Wednesday, December 25, 2013

कहो कि फ़क़त जीने से अधिक होता है जीवन


आवाज़ें

-अदूनिस

(सीरिया के महाकवि)

          १.
ओ मेरे स्वप्नो, मेरे नर्तको,
भीतर आओ, आओ भीतर.
सलाम करो ‘अभी’ और ‘यहाँ’ को.

मेरी कलम को गति दो कागज पर.
कहो कि 
फ़क़त जीने से अधिक होता है
जीवन.
आओ,
ख़मीर चढ़ाओ मेरे शब्दों की डबलरोटी में.

२.
सूरज ने दिखलाया मुझे अपना रोज़नामचा.
उन काले पन्नों पर
मेरे आंसुओं की सफ़ेद स्याही ने
मेरे इतिहास के अध्याय तैयार किये हैं.

सब में आख़िरी दरवाज़ा
खुला,
और मैंने देखे दफनाये हुए अपने दिन
अपनी निष्कपटता का कफ़न.

३.
कहाँ चली गयी रोशनी?
कहाँ भाग गयी हवा उसे साथ लेकर?
क्यों भाग कर गयी वह
किसी शरणार्थी की तरह पेड़ों के बीच,
कीचड़ में लड़खड़ाती,
साफ़ करती अपने ऊपर से दिन के निशाँ,
विरक्तियों से उठती
ताकि जा कर छिप जाय
एक बार फिर से गर्भवान सूरज
की त्वचा के नीचे?

४.
आदमी कह कर क्यों बुलाते हो मुझे?
वह तो नहीं है मेरा नाम.
पहचान की क्यों फ़िक्र करते हो?
बस कहो कि मैं जीवित हूँ
फैलाव के बंद ढोल के भीतर.
अगर कुछ कहना ही है तुम्हें
तो यूं कहो.

५.
अपने पड़ोसियों के लिए अनुगूंजों के साथ
हम सब साथ मरेंगे
और जिंदा रहेंगे मौसमों की छायाओं में,
धूल में,
चरागाहों की खुली किताब में,
घास में जिन्हें हमने एक दफा कुचला था
और लगाए थे उस पर अपने क़दमों के निशान.
हम बचे रहेंगे
अपनी तरह के
स्मृतिचिन्हों की तरह
अपनों को दया के साथ याद कराने वालों के लिए,
छायाओं में,
अनुगूंजों की अनुगूंजें.

६.
मिह्यार* अन्तरिक्ष को इकठ्ठा करता है
और घुमाता है उसे अपनी तश्तरी में.
वह हर चीज़ के ऊपर ऊंचा खड़ा है.
रातें उसके रस्ते हैं,
और सितारे उसकी आग.
उसके चेहरे पर एक निगाह
और दिपदिपाने लगता है आसमान.

७.
अगर मैं हवाओं को पुकारूं,
क्या वे मुझ पर संदेह करेंगी?
अगर मैं सपना देखूं कि
धरती नहीं
बल्कि वे बांधे हुए हैं मेरी दुनिया को,
क्या वे मुझे भीतर आने देंगी
गरुड़ों की राजसत्ता में?
अगर मैंने हवाओं को दगा दिया
और उनकी चाभियाँ चुरा लीं
क्या वे तबाह कर देंगी मुझे?
या वे आयेंगी मेरे पास
भोर तक में
जब मैं सोया होऊँ
और मुझे सपने देखते रहने देंगी
लगातार, लगातार,
... लगातार ...

(*अबू अल हसन मिह्यार अल-दायामी – ग्यारहवीं सदी के फारसी कवि थे. उपमाओं और लक्षणाओं से भरपूर उनकी कविता ग़ज़ल और मर्सिये के अलावा अन्य विधाओं में भी अपनी अलग जगह रखती है. पूर्व में ज़ोरोस्त्रियन धर्म के अनुयायी मिह्यार ने अपने कवि-गुरु इब्न-ख़ालिकान के प्रभाव में शिया इस्लाम धर्म कुबूल कर लिया था. इस के बावजूद उन्हीं के एक परिचित ने पैगम्बर मोहम्मद के साथियों को बुरा-भला कहने के कारण उनकी कड़ी आलोचना की थी.
इब्न-ख़ालिकान, जिन्होंने बताया था कि मिह्यार का काव्यकर्म इतना विषद था कि वह चार दीवानों में भी नहीं समा सकता था, का विचार था कि मिह्यार के लेखन में “विचारों की महान सम्वेदनशीलता और विचारों की उल्लेखनीय गुरुता पाई जाती थी.” यह और बात है कि मिह्यार की शैली को “नकली और अमौलिक” भी कहा गया.)

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

वाह बहुत सुंदर संकलन !