(कवि एवं विचारक हरजिंदर सिंह लाल्टू के ब्लॉग से साभार यह ज़रूरी पोस्ट)
फासीवाद उभार का भाषाई पहलू
-लाल्टू
संसदीय चुनावों में फासीवादी ताकतें पूरा जोर लगा रही हैं कि वे
सत्ता हथिया लें. देश-विदेश से आया बेइंतहा सरमाया उनके साथ है, मीडिया का बड़ा हिस्सा
उनके साथ है. मीडिया पंडितों ने लोगों की राय के सर्वेक्षण के आधार पर यह घोषणा भी
कर दी है कि मोदी जी तो बस आ ही गए. अस्लियत कुछ और है. यह तो लगता है कि कॉंग्रेस
और संप्रग की सरकार तो नहीं बनेगी, पर मोदी सरकार के लिए अभी दिल्ली दूर अस्त. और क्या होगा यह तो 16 मई के बाद ही पता चलेगा. अगर किसी तरह इस बार मोदी को रोक भी लिया जाए, यह सवाल पूछना ज़रूरी है
कि क्या भारत में फासीवादी उभार रुक जाएगा.
फासीवाद एक सामूहिक मनोरोग है जो अनुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों में
सिर उठाता है. पिछले दो दशकों में भारत में लगातार इसकी ताकत बढ़ते रहने के कई कारण
हैं. इन कारणों पर बहुत सारे चिंतक विमर्श करते रहते हैं. पर एक कारण ऐसा भी है, जिस पर बातचीत कम हुई है
और सुनियोजित ढंग से नहीं हुई है. अगर हम यह देखें कि गत बीस सालों में कौन सी
बातें एक जैसी रफ्तार से बढ़ती रही हैं, तो उनमें एक मुद्दा भाषा का होगा.
यह हाल के दशकों में ही हुआ है कि भारत के संपन्न वर्गो ने जबरन
अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा बना दिया है. आज़ादी के तुरंत बाद अंग्रेज़ी एक कामकाजी
भाषा तो थी, पर
शायद ही कोई इसे तब भारतीय भाषा कहता हो. अब स्थिति बिल्कुल उलट गई है. संपन्न
वर्गों की एक ऐसी श्रेणी है जो यह सुनते ही कि आप अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा नहीं
मानते, आप पर
तरह तरह के आक्षेप लगाएगी कि आप संकीर्ण सोच में फँसे हैं. हालाँकि सचमुच
अंग्रेज़ी भारतीय भाषा आज भी नहीं है, क्योंकि इसका इस्तेमाल संपन्न वर्गों के लोग ही कर पाते हैं. अगर इस आधार
पर किसी देश की भाषा तय हो तो उन्नीसवीं सदी में फ्रांसीसी भाषा को आधे से अधिक
यूरोपी देशों की भाषा माना जाता. तुर्गेनेव तक ने अपना शुरूआती लेखन फ्रांसीसी
भाषा में किया था. ऐसा कोई नहीं कहेगा कि फ्रांसीसी रूस की भाषा थी, पर हमारा देश है कि यहाँ
अंग्रेज़ी भारतीय भाषा नहीं है कहते ही चिल्ल-पों मच जाती
है. जाहिर है कि आर्थिक दृष्टि से जैसा भी हो, मूल्यों की दृष्टि से
भारतीय समाज आज भी मुख्यतः सामंती है. और फासीवाद के उभार में एक ज़रूरी कारण
सामंती मूल्यों का वर्चस्व है. संभव है कि विश्व-स्तर पर
सूचना लेन-देन की वजह से सौ सालों के बाद अंग्रेज़ी अपने आप
एक भारतीय भाषा बन जाए, तो इसमें कोई बुराई नहीं है. पर जिस तरह आज इसे थोपा गया है, इसकी कीमत समाज को चुकानी
पड़ रही है.
आज यह भारत में ही है कि जनसंख्या के उस विशाल वर्ग पर, जो आधुनिक समय की
सुविधाओं से वंचित हैं, बौद्धिक विमर्श ऐसी भाषा में होता है जिसका इस्तेमाल उन्हें वंचित स्थिति
में रखने के लिए औजार की तरह किया गया है. भारतीय भाषाओं में विमर्श सीमित होते जा
रहा है. जैसे-जैसे संपन्न वर्ग भारतीय भाषाओं से विमुख हो
रहा है, आर्थिक
कारणों से इन भाषाओं की रीढ़ टूटती जा रही है. मसलन हिंदी क्षेत्र के बड़े केंद्र
राजधानी दिल्ली से निकलती दर्जनों हिंदी पत्रिकाओं में से एक भी ऐसी नहीं है जो इस
एक शहर के बूते पर चल सके. बिहार, उत्तर प्रदेश, आदि राज्यों के ग़रीब पाठकों के चंदे से या सरकारी मदद से ही ये पत्रिकाएँ
चल रही हैं. अंग्रेज़ी पत्रिकाओं को इस दयनीय हाल से नहीं गुजरना पड़ता.
हममें से कई लोग मजबूरी में अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते हैं, पर अधिकतर मान चुके हैं
कि अंग्रेज़ी के बिना अब कोई राह नहीं. यह बड़ी विड़ंबना है. एक समय था जब तमाम
मुसीबतों के बावजूद फारसी और संस्कृत तक में समकालीन यूरोपी कृतियों के अनुवाद
उपलब्ध होते थे. होना यह तय था कि समय के साथ इन शास्त्रीय भाषाओं के अलावा बोलचाल
की भाषाओं में सामग्री उपलब्ध हो. और तकनीकी तरक्की से यह काम आसान भी होता गया
है. पर जापान, चीन के बरक्स हमारे यहाँ बहुत कम ही लोग इस तरह के शोध या तकनीकी-विकास में लगे हैं, जिससे एक से दूसरी भाषाओं में अनुवाद का काम आसानी से हो सके.
