तेजपाल के ‘तहलके’ के बाद
-शालिनी जोशी
“ ‘मेरे हत्यारों की कहानी’
एक ऐसा उपन्यास है जिसमें 21वीं सदी के भारत की सच्चाइयों की एक
गहन और मर्मभेदी पड़ताल है जो भारतीय समाज में भाषा,वर्ग और संपत्ति के विभाजन को
बेनकाब करता है और सत्ता और ताकत के गलियारों की क्रूर सच्चाइयों और अंधेरे को
उजागर करता है.” तहलका के संपादक तरुण तेजपाल के लिखे उपन्यास का इंटरनेट पर कुछ इन्हीं
शब्दों में परिचय उपलब्ध है. इसी उपन्यास का एक किरदार कहता भी है कि,“सत्ता ही इस दुनिया
का इंजन है और इस इंजन का ईंधन हैं सेक्स और पैसा”. इससे बड़ी विडंबना
और क्या हो सकती है कि आज तरुण तेजपाल अपने ही लिखे उपन्यास का एक किरदार प्रतीत
हो रहे हैं और उन पर लगे यौन दुराचार के आरोप ने उनके मीडिया साम्राज्य को बेनकाब
कर दिया है ठीक उसी तरह से जैसे उनके उपन्यास के बारे में दावा किया जाता है.
खबरों और खुलासों से
भारतीय राजनीति और समाज में तहलका मचाने वाले तरुण तेजपाल पर जब यौन उत्पीड़न के
आरोप लगे तो जेहन में पहला सवाल यही उठा कि क्या ये भी...ऐसा नहीं होना चाहिये. लेकिन
ऐसा हो चुका था. खुद तरूण ‘भूल’ स्वीकार करते हुए अपने पाप के प्रायश्चित की घोषणा कर चुके थे. फिर
क्या था मामला यौन उत्पीड़न का न रहकर मीडिया हंट और आरोप-प्रत्यारोप के बीच पूरी
तरह से सियासी और सनसनीखेज बना दिया गया. पल भर में तेजपाल उच्च मूल्यों और
मानदंडों की मचान से नीचे गिर गये और बरसों की बनाई और कमाई हुई अपनी छवि से हाथ
धो बैठे और तहलका की प्रतिष्ठा ढह गई.
तरुण तेजपाल ने जो
किया उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए वो कम है. तेजपाल की छवि एक सम्मानित और
लोकप्रिय पत्रकार-संपादक की रही है. न सिर्फ मीडिया की बिरादरी में बल्कि आम
पाठकों के बीच भी उनका सिक्का रहा है. कहा जा सकता है कि अगर ये घटना सामने नहीं आई
होती तो उन्हें समकालीन पत्रकारिता के इतिहास में एक संस्था की तरह याद किया जाता.
लेकिन आज तेजपाल खुद कठघरे में हैं उसी कठघरे में जिसमें वो हमेशा दूसरों को खड़े
करते आए थे. हालांकि इस मामले की जांच और फैसला आना अभी बाकी है लेकिन पब्लिक
स्फेयर में उनके खिलाफ फैसला सुना दिया गया है. वो सबसे कुख्यात दुराचारी घोषित
किये जा चुके हैं और उनकी कथित चरित्रहीनता और भ्रष्टाचार के नित नये किस्से सामने
आ रहे हैं. लेकिन क्या ये मामला सिर्फ एक यौन दुराचारी और पीड़िता के बीच का है. नहीं,
इसके कुछ और निहितार्थ भी हैं जिनपर चर्चा जरूरी है.
सबसे पहले इस घटना ने
पत्रकारीय नैतिकता पर छाए संकट को और गहरा कर दिया है. जहां मुख्यधारा की पत्रकारिता
पर बेलगाम व्यावसायिकता हावी है और जान हथेली पर रखकर की जानेवाली जनपक्षीय, खोजी,सरोकारपरक
पत्रकारिता इतिहास बनती जा रही है वहां तरुण तेजपाल के इस कृत्य से वैकल्पिक और
खोजी पत्रकारिता को गहरा झटका लगा है. कल तक तेजपाल इन मूल्यों के प्रतिनिधि माने
जाते थे. आखिर उन्होंने राजनीति-समाज और खेल के कई धुरंधरों का पर्दाफाश किया था.
इस घटना से ही ये
सवाल भी उठता है कि क्या स्त्री आजादी और कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की
बड़ी-बड़ी घोषणाओं और दावों के बावजूद कार्यस्थलों में महिलाएं सुरक्षित हैं.
