Tuesday, April 29, 2014

जब भाषा में बिखराव होता है, तो वह सतही रह जाती है और सवालों का हल नहीं दे पाती

(कवि एवं विचारक हरजिंदर सिंह लाल्टू के ब्लॉग से साभार यह ज़रूरी पोस्ट)


फासीवाद उभार का भाषाई पहलू

-लाल्टू

संसदीय चुनावों में फासीवादी ताकतें पूरा जोर लगा रही हैं कि वे सत्ता हथिया लें. देश-विदेश से आया बेइंतहा सरमाया उनके साथ है, मीडिया का बड़ा हिस्सा उनके साथ है. मीडिया पंडितों ने लोगों की राय के सर्वेक्षण के आधार पर यह घोषणा भी कर दी है कि मोदी जी तो बस आ ही गए. अस्लियत कुछ और है. यह तो लगता है कि कॉंग्रेस और संप्रग की सरकार तो नहीं बनेगी, पर मोदी सरकार के लिए अभी दिल्ली दूर अस्त. और क्या होगा यह तो 16 मई के बाद ही पता चलेगा. अगर किसी तरह इस बार मोदी को रोक भी लिया जाए, यह सवाल पूछना ज़रूरी है कि क्या भारत में फासीवादी उभार रुक जाएगा.

फासीवाद एक सामूहिक मनोरोग है जो अनुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों में सिर उठाता है. पिछले दो दशकों में भारत में लगातार इसकी ताकत बढ़ते रहने के कई कारण हैं. इन कारणों पर बहुत सारे चिंतक विमर्श करते रहते हैं. पर एक कारण ऐसा भी है, जिस पर बातचीत कम हुई है और सुनियोजित ढंग से नहीं हुई है. अगर हम यह देखें कि गत बीस सालों में कौन सी बातें एक जैसी रफ्तार से बढ़ती रही हैं, तो उनमें एक मुद्दा भाषा का होगा.

यह हाल के दशकों में ही हुआ है कि भारत के संपन्न वर्गो ने जबरन अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा बना दिया है. आज़ादी के तुरंत बाद अंग्रेज़ी एक कामकाजी भाषा तो थी, पर शायद ही कोई इसे तब भारतीय भाषा कहता हो. अब स्थिति बिल्कुल उलट गई है. संपन्न वर्गों की एक ऐसी श्रेणी है जो यह सुनते ही कि आप अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा नहीं मानते, आप पर तरह तरह के आक्षेप लगाएगी कि आप संकीर्ण सोच में फँसे हैं. हालाँकि सचमुच अंग्रेज़ी भारतीय भाषा आज भी नहीं है, क्योंकि इसका इस्तेमाल संपन्न वर्गों के लोग ही कर पाते हैं. अगर इस आधार पर किसी देश की भाषा तय हो तो उन्नीसवीं सदी में फ्रांसीसी भाषा को आधे से अधिक यूरोपी देशों की भाषा माना जाता. तुर्गेनेव तक ने अपना शुरूआती लेखन फ्रांसीसी भाषा में किया था. ऐसा कोई नहीं कहेगा कि फ्रांसीसी रूस की भाषा थी, पर हमारा देश है कि यहाँ अंग्रेज़ी भारतीय भाषा नहीं है कहते ही चिल्ल-पों मच जाती है. जाहिर है कि आर्थिक दृष्टि से जैसा भी हो, मूल्यों की दृष्टि से भारतीय समाज आज भी मुख्यतः सामंती है. और फासीवाद के उभार में एक ज़रूरी कारण सामंती मूल्यों का वर्चस्व है. संभव है कि विश्व-स्तर पर सूचना लेन-देन की वजह से सौ सालों के बाद अंग्रेज़ी अपने आप एक भारतीय भाषा बन जाए, तो इसमें कोई बुराई नहीं है. पर जिस तरह आज इसे थोपा गया है, इसकी कीमत समाज को चुकानी पड़ रही है.

