Sunday, December 15, 2013

काँधे पर धरता हूँ आने वाले कल का सूरज


सीरियाई कवि अदूनिस की रचनाओं से कबाड़खाने के पाठक अपरिचित नहीं हैं. उनके संग्रह ‘दिन और रात के सफ़े’ की महत्वपूर्ण भूमिका और इसी संग्रह की कुछ शुरुआती कविताएँ पेश करता हूँ. मूल अरबी से ये अनुवाद सैमुअल हाज़ो ने किये थे.

१.

मैं ऐसी भाषा में लिखता हूँ जो मुझे निर्वासित कर देती है. एक अरब कवि का अपनी भाषा के साथ रिश्ता उस माँ जैसा होता है जो अपनी देह के भीतर की पहली हरकत के साथ ही अपने पुत्र को त्याग देती है. अगर हम बाइबिल में बताई गयी हैगर और इश्माइल की कहानी को, जिसे कुरान में भी दोहराया गया है, स्वीकार कर लें तो हम पायेंगे कि अरब कवि के लिए मातृत्व, पितृत्व और ख़ुद भाषा भी निर्वासन में जन्म लेते हैं. अपनी ही मातृभूमि में निर्वासन, जैसा यह कथा बताती है. उसके लिए कहा जा सकता है – आरम्भ में निर्वासन था न कि शब्द. अपने रोज़मर्रा जीवन के नर्क के विरुद्ध संघर्ष में अरब कवि की इकलौती शरणस्थली निर्वासन का नर्क होती है.

२.

मैंने अभी अभी जो कहा है, वह हमें मिथक और भाषा की जड़ों तक वापस ले जाता है. इन जड़ों के आधार पर इस्लाम ने एक नई शुरुआत पेश की. उसने भाषा को उसके सांसारिक निर्वासन से हटा कर इलहाम के मुल्क की तरफ़ मोड़ दिया – स्वर्ग की तरफ़. भाषा की मार्फ़त इलहाम अध्यात्मिक को प्रकट करता है जबकि कार्य दैहिक को व्यवस्थित करता है. यह व्यवस्था आदमी को नए ख़लीफ़ा यानी पैगम्बर के उत्तराधिकारी के रूप में सौंपी गयी है. इलहाम को उसी समय स्थापित किया गया जब आदमी ने उसे जीवन में उतारना स्वीकार किया था. तब जा कर वह एक नियम और एक व्यवस्था बना.

लेकिन तब भी हरेक व्यवस्था में एक दूसरे तरह का निर्वासन मौजूद रहता है क्योंकि हर व्यवस्था ख़ुद ही एक सीमा और पहले से तयशुदा रास्ता होती है. हरेक व्यवस्था मनुष्य को उसके अस्तित्व से जबरन अलग करती है और उसे उसकी शक्ल-सूरत के आधार पर पहचानती है.

इस तरह अरब जीवन अपनी शुरुआत से ही भाषा और धार्मिक व्यवस्था से निर्वासन रहा है. बीते हुए समय और वर्तमान में अरब कवि ने निर्वासन के कई और रूपों को जाना है – सेंसरशिप, सरकारी प्रतिबन्ध, देशनिकाला, कारावास और हत्या.

‘दूसरा’ इस परिदृश्य में ‘मैं’ की मुक्ति दिखाई देता है. ‘दूसरा’ न तो भूतकाल है न ही भविष्य, न ही वह ऐसा आईना है जो ‘मैं’ को उसके बचपन तक वापस लौटा ले जा सके. अलबत्ता वह कवि को अज्ञात की तरफ, जहां हर चीज़ अजनबी होती है, गतिमान बनाता है.

३.

इस ज़ाविये से, कविता निश्चित ही “खोया हुआ स्वर्ग” नहीं होती न ही वह कोई “स्वर्णकाल” है. इसके उलट वह एक ऐसा सवाल है जो एक दूसरे सवाल से रू-ब-रू कराती है. एक प्रश्न की तरह पहचाना गया “दूसरा” एक बिंदु पर “मैं” के साथ मिलता है जो दरअसल जवाब के निर्वासन में रह रहा होता है. इसीलिये “दूसरा” जवाब का एक संघटक हिस्सा होता है – ज्ञान और इलहाम का तत्व. यह ऐसा ही है जैसे कि “मैं” के भीतर के सवाल की उत्तेजना “दूसरा” होती है.

अरब कविता के रचनात्मक अनुभव में “दूसरा” हमेशा मौजूद रहा है. क्योंकि जिस भाषा का इस्तेमाल अरब कवि करता है उसके भीतर नई और पुरानी कई भाषाएँ होती हैं. कविता में कहा जाए तो अरबी एकवचन के आकार में बहुवचन है.

