भाजपा के ही नहीं
मीडिया के भी उम्मीदवार मोदी
प्रधानमंत्री पद
के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी भाजपा ही नहीं, भारतीय न्यूज मीडिया के बड़े हिस्से
के भी उम्मीदवार हैं. उसने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में कोई कोर कसर नहीं उठा
रखा है. ऐसा लगता है कि मीडिया ने मोदी को गोद ले लिया है. आश्चर्य नहीं कि मोदी
के पक्ष में हवा बनाने से लेकर चुनाव और मतगणना से पहले ही चुनाव पूर्व
सर्वेक्षणों में एन.डी.ए को बहुमत दिलाकर मोदी को प्रधानमंत्री घोषित करने तक
मीडिया मोदी के प्रचार अभियान का अग्रिम दस्ता बन गया है. वह मोदी के भोंपू की तरह
काम कर रहा है और इसके लिए उसने पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों जैसे सच्चाई,
तथ्यपरकता, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता और संतुलन को ताक पर रख दिया है.
लेकिन इसमें
हैरान होने की बात नहीं है. उसका यह आचरण उसके कारपोरेट चरित्र के मुताबिक है. असल
में, मोदी
उस बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट जगत की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार
हैं जो न्यूज मीडिया यानी बड़े अखबारों और न्यूज चैनलों के भी प्रत्यक्ष या परोक्ष
मालिक हैं. जाहिर है कि यह कारपोरेट न्यूज मीडिया यानी बड़े अखबार और चैनल देश को
वही बोलते-बताते हैं जो इस देश की बड़ी देशी-विदेशी पूंजी यानी बड़ी कंपनियों और
उद्योगपतियों के हितों के अनुरूप हो. यह किसी से छुपा नहीं है कि इस समय मोदी
कार्पोरेट्स और बड़े पूंजीपतियों के सबसे अधिक चहेते हैं और इन चुनावों में उसने
मोदी पर ही दाँव लगा रखा है. इसके लिए मोदी के प्रचार पर वह हजारों करोड़ रूपये
पानी की तरह बहा रहा है.
आखिर पूंजीपतियों
को फायदा पहुँचाने में कांग्रेस भी कहाँ पीछे थी? कांग्रेस ने सारे नियमों को ताक पर
रख इन कार्पोरेट्स/कम्पनियों को कोयला-लौह अयस्क-बाक्साईट आदि खनिजों से लेकर 2-जी ध्वनि तरंगों (एयरवेब) के ठेके दिए, उन्हें
जल-जंगल-जमीन और और सार्वजनिक संपत्ति की लूट की छूट दी, उनके
निर्देशों के मुताबिक खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी-निवेश को अनुमति दी,
पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को बाजार के हवाले किया, पूंजी घरानों को टैक्स में तमाम छूट और रियायतें प्रदान कीं. तब क्यों इन
कारपोरेट घरानों ने चुनाव के वक्त कांग्रेस का साथ छोड़ मोदी के पीछे सारी ताकत
झोंक दी है? पहली बात तो यह कि घोटालों के खुलासे, महंगाई-बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के चलते दस साल तक चली यू.पी.ए सरकार जनता
के बीच बेहद अलोकप्रिय हो चुकी थी. कांग्रेस/यू.पी.ए ने घोटालों के जरिए जिन
घरानों को फायदा पहुंचाया, वे फायदे और लूट में तो कांग्रेस के साझीदार रहे, लेकिन जब 2008
की वैश्विक मंदी, मुद्रास्फीति, घटती ब्याज दरों और राडियाटेप, सी.ए.जी., सी. वी. सी., लोकायुक्त तथा 2009 से जारी न्यायपालिका की सतर्कता का शिकंजा कसा और जनमत इन कारपोरेट हितों
के लिए किए गए घोटालों के खिलाफ हुआ, तब उसकी आंच से
कांग्रेस न खुद बच पाई और न ही इन कंपनियों को लगातार बढ़ते मुनाफे की दर का
आश्वासन दे पाई. कांग्रेस ने कारपोरेट सेक्टर के हितों
को ध्यान में रखते हुए मंत्रिमंडलीय समिति का गठन किया और पेट्रोलियम एवं
प्राकृतिक गैस और पर्यावरण एवं वन मंत्रालयों में व्यापक फेरबदल किये. लेकिन इसके
बावजूद कारपोरेट सेक्टर में यह विश्वास नहीं पैदा हो पाया कि कांग्रेस पार्टी पहले
की स्थिति वापस ला सकती है. इसे देखते हुए कार्पोरेट जगत ने यू.पी.ए/कांग्रेस को
छोड़कर भाजपा/एन.डी.ए के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी पर दाँव लगाया है. मोदी पर दांव
लगाने की वजह यह है कि मोदी गुजरात में पिछले बारह वर्षों से बड़ी कंपनियों और
पूंजीपतियों के मन मुताबिक काम करने, उन्हें हर तरह की
छूट/रियायतें देने और उनके हितों को आगे बढ़ाने में लगे रहे हैं. मोदी ने बड़ी
कंपनियों और पूंजीपतियों को खुश करने और उनका विश्वास जीतने में कोई कोर कसर नहीं
उठा रखा है. दस साल तक गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति रोके रख कर उन्होंने यह
भी दिखलाया है कि वे पूंजीपति घरानों की लूट पर निगरानी रखनेवाली संस्थाओं को
नाकाम कर सकते हैं. वे वनाधिकार तथा भूमि अधिग्रहण कानूनों, पर्यावरण
के नियमों आदि को ताक पर रख कर कारपोरेट मुनाफे की गारंटी कांग्रेस से कहीं अधिक
दक्षता के साथ कर सकते हैं, ऐसा उन्होंने गुजरात में कर के
दिखाया भी है.
