ज़माने की
औपचारिकताओं का तकाज़ा है कि इस पोस्ट को यहाँ बहुत पहले लग जाना चाहिए था. लेकिन मेरी
अपनी स्वास्थ्य-सम्बन्धित व्यस्तताएं थीं और एक दोस्त को खो चुकने का गहरा ग़म.
अनुराधा के जाने की अवश्य्म्भाव्य्ता की जानकारी होना एक लम्बे अवसाद का विषय बन
चुका था लेकिन आज मैं एक स्त्री को याद कर रहा हूँ जो जहां गयी वहाँ अपनी निशानियाँ
ऐसे छोड़ आई जैसे पत्थरों चट्टानों पर बहता पानी चुपचाप धर आता है.
कई साल पहले
जब हिन्दी में ब्लॉगिंग शुरू हुई थी अनुराधा और दिलीप से आत्मीय संबंधों की डोर
महान अश्वेत गायक पॉल रोब्सन के गीतों ने जोड़ी जिन्हें मैं उन दिनों कबाड़खाने पर
पोस्ट कर रहा था.
ऐसे सम्बन्ध
बन जाने के बाद पहली या दूसरी या तीसरी या सौवीं मुलाकातें कोई मायने नहीं रखतीं.
मीर बाबा फ़रमा चुके हैं –
रोज़ मिलने पे नहीं निस्बत-ए-इश्क़ी मौकूफ़
उम्र भर एक मुलाक़ात चली जाती है.
उस दिन मैं और
सबीने लक्ष्मीबाई नगर स्थित अनुराधा-दिलीप के घर गए थे. अनुराधा ने बाटी-चोखा
बनाया था.
उस दिन अनुराधा-दिलीप
और राजू (यानी बेटा अरिंदम) हल्द्वानी आये थे.
उस दिन मेरी
बहन के नवजात बेटे का नाम राजू के नाम पर अरिंदम धरा गया था.
बहन का बेटा अरिंदम अनुराधा के साथ |
उस दिन मेरे
घर कोई था ही नहीं जब अनुराधा-दिलीप और राजू के अलावा दिल्ली से इरफ़ान अपना पूरा
कुनबा लेकर हल्द्वानी पहुँच गए थे. छोटी बहन कुछ खाना-वाना बनाने में मदद करने आ
तो गयी थी पर दस-बारह लोगों के वास्ते रोटियाँ अनुराधा ने ही बेलीं-पकाईं.
अरिंदम, इरफ़ान की सुपुत्री और अनुराधा |
मैं अपने
बाथरूम में अमूमन एक ताज़ा फूल ज़रूर सजाए रखता था. सिर्फ अनुराधा थीं जिन्होंने
उसे देखा और मुझसे पूछा कि उस फूल को कौन रोज़ बदल जाता है. अब कौन कहे कि अनुराधा
मेरा मन अब वैसा कभी नहीं कर सकेगा.
उस दिन मुनीश
और विनय और मैं एक लीटर की व्हिस्की लेकर अनुराधा-दिलीप के पास पहुँच गए थे तो
हमें उसी आत्मीयता से बिठाया-खिलाया गया.
लेकिन हमें या
किसी को पता तक उस स्त्री ने नहीं चलने दिया कि वह कितने बड़े संग्राम से वर्षों से
रू-ब-रू थी. उसकी कैंसर विजेता की डायरी मेरी माँ ने भी पढ़ी मेरी बहन ने भी और वे
उस की सादगी और हिम्मत के हमेशा कायल रहे.
जब अनुराधा की
कवितायेँ ‘जानकी पुल’ पर छपीं तो उन्होंने मुझे उनका लिंक भेजा. उसके बाद कविता
संग्रह के प्रकाशन संबंधी सूचना देते हुए उनका मुझे भेजा गया मेल शायद अंतिम संवाद
था किसी भी तरह का.
वे मेरे एक
ब्लॉग ‘लपूझन्ना’ को खूब पसंद करती थीं और मुझसे उसे आगे बढाने को कहती थीं हर
बार.
उन्होंने मुझे
कई लिंक भेजकर हैदराबादी मजाहिया शायरी के कुछ नगीनों, खासतौर पर चिचा से मिलवाया.
उन्होंने न जाने कितनी पीडीएफ फाइलें सहेज रखी थीं. आख़िरी दिनों की एक मेल में
उन्होंने मुझे ‘कैचर इन द राई’ के पीडीएफ़ का दुर्लभ लिंक मुहैय्या कराया था.