लेकिन चाहे अभ्यास में हो चाहे ऊपर बताई गयी व्यवस्था से अपने संपर्क में, अरबी भाषा के पास हमें बताने को और कुछ बचा नहीं है. कहा जाए तो वह खामोशी की ज़बान बन गयी है, बल्कि वह कोशिश करती है कि अभिव्यक्ति को खामोशी में तब्दील कर दे. उसका कार्यक्षेत्र निश्शब्दता में है न कि बोली-भाषा में. "दूसरे” ने, यहाँ अभिप्राय पश्चिमी छवि से है, अरब कवि के साथ अपने सम्बन्ध को एक ख़ामी या एक ज़ंजीर में बदल दिया है, कम से कम व्यवस्था के सम्बन्ध में ऐसा कहा जा सकता है.वह अपनी सीमाओं में अपनी स्वतंत्रता से संतुष्ट रह सकता है. शायद वह अरब इतिहास में कुछ न देख पा रहा हो, लेकिन सवाल का जवाब उसे पहले से पता है क्योंकि अपनी कल्पना, ज़रुरत और स्वार्थ के हिसाब से सवाल का आविष्कार भी उसी ने किया था.

इस बात से हम समझा सकते हैं कि क्यों एक अरब कवि दोहरी अनुपस्थिति का मूर्त रूप होता है – एक अपने आप से और दूसरी “दूसरे” से अनुपस्थिति. वह इन दो निर्वासनों में दरम्यान रहता है : आंतरिक और बाहरी. सार्त्र के शब्दों की व्याख्या करें तो कह सकते हैं, वह दो नर्कों के बीच कहीं रहता है – “मैं” और “दूसरा”.

“मैं” मैं नहीं होता, न ही “दूसरा”.

अनुपथिति और निर्वासन ही इकलौती उपस्थिति का निर्माण करते हैं.  

४.

कवि होने का अर्थ हुआ कि मैं पहले ही लिख चुका हूँ लेकिन यह कि दरअसल मैंने कुछ लिखा ही नहीं. कविता बगैर शुरुआत और अंत का एक कार्य है. वह एक आरम्भ का वायदा है, एक सतत आरंभ.

होने का अर्थ हुआ कुछ मायने रखना. मायने केवल शब्दों के माध्यम से पकड़ में आते हैं. मैं बोलता हूँ – इसीलिये मैं हूँ. इस तरह और इसके बाद ही मेरे होने का कोई अर्थ बनता है. इस दूरी और उम्मीद के माध्यम से ही अरब कवि बोलने का प्रयास करता है यानी लिखना और शुरू करना.

लेकिन जिन दो निर्वासनों का मैंने ज़िक्र किया है, क्या उनके दरम्यान किसी तरह का आरम्भ वाक़ई संभव है?

और, हर चीज़ से पहले, क्या होता है ऐसा आरम्भ?

मैं यह सवाल पूछ रहा हूँ ताकि मैं घुमा फिराकर इसका यह कहकर जवाब दे सकूं कि अरबी भाषा शुरुआत से ही एक ऐसे आरम्भ को स्थापित करने का सतत प्रयास थी और है जिसे स्थापित किया ही नहीं जा सकता क्योंकि उसकी स्थापना असंभव लगती है.

और चूंकि अपनी परिभाषा के हिसाब से कविता उपस्थिति के पक्ष में रहती है, इसलिए अरब कवि एक संभव बुनियाद के भ्रम  के भीतर न तो जीवित रह सकता है न ही लिख सकता है. इस तरह एक अरब कवि अपने जीवन और अपनी भाषा में स्वतंत्रता और लोकतंत्र को भ्रम की तरह बताता है.

मैं ‘भ्रम’ कह रहा हूँ क्योंकि स्वयं जीवन स्वतंत्रता और लोकतंत्र से पहले आता है. मैं जीवन की बाबत कैसे लिख सकता हूँ जब मुझे मैं होने से ही रोका जाता है, जब मैं जी ही नहीं रहा, न अपने भीतर न अपने लिए, जब मैं “दूसरे” के लिए भी नहीं जी रहा?