हालाँकि
कारपोरेटपरस्ती और पूंजीपतियों को दोनों हाथों से फायदा पहुंचाने में किसी भी
पार्टी या मुख्यमंत्री और उसकी सरकार पीछे नहीं है लेकिन मोदी के कारपोरेट प्रेम
के आगे कोई नहीं ठहरता है. कंपनियों को भरोसा है कि मोदी कड़वे आर्थिक सुधारों और
बड़ी पूंजी के अनुकूल फैसलों को ‘विकास और हिंदुत्व’ की
चाशनी में लपेटकर लोगों के हलक के नीचे उतार सकते हैं. वे कारपोरेट लूट के खिलाफ
उठते जन-प्रतिरोध का निर्ममता से दमन कर सकते हैं और पूंजीपतियों के खिलाफ
जन-आक्रोश को साम्प्रदायिक मोड़ देकर बरगलाने की क्षमता रखते हैं. कार्पोरेट्स और
पूंजीपतियों की यही सबसे बड़ी मांग है और मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में मोदी
ही इसे पूरा कर सकते हैं.
हैरानी की बात
नहीं है कि बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ/कार्पोरेट्स और पूंजीपति खुलकर मोदी के पीछे
खड़े हैं. चूँकि मुख्यधारा के सभी बड़े अखबार समूह और चैनल यानी कारपोरेट न्यूज
मीडिया इन्हीं कार्पोरेट्स और पूंजीपतियों के हैं, उन्हीं की पूंजी उसमें लगी है और
उन्हीं के विज्ञापनों की कमाई से वे चलते हैं, इसलिए
स्वाभाविक रूप से वे मोदी के अगुवा प्रचार दस्ते में तब्दील हो गए हैं. उदाहरण के
लिए, टी.वी-१८ समूह (सी.एन.एन-आई.बी.एन, आई.बी.एन-७, सी.एन.बी.सी, आवाज़,
ई.टी.वी) में लगभग ५० फीसदी शेयर मुकेश अम्बानी की कंपनी रिलायंस के
हैं. इसी तरह टी.वी. टुडे समूह (इण्डिया टुडे पत्रिका से लेकर आज तक, हेडलाइंस टुडे, तेज) में आदित्य बिरला समूह के २६
फीसदी शेयर है जबकि एन.डी.टी.वी समूह के चैनलों में उद्योगपति ओसवाल के लगभग २०
फीसदी शेयर हैं.
यही नहीं, शेयर बाजार में
लिस्टेड इन टी.वी/मीडिया कंपनियों में देशी-विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई)
और बड़ी म्युचुअल फंड कंपनियों के शेयर भी लगे हैं. इसी तरह जागरण, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान टाइम्स और दैनिक
हिन्दुस्तान (के.के बिरला समूह), जी. टेलीफिल्म्स और जी
न्यूज जैसी दर्जनों मीडिया कम्पनियाँ शेयर बाजार में लिस्टेड हैं और उनमें
देशी-विदेशी निवेशकों और कंपनियों के अलावा बैंकों ने निवेश कर रखा है. वे खुद
कारपोरेट कम्पनियाँ हैं. इनमें से कई मीडिया कम्पनियों के मीडिया के अलावा और
दर्जनों उद्योग-धंधे और व्यवसाय हैं. जैसे लोकमत समूह, दैनिक
भास्कर, प्रभात खबर, सन टी.वी, इंडिया न्यूज आदि रीयल इस्टेट, शापिंग माल से लेकर
सीमेंट, बिजलीघर आदि कई तरह के धंधों में लगे हुए हैं जहाँ
उन्हें हमेशा सरकार की जरूरत रहती है.
