वीरेन
डंगवाल की ये ताज़ा कवितायेँ मुझे अपने अनन्य मित्र आशुतोष उपाध्याय ने उपलब्ध कराई
हैं जो एक-दो दिन पहले उनसे मिलने गए थे. वीरेनदा ने ये कवितायेँ ख़ास कबाड़खाने के
लिए भिजवाई हैं.
जल्दी
से अच्छे हो जाओ दद्दा! चलते हैं अपन चोरगलिया –
चलो चलते
जो भी जाता
कुछ देर मुझे नयनों में भर लेता जाता
मैं घबड़ाता हूं.
अरे बाबा, चलो आगे बढ़ो
सांस लेने दो मुझको....
¨
है बहुत ही कठिन जीवन बड़ा ही है कठिन
चलते चलो
चलते.
वन घना है
बहुल बाधाओं भरा यह रास्ता सुनसान
भयानक कथाओं से भरा
सभी जो हो रहीं साकार :
'गहन है यह अन्धकारा... अड़ी है दीवार जड़
की घेर कर,
लोग यों मिलते कि ज्यों मुंह फेर कर...'
पर क्या तुझे दरकार
तेरे पास तो हैं भरी पूरी यादगाहें
और स्वप्नों - कल्पनाओं - वास्तविकताओं का
विपुल संसार,
फिर यह
यातना!
जीवित
मात्र रहने की
कठिन कोशिश
उसे रक्खो
बनाए
और चलते
चलो चलते.
(22.3.14)
वह धुंधला सा महागुंबद सुदूर राष्ट्रपति भवन का
जिसके ऊपर एक रंगविहीन ध्वज
की फड़फड़ाहट
फिर
राजतंत्र के वो ढले हुए कंधे
नॉर्थ और साउथ ब्लॉक्स
वसंत में
ताज़ी हुई रिज के जंगल की पट्टी
जिसके
करील और बबूल के बीच
जाने
किस अक्लमंद - दूरदर्शी माली ने
कब
रोपी होंगी
वे
गुलाबी बोगनविलिया की कलमें
जो अब
झूमते झाड़ हैं
और फिर
उनके इस पार
गुरुद्वारा
बंगला साहिब का चमचमाता स्वर्णशिखर
भारतीय
व्यवस्था में लगातार बढ़ती धर्म की अहमियत से
आगाह
करता.
हवा
में अब भी तिरते गिरते हैं
पस्त
उड़ानों से ढीले हुए पंख
दृष्टिरेखा
में वे इमारतें -
बहुमंज़िला
अतिमंज़िला पुराने रईसों की
केवल
तिमंज़िला.
पूसा
रोड के उन पुरानी कोठियों में लगे
आम के
दरख्तों पर ख़ूब उतरा है बौर
मेट्रो
दौड़ती हैं अनवरत एक दूसरे को काटती
नीचे
सड़कों पर आधुनिकतम कारों के बावजूद
उसी
ठेठ भारतीय शोरगुल का ही
समकालीन
संस्करण है
और भरी
भरकम कर्मचारी संख्या वाले
दफ्तरों
के बाहर
बेहतरीन
खान-पान वाले वे मशहूर ठेले-खोंचे और गुमटियां
जिन तक
मेरी स्मृति खींच ले जाती है
मुझ
ग़रीब चटोरे को.
कुछ
बात तो है इस नासपिटी दिल्ली
और
इसके भटूरों में
कि
हमारी भाषा के सबसे उम्दा कवि
जो
यहां आते हैं यहीं के होकर रह जाते हैं
जब कि
भाषा भी क्या यहां की :
अबे
ओये तू हान्जी हाँ.
तीन कुत्तों पर एक पूरा वाक्य
सदर
बाज़ार की एक भीड़ भरी
सड़क के
किनारे
कई
गाड़ियां खड़ी रहती हैं धूल से सनी
नीम और
कनेर के उन वृक्षों के नीचे.
वहीं
देखा वह दृश्य विचित्र
लगभग
इंद्रजाल ही :
एक कार
की छत पर तीन युवा कुत्ते सो रहे थे.
एक
उनमें से कार की छत पर ही अंगड़ाई लेता उठा
जब मैं
उनके क़रीब पहुंचा
दूसरा
और तीसरा वैसे ही पड़े रहे श्लथ, धूल में.
उम्र
उनकी यों समझ लो
जैसे
हमारे पंद्रह - सोलह साल के लड़के
जो
दूकानों-वर्कशॉपों में काम करते - मांगते
समयपूर्व
वयस्क हो जाते हैं.
हालांकि
उनके लिंग का पता नहीं चल पाया मुझे
पर एक
व्यभिचारग्रस्त प्रमाद में लिथड़े हुए लगे
वे
कुत्ते बसन्त की इस स्वच्छ दोपहर में.
मेरा हृदय
जुगुप्सा क्रोध और फिर
आत्मग्लानियुक्त
करुणा से भर आया इस साम्य विधान पर
पर मैं
कुछ कर न सका.
मैं
खुद एक मोटर के भीतर बैठा
अस्पताल
जा रहा था.
यह एक
पूरा वाक्य है कविता में
(14.3.14)
सन्दर्भ
: डॉ. फाउस्ट और कैन्सर
(मैं
कह भी क्या सकता हूं मेफ़िस्टोफिलीज़!
सचमुच
किसी काम के नहीं रहे
मेरा
यह चीथड़ा शरीर आत्मा,
शैतान
की बरसों की मेहनत
अब
आखिरकार रंग ले ही आई है).
(1)
फागुन
उतार पर है
सुना,
आखिरकार शक्ल दिखाने लगा है वहां
दिनों
का रूठा वह बूढ़ा - हिमवान,
और वन
अंटे पड़े हैं
बुरूंस
के सुर्ख फूलों से.
रामगढ़
घाटी तो बताते हैं,
बिल्कुल
तबाह है ख़ुशी से.
मैं जा पाता तुम्हारे साथ एक बार
एक बड़ा गुच्छा तोड़कर दे पाता
तुम्हें
इतने
वर्ष बाद ही सही!
तभी तो
मेरे पास माफ़ी मांगने लायक
कुछ
अपराध भी होते!
अगर
मैं जा सकने लायक हो पाता. तो.
माफ़ी मागने के लिए भी तो
स्वस्थ होना ज़रूरी है.
(2)
चैत लग
चला
सुगंधित
धुंए की तरह आई एकाएक
मां -
पिताजी की याद,
नवरात्र
का कलश बैठाने के लिए
मिन्नतों
भरा उनका वह करुण उत्साह!
आगे तो दिन हैं तपते हुए ख़तरनाक
सीढ़ियां खड़ी हैं,
ऊपर से
तेल और सीला हुआ मैल मिलें हैं रेते के साथ
जलते
हुए तलुओं के नीचे.
2 comments:
फ़ैज़ ने कहा हैः
माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है
वीरेन जी, आपकी कविताएं ज़िंदाबाद, आप ज़िंदाबाद.
आपका
शिवा
बहुत सुंदर रचनाओं से रूबरू कराने पर आभार ।
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