ें :)

सुशील कुमार जोशी said...

धर्म संकट तो हमारे लिये है क्या करें उधर पोस्टर दिखाई देता है इधर अपने आस पास के भगवान नजर आने लगते है !