दूसरी ओर, दर्जन भर
मीडिया कम्पनियाँ ऐसी हैं जो मुख्यतः चिट फंड, रीयल इस्टेट
और ऐसे ही संदिग्ध धंधों में लगी हैं और चैनल और अखबार अपने धंधों को राजनीतिक और
नौकरशाही का संरक्षण देने के लिए चलाती हैं. उदाहरण के लिए, सहारा
समूह, पी-७, लाइव इंडिया आदि कम्पनियाँ
स्वभाविक तौर पर सत्ता के करीब रहना चाहती हैं. ये सभी मीडिया कम्पनियाँ और उनके
अखबार/चैनल ‘हवा’ का रूख पहचानने में
देर नहीं लगाते हैं और नतीजा यह कि वे खुलकर मोदी के पक्ष में ‘हवा’ बनाने, फिर उसे ‘मोदी लहर’ बताने और अब ‘मोदी
सुनामी’ लाने में जुटे हैं.
इसके वाला कई
चैनलों/अखबारों के मालिकों के राजनीतिक रुझान बहुत स्पष्ट रहे हैं. उदाहरण के लिए, जी समूह के
मालिक सुभाष चंद्रा बहुत गर्व से बताते रहे हैं कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
(आर.एस.एस) के स्वयंसेवक रहे हैं. यही नहीं, वे नागपुर में
आर.एस.एस के कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हो चुके हैं. इसबार वे
और उनके सभी चैनल खुलकर मोदी के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं. यहाँ तक कि खुद सुभाष
चंद्रा मोदी की कुरुक्षेत्र रैली में मंच पर मौजूद थे. आश्चर्य नहीं कि जी समूह के
चैनल न सिर्फ मोदी के भोंपू की तरह काम कर रहे हैं बल्कि प्रतिपक्षी दलों और
नेताओं के खिलाफ प्रायोजित ख़बरें भी चला रहे हैं. उल्लेखनीय है कि जी न्यूज के
संपादकों पर कांग्रेस नेता और उद्योगपति नवीन जिंदल से कोयला घोटाले में ख़बरें
रोकने के लिए भारी रकम मांगने के आरोप हैं जिसे जिंदल समर्थकों ने छिपे कैमरे में
कैद कर लिया था.
जी समूह की तरह
ही इंडिया टी.वी के मालिक रजत शर्मा आर.एस.एस के पूर्व स्वयंसेवक और ए.बी.वी.पी के
सक्रिय कार्यकर्ता रह चुके हैं और ए.बी.वी.पी के कार्यकर्ता के बतौर दिल्ली
विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पदाधिकारी रह चुके हैं. रजत शर्मा के आज भी संघ और
बी.जे.पी नेताओं से गहरे संबंध हैं. आश्चर्य नहीं कि मोदी ने रजत शर्मा को
इंटरव्यू के लिए समय दिया और उनके ‘आपकी अदालत’ कार्यक्रम
में आए जहाँ शर्मा ने भक्ति भाव से सवाल पूछे. कहने की जरूरत नहीं है कि इंडिया
टी.वी इन चुनावों में मोदी का लाउडस्पीकर बना हुआ है. दूसरी ओर, इंडिया टी.वी ने आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की पोल खोलने का अभियान छेड
रखा है.
यही हाल इंडिया
न्यूज का है जिसके मालिक कांग्रेस के नेता विनोद शर्मा (जेसिका लाल हत्याकांड में
सजायाफ्ता मनु शर्मा के पिता) हैं जिन्होंने पिछले महीने कांग्रेस से इस्तीफा दे
दिया और भाजपा में शामिल होने की कोशिश की. हालाँकि भाजपा में अंदरूनी विरोध के
कारण वे कामयाब नहीं हो पाए लेकिन फिर भी उनके चैनल मोदी की भक्ति में पूरे जी-जान
से लगे हुए हैं और इंडिया टी.वी की ही तरह केजरीवाल विरोधी प्रचार अभियान में भी
जुटे हुए हैं. इनके अलावा बाकी चैनलों ने भी ‘हवा’ का रूख देखते
हुए बहुत पहले से मोदी गान शुरू कर दिया और बदले में मोदी टीम उन्हें कई तरह से
उपकृत कर रही है. इसके अलावा वे अगली सरकार के ‘गुडबुक’
में रहना चाहते हैं. यही कारण है कि जो आमतौर पर खुलकर मोदी के पक्ष
में नहीं थे, वे भी अब खुलकर मोदी महिमा गा रहे हैं.