ध्यान रहे कि इसी बीच तीन और ऐसे मामले आए हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा
सकता. गोवा में हुए सरकारी फिल्म समारोह में एक अधिकारी के यौन उत्पीड़न का शिकार
हुई जेएनयू की छात्रा ने अपनी शिकायत दर्ज कराई.कानून की एक इंटर्न ने न्यायाधीश
पर यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाया और इसी तरह से उत्तराखंड में भी अपर गृहसचिव
के खिलाफ एक युवती ने नौकरी का झांसा देकर यौन उत्पीड़न करने का मामला दर्ज कराया.
ये वो मामले हैं जहां पीड़िताओं ने जीवन, परिवार और कैरियर को दांव पर लगाकर मामला
सार्वजनिक करने का जोखिम उठाया लेकिन उनका क्या जहां यौन उत्पीड़न से जुड़े शर्म
और अपमान, कैरियर की चिंता और जलालत के डर से महिलाएं मुंह ही नहीं खोल पातीं. जरा
सोचिये कि यदि इस महिला पत्रकार ने आगे बढ़कर साहस नहीं दिखाया होता तो क्या
तेजपाल का उसी अदम्य और निर्भीक अंदाज में थिंक फेस्ट और लिट फेस्ट में वाहवाही
लूटना जारी नहीं रहता.
कार्यस्थल में यौन
उत्पीड़न पूरी दुनिया में एक गंभीर सामाजिक समस्या है लेकिन दुर्भाग्य ये है कि व्यवहार
में इसे अभी तक समस्या और अपराध के तौर पर स्वीकार ही नहीं किया गया है. अगर ऐसा
नहीं था तो खुद तहलका में विशाखा निर्देशों के तहत समिति क्यों नहीं बनाई जाती. ऐसा
इसलिये है कि यौन छेड़छाड़ एक सहज पुरूष व्यवहार माना जाता है और इस माहौल में
अपने सम्मान और शील की रक्षा करना खुद महिलाओं की ही जिम्मेदारी है. नौकरीपेशा महिलाएं
भी सामान्यत: अश्लील बातों और अश्लील प्रस्तावों या अश्लील हावभाव को नजरअंदाज
करने में ही अपनी भलाई समझती हैं. अगर कुछ सर्वेक्षणों पर नजर डालें तो 2011 में मानविकी
और समाज विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय जनरल में छपे एक लेख के मुताबिक जापान में किये
गये एक सैंपल सर्वे में 40 प्रतिशत महिलाओं ने ये माना कि उन्हें कार्यस्थल में यौन
उत्पीड़न का सामना करना पड़ा और 40 महिलाओं ने इस वजह से नौकरी भी छोड़ दी. इसी
तरह से इंग्लैंड में 92 प्रतिशत महिलाओं ने ये कहा कि कार्यस्थलों में यौन
उत्पीड़न एक गंभीर समस्या है और 12 प्रतिशत महिलाओं ने ये स्वीकार किया कि वो
कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न का शिकार हुई हैं. अमरीका में एक रिपोर्ट के अनुसार 52
प्रतिशत महिलाओं ने माना कि अपने कैरियर में किसी न किसी अवसर पर उन्हें यौन
प्रताड़ना का सामना करना पड़ा है.ये अकारण नहीं है कि हर क्षेत्र में उच्च और
निर्णायक पदों से महिलाएं लगभग गायब हैं.
दोबारा से तेजपाल
मामले पर लौटें तो यहां एक सवाल ये भी है कि क्या हर यौन उत्पीड़क के खिलाफ इतनी
ही सख्ती और मुस्तैदी दिखाई जाएगी जितनी तेजपाल मामले में हुई. इसमें शक है
क्योंकि तेजपाल के ही समांतर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एके गांगुली का भी मामला
चल रहा है जिनके खिलाफ इंटर्न ने यौन दुराचार का मामला दर्ज कराया है. गांगुली ने
आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है. फिल्म महोत्सव में जेएनयू की छात्रा के साथ
हुए यौन दुर्व्यवहार का मामला भी रफा-दफा कर दिया गया. इस बात को लेकर आश्वस्त
नहीं हुआ जा सकता कि एक ही तरह के अपराध के लिये अलग-अलग मानदंड नहीं अपनाए जा जाएंगे.