आज यह भारत में ही है कि जनसंख्या के उस विशाल वर्ग पर, जो आधुनिक समय की सुविधाओं से वंचित हैं, बौद्धिक विमर्श ऐसी भाषा में होता है जिसका इस्तेमाल उन्हें वंचित स्थिति में रखने के लिए औजार की तरह किया गया है. भारतीय भाषाओं में विमर्श सीमित होते जा रहा है. जैसे-जैसे संपन्न वर्ग भारतीय भाषाओं से विमुख हो रहा है, आर्थिक कारणों से इन भाषाओं की रीढ़ टूटती जा रही है. मसलन हिंदी क्षेत्र के बड़े केंद्र राजधानी दिल्ली से निकलती दर्जनों हिंदी पत्रिकाओं में से एक भी ऐसी नहीं है जो इस एक शहर के बूते पर चल सके. बिहार, उत्तर प्रदेश, आदि राज्यों के ग़रीब पाठकों के चंदे से या सरकारी मदद से ही ये पत्रिकाएँ चल रही हैं. अंग्रेज़ी पत्रिकाओं को इस दयनीय हाल से नहीं गुजरना पड़ता.

हममें से कई लोग मजबूरी में अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते हैं, पर अधिकतर मान चुके हैं कि अंग्रेज़ी के बिना अब कोई राह नहीं. यह बड़ी विड़ंबना है. एक समय था जब तमाम मुसीबतों के बावजूद फारसी और संस्कृत तक में समकालीन यूरोपी कृतियों के अनुवाद उपलब्ध होते थे. होना यह तय था कि समय के साथ इन शास्त्रीय भाषाओं के अलावा बोलचाल की भाषाओं में सामग्री उपलब्ध हो. और तकनीकी तरक्की से यह काम आसान भी होता गया है. पर जापान, चीन के बरक्स हमारे यहाँ बहुत कम ही लोग इस तरह के शोध या तकनीकी-विकास में लगे हैं, जिससे एक से दूसरी भाषाओं में अनुवाद का काम आसानी से हो सके.

भाषा के महत्व पर सापिर, ह्वोर्फ, वायगोत्स्की से लेकर स्टीवेन पिंकर तक अनगिनत विद्वानों ने लिखा है. हमारे देशी विद्वान इनको पढ़ते पढ़ाते हैं और अंग्रेज़ी में हमें बतलाते हैं कि थोपी गई भाषा मनुष्य के सामान्य विकास में बाधा पहुँचाती है और कई तरह की विकृतियाँ पैदा करती है. समझना मुश्किल है कि ऐसे ज्ञान-पापी रातों को सोते कैसे होंगे. हम जो कह रहे हैं निरंतर उसके विपरीत आचरण कर रहे हैं.

एक तर्क यह है कि भारत की इतनी सारी विविध भाषाओं में काम कर पाना संभव नहीं है. हम ग़रीब हैं और हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. यह झूठ चलता रहता है, जबकि भारत दुनिया में मारक अस्त्रों का सबसे अधिक आयात करने वाला देश है. राष्ट्रीय बजट का एक चौथाई सुरक्षा खाते में जाता है. अगर इस बात को छोड़ भी दें तो भी सवाल यह है कि अंग्रेज़ी के अलावा हम किसी भारतीय भाषा में भी पढ़ते लिखते हैं या नहीं. राज्य स्तर पर स्थानीय भाषा में विमर्श हो और राष्ट्रीय स्तर का विमर्श अंग्रेज़ी में हो, इसमें आज कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. हो यह रहा है कि मुद्दों की गहराई तक जाने के लिए पठनीय या शोध सामग्री ढूँढने वाले अधिकतर लोग अंग्रेज़ी के अलावा कुछ पढ़-लिख नहीं रहे. ऐसा करते हुए उन्होंने खुद को ज़मीनी सच्चाइयों से भी काट लिया है और जब स्थितियाँ अपनी समझ से अलग बिगड़ती हुई दिखती हैं तो उन्हें अचंभा होता है. आखिर इसमें आश्चर्य क्या कि जब बहुसंख्यक लोगों के साथ बातचीत के लिए पोंगापंथियों की भरमार है और समझदार लोगों का अभाव है तो देश में फासीवाद का उभार दिखने लगा है.

