प्रमोद सिंह की किताब ‘अजाने मेलों
में’ दोएक दिन पहले मुझ तक पहुँची है. अज़दक के लेखन से उनके ब्लॉग के माध्यम से
पुरानी पहचान है पर उसमें से छंटी हुई पोस्ट्स को इस तरह किताब की सूरत में देखना
सुखद है. अपने समूचे जीवन को इस बेपरवाह संजीदगी से उघाड़ कर रख देने की ताब इधर कम
पाई जाने लगी है.
यह सच है कि ‘अजाने मेलों में’ एक
डिस्टर्ब करने वाली किताब है. और इसे जितना मैं पढ़ पाया हूँ उस से एक बात तो ज़ाहिर
है कि यह एकबारगी निबटा देने वाली किताब नहीं है. मैंने तय किया है कि इसे बहुत
आराम आराम से पढूंगा. हुआ तो दिन में तीन या चार पन्ने या हद से हद पांच.
किताब पूरी होने पर एक पूरी
समीक्षानुमा टीप लिखने की भी हसरत रखता है यह अल्पज्ञानी. फिलहाल, आपको मुदित करने
के उद्देश्य से (इस आशा से भी कि आप इस किताब को ऑनलाइन ऑर्डर करने को प्रेरित
होंगे) मैं किताब से पन्ना संख्या १३३-१३४ से एक हिस्सा आपके लिए पेश करता हूँ –
साहित्य बीहड़ रत्नाकर ...
‘स्पैन’ पलटने के बाद ‘एल नुवोबो मोंदो’ के पन्ने पलटता हूं.
कल ही दफ़्तर में आ गयी थीं लेकिन देख सकने की फ़ुरसत नहीं बनी (यही दिखता रहा कि मेरे
नाम विदेशी पत्रिकाओं के आने से कैसे सोढी एंड पार्टी की आंतें जलती हैं! जलती है दुनिया
जलती रहे, आंखें
अपनी मलती रहे?), अब फ़ुरसत बनी है तो उसकी अच्छी तस्वीरों व प्रचारात्मक सामग्री में पता नहीं
मन क्यों नहीं लग पा रहा. दिल्ली हिन्दी अकादमी से फ़ोन आ सकता था लेकिन नहीं आया
है. राजौरी गार्डन के लालजी पंडित कह रहे थे विशेष काव्यपाठ का आयोजन करेंगे किंतु
कहां कर रहे हैं? साहित्य-रत्नाकर
वाले भी चुप हैं. साहित्य अकादमी तो मुझे जैसे भूल ही गयी है! फिर मैं किसके लिए लिख
रहा हूं?
जनम-जनम का साथ है निभाने को कितने जनम लिये? तुम मुझे कभी भूला न पाओगे, ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना. कहीं
दीप जले कहीं दिल. कभी तन्हाइयों में हमारी याद आयेगी. दिल के झरोखों में मुझको बिठाकर
यादों की अपनी दुल्हन बनाकर रखोगे तुम दिल के पास, मत होऊं तेरी जां उदास? मेरे दुख अब तेरे तेरे सुख अब मेरे, मेरे ये दो नैना चांद और सूरज तेरे? गुमनाम है कोई बदनाम है कोई लेकिन काले
हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं! वो चांद सा रौशन चेहरा ये झील सी नीली आंखें तारीफ़
करूं क्या उसकी जिसने मुझे बनाया! तुम अगर साथ देने का वादा करो, मैं कहीं कवि न बन जाऊं तेरे प्यार में
ओ कविता?
ओह. ना कोई उमंग है ना कोई तरंग है मेरी ज़िंदगी है क्या कटी
पतंग है! साहित्य अकादेमी मुझे फ़ोन नहीं कर सकती? या हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर ही सही? श्री फणिधर हर कहीं पहुंचने का एयर-फेयर
पाते हैं, और मुझे
ज़रा-ज़रा से शराब तक का मोहताज़ रहना पड़ता है, इस दुनिया में कहीं न्याय है? सुरेंद्र मोहन पाठक तक का अंग्रेजी में
अनुवाद छप गया जबकि मेरे पास अब तक किसी फ्रेंच प्रकाशक का पत्र पहुंचा है न ऊंची राशि
का कोई चेक. नीची राशि का भी नहीं पहुंचा! फिर मैं किसके लिए लिखता हूं?
शायद फ्रेंच में मेरे अनुवादों के छपने के बाद अंग्रेजी पढ़नेवाली
बड़ी दुनिया में मैं छा जाऊं? कोई होता मेरा अपना हम जिसको अपना कह लेते यारो. तित्तली
उड़ी उड़ के चली फूल ने कहा आजा मेरे पास तित्तली कहे मैं चली आकाश? ज़िंदगी कैसी है पहेली कभी ये हंसाये कभी
ये रुलाये (मेरे संदर्भ में ज़्यादा तो रुलाती ही क्यों रहती है? ज़िन्दगी तेरा ऐतबार ना रहा?). आपसे हमको बिछड़े हुए एक ज़माना बीत गया.
ना जा मेरे हमदम. बहारो फूल बरसाओ तेरा मेहबूब आया है!
लेकिन फ़ोन नहीं आ रहा. लालजी पंडित का भी नहीं. दुनिया ओ दुनिया
तेरा जवाब नहीं. सचमुच मैं किसके लिए लिखता हूं?
फरवरी 6, 2009
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नोट- किताब ऑर्डर करना चाहें तो इस लिंक पर जाया जा सकता है -
3 comments:
मगर अच्छी बात नहीं ऐसे तो न देखो कोई कह नहीं रहा..
Agar spontaneous response ko dekha jaye to apki kitab superhit hai. Bagair kisi vyaktigat aur sansthanik karNo se kisi kitab ko itni mohabbat se shayad hi liya gaya hoga
Spontaneously jis tatarahekoogo nenes kikitabagairavyaktigatgat aursanstha ik karano se liya haiwah sukhad hai
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