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ब्लॉग जगत के पाठकों के लिए संजय व्यास कोई नया नाम नहीं है. जोधपुर में रहनेवाले
संजय बेहद सजग, विनम्र और संवेदनशील रचनाकार मनुष्य हैं. मैंने जानबूझकर “मनुष्य”
शब्द का इस्तेमाल किया है क्योंकि वे सबसे पहले उसी सूरत में आपसे रू-ब-रू होते
हैं. उनसे मैं दो-तीन साल पहले अपनी जोधपुर यात्रा के दौरान मिला था और हमारा स्नेह-सम्बन्ध लगातार प्रगाढ़तर होता गया है.
इधर उनकी
रचनाओं का संग्रह ‘टिम टिम रास्तों के अक्स’ हिन्दी युग्म से छपकर आया है. एक पाठक
के रूप में मैं उनकी सारी रचनाएं जब-तब पढ़ चुका हूँ पर सभी को एक साथ किताब की
शक्ल में इकठ्ठे पढ़ना एक नए संसार से आपका साक्षात्कार करवाता है.
संजय के
यहाँ किसी तरह की कोई हड़बड़ी या जल्दीबाजी नज़र नहीं आती. उनकी पैनी निगाह फोकस की
हुई किसी खुर्दबीन की तरह अपनी आसपास के बेहद साधारण नज़र आनेवाले संसार को उल्ट-पुलट
करती चलती है – यह उलट-पुलट इस कदर महीन और ‘सटल’ होती है कि देखने वाले को उसके घटित
तक होने तक का अहसास तक नहीं हो पाता. संजय के संसार में चीज़ें खोतीं या नष्ट नहीं
नहीं – वे हर पल नए मानी अख्तियार करती जाती हैं. यही नए अर्थ पायी चीजें जब अपने
आपको पाठक के सामने उद्घाटित करती हैं तो उसके मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ता है – “अरे,
ऐसे तो मैंने सोचा ही नहीं था!”
कहीं संजोई
गयी स्मृतियाँ हैं, कहीं वे अकारण भुला दी जाने के बावजूद पूरी तरह स्मृतियाँ नहीं
बन सकी हैं; कहीं एक थका हारा रिटायर्ड बूढ़ा है जो घाम सर पर चढ़ आने के बावजूद
पार्क में बैठा सूरज के अच्छी तरह निकल आने का इंतज़ार करता हुआ जब अपने घर को
लौटता है तो इतना निपट अकेला कि पार्क के रोज़ के उसके संगी भी उसे भयंकर तरीके से
अजनबी दिखाई देते हैं, कहीं तीन दिन से तीन चक्कियों पर बाजरा पिसवाने की इच्छा
लिए खड़ा एक ठेठ हिन्दुस्तानी शख्स जो बाजरे में निहित नोस्टैल्जिया को अर्थशास्त्र
की सान पर परखना जानता है कि “बाजरा खाना लोगों के लिए शौक था और चक्कियां सिर्फ
शौक पूरा करने के लिए नहीं लगाई जातीं.”
साहित्य के किसी भी प्रचलित फॉर्मेट से स्वतंत्र इन रचनाओं में अद्वितीय बहुलता है - चीज़ों की भी, अनुभवों की भी और संवेदनाओं की भी. इसी लिए कई मायनों में मुझे यह किताब बहुत ज़रूरी लगती है.
साहित्य के किसी भी प्रचलित फॉर्मेट से स्वतंत्र इन रचनाओं में अद्वितीय बहुलता है - चीज़ों की भी, अनुभवों की भी और संवेदनाओं की भी. इसी लिए कई मायनों में मुझे यह किताब बहुत ज़रूरी लगती है.
किताब के
कंटेंट और उसकी शैली की बाबत संजय इस संग्रह की अंतिम रचना के अंतिम दो-तीन
वाक्यांशों में इशारा भर कर जाते हैं – “ये परिचयहीन प्रेम था. अनाम. संबोधन रहित.