देश के अधिकतर लोग टीवी देख कर अंग्रेजी की गुटर-गूँ सुन तो लेते हैं पर उन्हें यह भाषा समझ नहीं आती. अंग्रेज़ी में वंचितों के पक्ष में प्रखर भाषण दे रहा विद्वान उनके लिए कुछ तो मनोरंजन का पात्र है, और कुछ अवचेतन में पलते आक्रोश का कारण. यही आक्रोश आखिर फासीवादी विकृतियों में बदलने में मदद करता है. मजेदार बात यह है कि अंग्रेज़ी वाले यह सोचते हैं कि उनकी बहसों को देश गंभीरता से ले रहा है. अरे! जो अंग्रेज़ी समझता ही नहीं, वह इस गुटर-गूँ को क्या समझेगा. भाषा सिर्फ भाषा नहीं होती, हम जो भाषा बोलते हैं, वही हमें परिभाषित करती है. सापिर-ह्वोर्फ ने भाषाई निश्चितता का सिद्धांत दिया था, कि भाषा के अलावा हमारे अस्तित्व में और कुछ अर्थ ही नहीं रखता, जिसे हम दुनिया मानते हैं, उसे भाषा ही हमारे लिए बनाती है - यह शायद कुछ अतिरेक ही था; पर उसके बाद भी तमाम भाषाविदों ने बार-बार चेताया है कि भाषा ही जैविक विकास का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. हमारी विश्व-दृष्टि, जीवन के प्रति हमारा नज़रिया, इनके साथ भाषा का गहरा संबंध है. हम अपनी बात को औरों तक पहुँचाने, सही-ग़लत के बारे में अपनी समझ साझी करने के लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं. यह अकारण नहीं है कि मोदी की भाषा हमारी सांप्रदायिक अस्मिता को जगाने में सफल हो जाती है और गाँधी से लेकर वाम के तमाम समूहों का विमर्श जिसमें लगातार अंग्रेज़ी बढ़ती जा रही है, बड़ी संख्या में लोगों को मुश्किल से छू पा रहा है.