मैं इस पोस्ट
के माध्यम से उन्हें लगातार याद करते रहना चाहता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि आप
जानें कि इस मुश्किल समय में भी ऐसे जीवंत लोग मिलते हैं और उन्हें सहेज कर रखना
कितना ज़रूरी होता है.
उनकी कविताओं की किताब ‘अधूरा कोई नहीं’ से चुनिन्दा कवितायेँ यहाँ पेश की जाती हैं और उनके जाने
के बाद लिखा हुआ दिलीप का एक मार्मिक गद्य और अनुराधा की कुछ तस्वीरें.
हम तुम्हें
हमेशा याद रखेंगे अनुराधा! सलाम!
1. अधूरा
कोई नहीं
सुनती
हूं बहुत कुछ
जो
लोग कहते हैं
असंबोधित
कि
अधूरी
हूं मैं- एक बार
अधूरी
हूं मैं- दूसरी बार
क्या
दो अधूरे मिलकर
एक
पूरा नहीं होते?
होते
ही हैं
चाहे
रोटी हो या
मेरा
समतल सीना
और
अधूरा आखिर
होता
क्या है!
जैसे
अधूरा चांद? आसमान? पेड़? धरती?
कैसे
हो सकता है
कोई
इंसान अधूरा!
जैसे
कि
केकड़ों
की थैलियों से भरा
मेरा
बायां स्तन
और
कोई सात बरस बाद
दाहिना
भी
अगर
हट जाए,
कट
जाए
मेरे
शरीर का कोई हिस्सा
किसी
दुर्घटना में
व्याधि
में/ उससे निजात पाने में
एक
हिस्सा गया तो जाए
बाकी
तो बचा रहा!
बाकी
शरीर/मन चलता तो है
अपनी
पुरानी रफ्तार!
अधूरी
हैं वो कोठरियां
शरीर/स्तन के भीतर
जहां
पल रहे हों वो केकड़े
अपनी
ही थाली में छेद करते हुए
कोई
इंसान हो सकता है भला अधूरा?
जब
तक कोई जिंदा है, पूरा है
जान
कभी आधी हो सकती है भला!
अधूरा
कौन है-
वह,
जिसके कंधे ऊंचे हैं
या
जिसकी लंबाई नीची
जिसे
भरी दोपहरी में अपना ऊनी टोप चाहिए
या
जिसे सोने के लिए अपना तकिया
वह,
जिसका पेट आगे
या
वह,जिसकी पीठ
जो
सूरज को बर्दाश्त नहीं कर सकता
या
जिसे अंधेरे में परेशानी है
जिसे
सुनने की परेशानी है
या
जिसे देखने-बोलने की
जो
हाजमे से परेशान है या जो भूख से?
आखिर
कौन?
मेरी
परिभाषा में-
जो
टूटने-कटने पर बनाया नहीं जा सकता
जिसे
जिलाया नहीं जा सकता
वह
अधूरा नहीं हो सकता
अधूरा
वह
जो
बन रहा है
बन
कर पूरा नहीं हुआ जो
जिसे
पूरा होना है
देर-सबेर
कुछ
और नहीं
न
इंसान
न
कुत्ता
न
गाय-बैल
न
चींटी
न
अमलतास
न
धरती
न
आसमान
न
चांद
न
विचार
न
कल्पना
न
सपने
न
कोशिश
न
जिजीविषा
कुछ
भी नहीं
पूंछ
कटा कुत्ता
बिना
सींग के गाय-बैल
पांच
टांगों वाली चींटी
छंटा
हुआ अमलतास
बंजर
धरती
क्षितिज
पर रुका आसमान
ग्रहण
में ढंका चांद
कोई
अधूरा नहीं अगर
तो
फिर कैसे
किसी
स्त्री के स्तन का न होना
अधूरापन
है
सूनापन
है?