अपने पश्चिमी काउंटरपार्ट के बरखिलाफ़ अरब कवि की स्वतंत्रता के साथ जुड़ी समस्या न तो अपने व्यक्तित्व का भान होने में है न ही लोकतंत्र और मानवाधिकारों की आंशिक या सम्पूर्ण अनुपस्थिति में. दरअसल यह समस्या जहां है वह बहुत गहरी, सुदूर और जटिल है क्योंकि एक विडम्बना के तौर पर वह खासी साधारण है. यह समस्या आदिम और मूलभूत चीज़ों में निहित है. वह मनुष्य के शुरुआती निर्वासन में, संघटक तत्वों और उनसे निर्मित वस्तु में और आदेशों और प्रतिबंधों के “नहीं” में निवास करती है. यह “नहीं” न केवल संस्कृतियों की रचना करता है, मनुष्य और स्वयं जीवन भी इसी से निर्मित होते हैं.

५.

संस्थागत बना दी गयी भाषा “मैं” और “दूसरे” के ऊपर बाढ़ की तरह बहती है और स्वाधीनता और लोकतंत्र की बुनियादों को झकझोर कर रख देती है. मृत्यु और कत्ले-आम की इस भाषा में “मैं” और “दूसरा” अपनी मृत्यु खोजा करते हैं.

मृत्यु सिर्फ़ मृत्यु को देखती है. पहले से ही मरा हुआ “मैं” “दूसरे” को स्वीकार नहीं कर सकता – वह उसे अपनी ही छवि में देखता है जो कि मृत्यु की छवि है. फ़िलहाल हमारी कविता इसी तरह की मृत्यु के भीतर घूमती नज़र आती है.

अदूनिस
पेरिस, ९ मार्च १९९२


रास्ता

मैंने चाहा
बर्फ़
और आग के जीवन को साझा करना.
लेकिन न बर्फ़ ने
न आग ने
मुझे भीतर आने दिया.
सो
मैं शांत बना रहा
फूलों की तरह प्रतीक्षारत
पत्थरों की तरह ठहरा हुआ.
प्रेम में
अपने आप को खोया मैंने.
मैं टूट कर दूर गया
और देखा किया
जब तक कि डोलने नहीं लगा किसी लहर जैसा
सपने में देखे गए जीवन
और बदलते हुए सपने के दरम्यान
जिसे मैंने जिया.
  
दिन

थक चुकी मेरी आँखें, थक चुकी दिनों से,
दिनों के बावजूद थक चुकीं.
तो भी मुझे छेदते जाना होगा
दिनों को दीवार दर दीवार
ताकि एक और दिन पा सकूं.
क्या है अभी? क्या बचा हुआ है एक और दिन?

यायावर

एक यायावर, मैं धूल से
एक प्रार्थना बनाता हूँ.
निर्वासित,
मैं अपनी आत्मा को गाता हूँ  
जब तक कि दुनिया जलने न लगे
मेरे गान से
किसी चमत्कार की मानिंद.
इस तरह हूँ मैं
उगा हुआ.
इस तरह होती है मेरी मुक्ति.
  
सिसीफ़स का निशान

बाक़ियों को जानता हूँ मैं. उनके
ख़िलाफ़ उछलता हूँ मैं
पश्चाताप की इस चट्टान को
इसके पहले कि
सामना करूं आने वाले समय का.
निरपराध वर्ष घुमते हैं
किसी गर्भ में जीवन की तरह.
मुझे पश्चिम में नज़र आती है
हरी सरहदों की रोशनी जहां
मुझे कभी नहीं मिलेगा मेरा
दूसरा निज. मैं दूर जाता हूँ लोगों से,
काँधे पर धरता हूँ आने वाले कल का सूरज
उठाये लिए जाता हूँ उसे आगे स्वर्ग की तरफ.

(यूनानी मिथकों में सिसीफ़स एफ़ेरिया का राजा था जिसे उसके छल-कपट की आदत के कारण एक विशालकाय चट्टान को एक पहाड़ी की चोटी तक लुढ़काते ले जाने की सज़ा मिली थी. चोटी पर पहुँचते ही पत्थर वापस नीचे आ जाता था सो उसे लगातार ऐसा करते जाना होता था.)

हाथों की नींद

आज प्रस्तुत करता हूँ अपनी हथेलियाँ
मृतक भूमियों और गूंगी
सड़कों को इसके पहले कि मृत्यु
सिल दे मेरी पलकों को, सी दे मुझे
सारी धरती की त्वचा में
और सो जाए मेरे हाथों में हमेशा के लिए.


भूमिगत

नगरों की उपस्थिति
हमारी आँखों की भंवों
के बीच से गुज़री.
अपने चेहरों के पीछे नकाबों से
हम चीखे खो गयों की तरह,
“हर नगर की कब्रगाह के तहखानों में
हम रहते हैं घोंघों की तरह
अस्वीकार के उनके
कवचों के भीतर,
आओ!
हमें खोजो!  
नगरो!”

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर !

मुनीश ( munish ) said...

दिल को छू लेने वाली अभिव्यक्ति ।