जो लोग देश के सामान्य जन पर बात करते हैं और किसी भी भारतीय भाषा को पढ़ते लिखते नहीं हैं, उन्हें खारिज करना जरूरी है, क्योंकि देश में फासीवाद के उभार का एक कारण वे खुद हैं. कई तो ऐसे हैं कि सिर्फ अंग्रेज़ी में हल्का-फुल्का लिख कर ही स्व-घोषित पंडित बने घूमते हैं. वह कुछ भी कहते हैं तो अंग्रेज़ी मीडिया उसे उछालता है. देशी भाषाओं में मीडिया का प्रबंधन ऐसे ही लोगों के हाथ होने के कारण अक्सर इन भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में अंग्रेज़ी का पिछलग्गूपन दिखता है. कई हिंदी पत्रिकाओं का नाम अंग्रेज़ी में है, वो भी ऐसे लफ्ज़ जो आम आदमी नहीं समझता. सौ साल बाद समाज-शास्त्री और संचार विज्ञान के शोधार्थी इस पर काम करेंगे कि आज का भारतीय बुद्धिजीवी किस तरह की कृत्रिम दुनिया में जी रहा है और इसके कारणों में भाषा का सवाल कितना महत्वपूर्ण है. अंग्रेज़ी लचीली भाषा है, अंग्रेज़ी की शब्दावली बड़ी है; स्वाभाविक है कि अंग्रेज़ी के शब्द भारतीय भाषाओं में आ रहे हैं - यह सब तो ठीक है, पर जो खलिश है, वह यह है कि बकौल गाँधी 'अंतिम जन'को उसकी अपनी भाषा में बात करता कौन दिखता है. जैसे-जैसे विमर्श की धुरी अंग्रेज़ी की तरफ होती चली है, भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दों का संकट भी बढ़ता चला है. आम आदमी ही नहीं बुद्धिजीवियों के लिए भी ये भाषाएँ कठिन होती जा रही हैं और उनके विमर्श में भागीदारी करने वालों का दायरा भी सिमटता जा रहा है. कुल मिलाकर एक अजीब स्थिति है,जिसे कई लोग भारत और इंडिया के दो समांतर दुनिया का नाम देते हैं. देशी भाषा में बोते करते हुए अगर हम महज अंग्रेज़ी का अनुवाद ही कर रहे हैं, तो वह भारत की नहीं, इंडिया की ही भाषा है. धीरे-धीरे भारत कमजोर पड़ता जा रहा है, चुनांचे वह फासीवादियों के चंगुल में फँसता जा रहा है. कई लोग कहेंगे कि यह रैखिक युग्मक (बाइनरी) में फँसी हुई सोच है, पर सचमुच मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह जटिल और साथ ही सामाजिक घटना के रूप में बड़ी सरल सी बात है. अंग्रेज़ी सीखना या बोलना अपने आप में कोई दोष नहीं है, पर भारतीय सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में कई अंग्रेज़ी वाले एक अलग सत्ता अपना लेते हैं. यह इंग्लिशवाला होना अपने साथ देशी भाषा के प्रति उदासीनता ही नहीं, उपेक्षा का स्वभाव लिए होता है. इंग्लिशवाला होना शासक वर्गों के साथ होना है, आम लोगों से अलग होना है. तो आम लोगों तक पहुँचने के लिए कौन बचा रहेगा? जब तक सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ प्रतिबद्ध सोच रखने वाला कोई है तो ठीक है, जब शासन की मार या अन्य कारणों से ऐसे लोग नहीं हैं तो मैदान संकीर्ण राष्ट्रवाद के लिए खुला है. भाषाओं का कमज़ोर होना सिर्फ मुहावरों का विलुप्त होना नहीं है, यह सामूहिक और निजी अस्मिता का घोर संकट पैदा करता है. इस संकट से निपटने के कई तरीके हो सकते हैं - एक तो यह कि हर स्तर पर स्थानीय भाषाओं में काम हो, कम से कम माध्यमिक स्तर तक शिक्षा मातृभाषा में हो. इसके विपरीत फासीवाद वह मरीचिका है जो सामयिक रूप से उत्पीड़ित को इस ताकत का आभास देती है कि मेरी बोली में ताकत न हो न सही, पर अपनी भी कोई हस्ती है. जब भाषा में बिखराव होता है, जैसा कि आम लोगों पर बोलते हुए अँग्रेजीदाँ विशेषज्ञों मं दिखता है, तो वह सतही रह जाती है और सवालों का हल नहीं दे पाती. फासीवादी संगठनों में समकालीन विमर्श एकतरफा होता है और उनके अधिकतर कार्यकर्त्ता देशी भाषाओं में पारंगत होते हैं. इस तरह फासीवाद अपनी जड़ें जमाने में सफल होता है.

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

आभार एक जबर्दस्त लेख से रूबरू कराने के लिये ।

Manoj said...

शानदार लेख। भाषा एक बेहद जरूरी मुद्दा है पर इस पर हमने बात करना कब का बंद कर दिया है। यह कई कई बार भोगी हुई बात है कि हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं के पक्ष में बोलते ही हमारे अनेक मित्र (अपने को प्रगतिशील कहने वाले भी) इस तरह से नाक-भौं सिकोड़ते हैं जैसे कोई आवारा कुतिया उनके बेहद कलात्मक बैठक में घुस आई हो। इस मसले पर उनका दूसरा रुख यह है कि भारतीय भाषाओं की बात करते ही आप प्रतिक्रियावादी या संघी ठहरा दिए जाते हैं। इस तरह के लोगों में ऐसे अनेक हैं जो जनता की बात दिन में सौ बार करते हैं पर लखनऊ जैसे शहरों में भी कोई कार्यक्रम करते हुए उनका ‘कार्ड’ अंग्रेजी में ही छपता है।