भाषा के महत्व पर सापिर, ह्वोर्फ, वायगोत्स्की से लेकर
स्टीवेन पिंकर तक अनगिनत विद्वानों ने लिखा है. हमारे देशी विद्वान इनको पढ़ते
पढ़ाते हैं और अंग्रेज़ी में हमें बतलाते हैं कि थोपी गई भाषा मनुष्य के सामान्य
विकास में बाधा पहुँचाती है और कई तरह की विकृतियाँ पैदा करती है. समझना मुश्किल
है कि ऐसे ज्ञान-पापी रातों को सोते कैसे होंगे. हम जो कह
रहे हैं निरंतर उसके विपरीत आचरण कर रहे हैं.
एक तर्क यह है कि भारत की इतनी सारी विविध भाषाओं में काम कर पाना
संभव नहीं है. हम ग़रीब हैं और हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. यह झूठ चलता
रहता है, जबकि
भारत दुनिया में मारक अस्त्रों का सबसे अधिक आयात करने वाला देश है. राष्ट्रीय बजट
का एक चौथाई सुरक्षा खाते में जाता है. अगर इस बात को छोड़ भी दें तो भी सवाल यह है
कि अंग्रेज़ी के अलावा हम किसी भारतीय भाषा में भी पढ़ते लिखते हैं या नहीं. राज्य
स्तर पर स्थानीय भाषा में विमर्श हो और राष्ट्रीय स्तर का विमर्श अंग्रेज़ी में हो, इसमें आज कोई आपत्ति नहीं
होनी चाहिए. हो यह रहा है कि मुद्दों की गहराई तक जाने के लिए पठनीय या शोध
सामग्री ढूँढने वाले अधिकतर लोग अंग्रेज़ी के अलावा कुछ पढ़-लिख
नहीं रहे. ऐसा करते हुए उन्होंने खुद को ज़मीनी सच्चाइयों से भी काट लिया है और जब
स्थितियाँ अपनी समझ से अलग बिगड़ती हुई दिखती हैं तो उन्हें अचंभा होता है. आखिर
इसमें आश्चर्य क्या कि जब बहुसंख्यक लोगों के साथ बातचीत के लिए पोंगापंथियों की
भरमार है और समझदार लोगों का अभाव है तो देश में फासीवाद का उभार दिखने लगा है.
देश के अधिकतर लोग टीवी देख कर अंग्रेजी की गुटर-गूँ सुन तो लेते हैं पर उन्हें यह भाषा समझ नहीं आती. अंग्रेज़ी में
वंचितों के पक्ष में प्रखर भाषण दे रहा विद्वान उनके लिए कुछ तो मनोरंजन का पात्र
है, और कुछ
अवचेतन में पलते आक्रोश का कारण. यही आक्रोश आखिर फासीवादी विकृतियों में बदलने
में मदद करता है. मजेदार बात यह है कि अंग्रेज़ी वाले यह सोचते हैं कि उनकी बहसों
को देश गंभीरता से ले रहा है. अरे! जो अंग्रेज़ी समझता ही नहीं, वह इस गुटर-गूँ को क्या समझेगा. भाषा सिर्फ भाषा
नहीं होती, हम
जो भाषा बोलते हैं, वही हमें परिभाषित करती है. सापिर-ह्वोर्फ ने भाषाई
निश्चितता का सिद्धांत दिया था, कि भाषा के अलावा हमारे अस्तित्व में और कुछ अर्थ ही नहीं रखता, जिसे हम दुनिया मानते हैं, उसे भाषा ही हमारे लिए
बनाती है - यह शायद कुछ अतिरेक ही था; पर उसके बाद भी तमाम
भाषाविदों ने बार-बार चेताया है कि भाषा ही जैविक विकास का
सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. हमारी विश्व-दृष्टि, जीवन के प्रति हमारा
नज़रिया, इनके
साथ भाषा का गहरा संबंध है. हम अपनी बात को औरों तक पहुँचाने, सही-ग़लत के बारे में अपनी समझ साझी करने के लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं.
यह अकारण नहीं है कि मोदी की भाषा हमारी सांप्रदायिक अस्मिता को जगाने में सफल हो
जाती है और गाँधी से लेकर वाम के तमाम समूहों का विमर्श जिसमें लगातार अंग्रेज़ी
बढ़ती जा रही है, बड़ी संख्या में लोगों को मुश्किल से छू पा रहा है.
2 comments:
आभार एक जबर्दस्त लेख से रूबरू कराने के लिये ।
शानदार लेख। भाषा एक बेहद जरूरी मुद्दा है पर इस पर हमने बात करना कब का बंद कर दिया है। यह कई कई बार भोगी हुई बात है कि हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं के पक्ष में बोलते ही हमारे अनेक मित्र (अपने को प्रगतिशील कहने वाले भी) इस तरह से नाक-भौं सिकोड़ते हैं जैसे कोई आवारा कुतिया उनके बेहद कलात्मक बैठक में घुस आई हो। इस मसले पर उनका दूसरा रुख यह है कि भारतीय भाषाओं की बात करते ही आप प्रतिक्रियावादी या संघी ठहरा दिए जाते हैं। इस तरह के लोगों में ऐसे अनेक हैं जो जनता की बात दिन में सौ बार करते हैं पर लखनऊ जैसे शहरों में भी कोई कार्यक्रम करते हुए उनका ‘कार्ड’ अंग्रेजी में ही छपता है।
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