जैसे एन.डी.टी.वी
समूह मोदी के पक्ष में नहीं था लेकिन मोदी टीम के कई सक्रिय सदस्यों जैसे
सुब्रहमण्यम स्वामी, एस.
गुरुमूर्ति और मधु किश्वर ने एन.डी.टी.वी को दबाव में लाने के लिए उसमें कांग्रेस
नेता और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का कालाधन लगे होने का आरोप लगाते हुए उसके
खिलाफ अभियान छेड रखा था. ऐसा लगता है कि वे एन.डी.टी.वी पर दबाव बनाने में कामयाब
हो गए हैं. यही कारण है कि एन.डी.टी.वी ने एन चुनाव के बीच में ओपिनियन पोल में
एन.डी.ए को बहुमत मिलता हुआ दिखा दिया. चौंकानेवाली बात यह है कि एन.डी.टी.वी पर
सर्वे करनेवाली कंपनी हंसा रिसर्च के पूर्व कार्यकारी अधिकारी इनदिनों मोदी की छवि
बनाने का ठेका लिए अमेरिकी पी.आर कंपनी- एप्को के वरिष्ठ अधिकारी हैं. तात्पर्य यह
कि चैनलों/अखबारों को मोदी के पक्ष में ‘लहर’ बनाने के लिए तैयार करने के वास्ते भाजपा और मोदी टीम ने साम-दाम-दंड-भेद
सभी उपायों का सहारा लिया है और कामयाब भी हुए हैं.
असल में, चैनल/अखबार में
जितनी पूंजी लगी है और दांव जितने ऊँचे हैं, उसमें किसी
मीडिया कंपनी और उसके मालिक के लिए स्वतंत्र, निष्पक्ष,
वस्तुनिष्ठ और संतुलित रह पाना संभव नहीं रह गया है. वे बिना किसी
अपवाद के बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के हितों के अनुकूल और सत्ता में शीर्ष पदों पर
बैठे या सता के संभावित दावेदारों के साथ खड़े रहते हैं. वे कोई जोखिम लेने के लिए
तैयार नहीं हैं और झुकने के लिए कहे जाने पर रेंगने में देर नहीं करते हैं. हैरानी
की बात नहीं है कि मोदी के सामने सभी रेंग रहे हैं. इसका सबसे बढ़िया उदाहरण
नरेन्द्र मोदी के चुन-चुनकर दिए गए इंटरव्यू हैं जिनमें पत्रकारों के सवाल,
उनकी देहभाषा, उनका टोन और झुकी हुई पीठ
सच्चाई बयान कर देती है.
इसके अलावा मोदी
की प्रचार टीम ने सोशल मीडिया पर अभियान चलाने के लिए सैकड़ों युवा वेतनभोगी
कर्मचारी नियुक्त कर रखे हैं. दूसरी ओर, अमेरिकी पी.आर कंपनी एप्को के अलावा
कोई ५०० करोड़ के बजट में बहुराष्ट्रीय विज्ञापन कंपनी- मैकान-इरिक्सन को विज्ञापन
अभियान तैयार करने का ठेका दिया गया है. इसका काम
अखबारों/चैनलों/रेडियो/सिनेमाघरों में लगातार चलनेवाले विज्ञापनों की सामग्री
तैयार करना है क्योंकि विज्ञापन पर होनेवाला बजट अलग है. कहने की जरूरत नहीं है कि
इन सबके संयुक्त प्रयास से देश में ‘मोदी लहर’ तैयार की गई है. इसमें देश की बड़ी कंपनियों ने जमकर धन झोंका है जबकि
मीडिया कंपनियों ने उसे साख और आवाज़ दी है और उसके कानफोडू शोर में आज पूरे देश
में जनमत को बहरा बनाने और जनतंत्र को हाइजैक करने की कोशिश जारी है.
हालाँकि यह कोई
पहली बार नहीं हो रहा है. २००४ के चुनावों से पहले भी भाजपा/एन.डी.ए की ओर से ‘इंडिया शाइनिंग’
का अभियान चलाया गया था. हालाँकि वह अभियान मुंह के बल गिरा था
लेकिन ‘मोदी लहर’ अभियान उसकी तुलना
में कहीं ज्यादा बड़ा-व्यापक और सघन है. देखना यह है कि इसका क्या हश्र होता है?
इस उत्तर पर इस देश के जनतंत्र का भविष्य निर्भर है.
( सुधीर
सुमन द्वारा जन संस्कृति मंच के लिए प्रचारार्थ जारी)
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