निराकार. निरुद्देश्य. गंतव्य से परे. पर उसकी साइकिल की घंटी में मिठास आज भी
वैसी ही थी.”
पुस्तक से
मेरा एक प्रिय अंश –
चारपाई पर
बुढ़िया
पहली नज़र
में वो सिर्फ एक खाट थी. खाली. पर जैसे जैसे नज़दीक जाना हुआ, पता चला कोई बूढी उस पर लेटी है. उस छोटी सी खाट पर भी उसकी उपस्थिति अपने
आप दर्ज़ नहीं होती थी. उसे चिन्हित करना
पड़ता था. अपनी जीर्ण ओढनी के अलावा वो सूखे हाड़ की छोटी सी पोटली भर थी. यद्यपि ये
शक बराबर बना रहता था कि फटी ओढनी के अलावा वो कुछ भी शेष नहीं है और हवा ही उसके
आकार की शक्ल में कहीं टिकी रह गयी है. बस, समीपस्थ वातावरण के बारीक बने संतुलन में नोक भर के बिगड़ाव मात्र से सिर्फ
ओढनी ही हाथ रह जानी है. घरवालों का कहना था कि बूढी दादी कई दिनों से अन्न नहीं
ले रही है. एक लंबी यात्रा रही है दादी की, और अब चारपाई पर ‘हथेली भर
दादी’ को देखकर लगता है कि जिम्मेदारियों का भी अपना आयतन होता
है जिनकी वज़ह से दादी कम से कम तब तो ज़मीन पर ज़रूरी जगह घेरे ही होगी जब
गृहस्थी का गोवर्धन उसके सर पर था. अब जब वो चारपाई पर है और वो खुद किसी की
ज़िम्मेदारी भर है तो उसकी उपस्थिति को ढूँढना भी भारी पड़ रहा है.
बरसों पहले
वो जब शादी करके आई थी, खुद वो
कहती है कि उसकी शादी को ‘जुग भव’ बीत गए, तब वो कुछ बर्तन, कपड़े और चांदी के थोड़े गहने लेकर आई थी. इस घर में पतली नोकदार नाक और
थोडा गोरा रंग भी वो ही लाई थी. साथ ही हथेली पर आने वाली खुजली और हल्का दमा भी. अपना नाक, रंग और सुहाती खुजली उसने कुछ हद तक अपने पोते-पोतियों, एक बेटी और दोहिते को भी दी है.
अपने
सक्रिय बुढापे के दिनों में वो दो बार खुश हुई थीं. पहली बार तीर्थ से लौटते वक्त
दिल्ली में क़ुतुब मीनार देखकर और दूसरी बार बहरे होते कानों के लिए मशीन पाकर.
उसके लंबे वैधव्य में ये खुशियां विशुद्ध और पूर्णतः अमिश्रित थीं. ज़रूर इनका
आयतन भी उसके आकार में भराव देता होगा.
अब चारपाई
को खड़ा कर दिया गया है. उसकी जीर्ण ओढनी धरती पर है. हवा जो उसके आकार में बंधी
थी, बिखर गयी है...
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5 comments:
bahut umda lekh hai
हमेशा पढ़ते रहे हैं हृदय स्पर्शी उत्कृष्ट लेखन संजय व्यास जी का ...!!
बहुत सुंदर !
स्नेह के लिए एक छोटा सा नाकाफी शब्द-
शुक्रिया.
कबाड़खाना जिंदाबाद.बना रहे ये हम सब के बीच हमेशा.ऐसा ही.
आप हमेशा उत्कृष्टता से परिचय करवाते हैं । संजय जी के बारे में पढकर यह बात और भी पुष्ट हुई । खाट वाला प्रसंग अभिभूत करता है । पुस्तक मँगाने का प्रयास कर रही हूँ ।
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