सब पर सवाल उठाने वाले
मीडिया के लिये निस्संदेह ये आत्मनिरीक्षण की घड़ी है.एक बड़ा सवाल जो इस मामले से
टीआरपी बढ़ाने की कोशिश में दब गया है या दबा दिया गया है वो ये है कि आखिर पीड़ित
महिला पत्रकार को जो काम सौंपा गया था उसका पत्रकारिता से दूर-दूर तक क्या नाता
था. उसे रिपोर्टिंग करने और खबरें लिखने के लिये नौकरी पर रखा गया था न कि किसी सेलेब्रिटी
की मेहमाननवाजी करने और उसे कंपनी देने के लिये. शायद इस मसले पर चर्चा इसलिये भी
नहीं हो रही है क्योंकि हर बड़े कॉरपोरेट मीडिया घराने का ये सालाना शगल बन चुका
है चाहे उसे कॉनक्लेव का नाम दिया जाए या फेस्ट का लीडरशिप डिबेट का. पत्रकारीय
सरोकार के नाम पर किये जाने वाले इन पांचसितारा आयोजनों में विचार-विमर्श के इतर
सत्ता, पैसे और सेक्स का कैसा प्रदर्शन और इस्तेमाल होता है- ये इन आयोजनों में
जानेवाले और भागीदारी करनेवाले बखूबी जानते हैं और ये किसी से छिपा भी नहीं है. विडंबना
यही है कि यहां एक बार फिर तेजपाल की किताब का वो अंश याद आता है कि सत्ता का इंजन
धन और सेक्स के ईंधन से चलता है.
ये अलग बात है कि
सबसे सवाल पूछने वाले मीडिया की असलियत को बयान करने के लिये तहलका एक बहाना हो
गया वरना तहलका अकेला नहीं है. मीडिया उद्योग से जुड़ा कोई भी अनुभवी आदमी इस बात
को स्वीकार करने से पीछे नहीं हट सकता कि जो तरुण तेजपाल ने किया वो अगर आम नहीं
तो मीडिया में नई बात भी नहीं है. लेकिन अगर तहलका में विशाखा दिशा निर्देशों के
तहत आंतरिक समिति नहीं बनाई गई थी तो अधिकांश अन्य मीडिया संस्थानों में भी इसका
संज्ञान नहीं लिया गया था. वरिष्ठ पत्रकार राहुल सिंह ने भी इसका खुलासा किया जब
इस घटना के बाद चर्चा में बुलाए जाने पर उन्होंने एक टेलीविजन चैनल के संपादक से
पूछा कि क्या उनके यहां ऐसे मामलों से निबटने के लिये कोई समिति है तो जवाब न में
मिला. ये स्थिति तब है जब मीडिया एक ऐसा क्षेत्र है जहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व
बड़ी तेजी से बढ़ रहा है. क्या उम्मीद की जाए कि मीडिया संस्थान अब भी इसका
संज्ञान लेते हुए विशाखा गाइडलाइन के तहत अपने यहां आंतरिक समिति बनाने के लिये
विवश होंगे.
इस मामले में जिस तरह
तेजपाल ने अपने वकीलों की सलाह पर बाद में बयान दिये कि उनके खिलाफ साजिश की गई है
(जो कि आरोपी की तरफ से पीड़ित पर लगाया जाने वाला सबसे आसान आरोप
होता है) वो महिलाओं और महिला संगठनो के लिये आशंका की घंटी भी है. उन्हें
इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि दहेज कानून की तरह ही कार्यस्थलों में यौन
उत्पीड़न रोकने के लिये बना ये कानून भी कहीं ब्लैकमेलिंग का जरिया न बन जाए. स्त्री
की सुरक्षा के लिये बनाया गया ये कानून कहीं कार्यस्थलों में स्त्री की अस्मिता की
रक्षा करने की बजाय उसकी स्वतंत्रता के लिये खतरा न बन जाए जिसकी ओर कुछ संगठन लगातार
इशारे कर रहे हैं कि अब महिला स्टाफ को रखने में लोग हिचकेंगे. अगर ऐसा होता है तो
कार्यस्थल बदला लेने के अखाड़े बन जाएंगे.
इतना तो तय है कि हमारा
जो भी तंत्र है औऱ उसके जो भी पुर्जे हैं वो अब भी पुरुषवादी मानसिकता से ही
संचालित हैं और उनका वर्ग चरित्र भी है जो महिलाओं के साथ सहयोग और भागीदारी का
पाठ नहीं समझना चाहते हैं और जिनका नजरिया अभी भी हुकूमती ही है और जिनके लिये मर्यादा
लांघना एक भूल भर है.
1 comment:
सटीक बात है और इस तरह के पुर्जों की तीमारदारी भी जरूरी है बहुत हो गया अब !
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