अधूरी
है उसकी सोच
जिसके
लिए हाथों का खिलौना टूट गया
खेलते-खेलते
या
उसका आइना
जो
नहीं जानती
36-28-34
के परे एक संसार है
ज्यादा
सुंदर
स्तन
का न होना सिर्फ और सिर्फ
उन
सपनों-इच्छाओं का अधूरापन है
जो
भावनाओं बराबरी के रिश्तों से परे
उगते-पलते
हैं किसी असमतल बीहड़ में
जहां
जीवन मूल्यहीन है, विद्रूप है, शर्मनाक है, अन्याय है
2. भर
दो मुझे
मेरे
सीने में
बहुत
गहराई है
और
बहुत खालीपन है
भुरभुरी
बालू
की तरह
भंगुर
है मेरी पसलियां
इन्हें
भर दो
अपनी
नजरों की छुअन से
गर्म
सलाखों सी तपती,
हर
समय दर्द की बर्फीली आंधियों में
नर्म
हथेलियों की हरारत से
इन्हें
ठंडा कर दो
जैसे
मूसलाधार बरसात के बाद
भर
जाते हैं ताल-पोखरे
ओने-कोने
से, लबालब
शांत
नीला समंदर
भरता
है हर लहर को
भीतर-बाहर
से
या
पतझड़ भर देता है
सूखे
पत्तों से
किसी
वीरान जंगल की
मटियाली
सतह को
कई
परतों में
इतने
हल्के से कि
एक
पतली चादर सरसराती हवा की
सजा
दे और ज्यादा उन पतियाली परतों को
उनके
बीच की जगहों को भरते हुए
अगर
तुमने देखा हो रेतीला बवंडर
जो
भर देता है
पाट
देता है पूरी तरह
आकाश-क्षितिज
को
बालू
के कणों से
जैसे
भर जाती है
हमारे
बीच की हर परत, हर सतह
प्रशांत
सागर-से उद्दाम प्रेम से
वैसे
ही भर दो मुझे गहरे तक
कि
परतों के बीच
कोई
खालीपन भुरभुरापन वो दर्द
न
रहे बाकी
रहे
तो सिर्फ
बादल
के फाहों की तरह
हल्की
मुलायम सतह सीने की
और
उसमें सुरक्षित
भीतरी अवयव
3. देह
की भाषा
देह
के मुहावरे अजीब होते हैं
भाषा
अजीब होती है
तकलीफ
दूर करने के लिए
तकलीफ
मांगती है
आराम
पाने के लिए
बेआराम
होना मांगती है
बोलती
है गर्मियों की उमस भरी बेचैनी
ठीक
बीच रात में
दिसंबर
की बर्फीली ठंड में भी
जब
वह घिरी होती है
हार्मोंन
की ऊंची-नीची लहरों से
भरी
गर्मी में
बतियाती
है ढेर सा पसीना
और
हो जाती है ठंडी, निश्चल, चुप
चुप
रहती है
जब
कहने की जरूरत सबसे ज्यादा हो
चुप
हो जाती है
जब
बातें करने को लोग सबसे ज्यादा हों
आस-पास
जमा हुए, आपस में बतियाते
उस
बीच में रखी देह के बारे में
जो
चुप हो गई
इस
वाचाल को चाहिए एकांत, सन्नाटा
जब
पास कोई न हो
तो
बोलती है
बेबाक,
बिंदास
अपने
मन की,
देह
की
फिर
समेटती है अपने शब्द
चुन-चुन
कर एक-एक
दिखाती
है कविराज को
और
पूछती है नुस्खे
उन्हें
शांत करने के,
बुझाने
के
क्योंकि
देह का बोलने
यानी
शब्दों का खो जाना
4. तुम
न बदलना
लोग
मिलते हैं
बिछुड़
जाते हैं
दिन
दोपहर शाम रात
आते
हैं चले जाते हैं
मौसम
भी कहां
गांठ
में बंधते हैं
रिश्ते
बातों-बातों में टूटा करते हैं
रास्ते
हम ही
बदलते
चलते हैं
अखबार
की रोशनाई हर दिन
सुर्खियां
बदल देती है
जिंदगी
की प्याली
छूटती
है हाथ से
टूट
जाती है
फैलती
हैं किरचें
बनते
है घाव
फिर
भर जाते हैं
अस्पताल
में डॉक्टर बदलते हैं
डॉक्टर
पर्चियां बदलते हैं
पर्चियों
में दवाएं
खुराक
बदलते हैं
कभी
हम
डॉक्टर
ही बदल लेते हैं
पर
तुम न बदलना
दर्द,
साथ
देना मेरा
5. तेरी-मेरी
चुप
चुप
रहना गलत है
चुप
बैठ जाना और भी गलत
चुप
बैठना नहीं
चुप
रहना नहीं
कहना
है
कि
हम सिर्फ वह नहीं
जिसे
सर्जरी ने काटा
सिकाई
ने जलाया
दवाओं
ने मारा
चंद
उत्पाती
अपनी
आवारगी में, अपने अधूरेपन से
भले
ही रुला लें दर्द के आंसू
करना
है इस गुम-चुप अक्खड़-जिद्दी
कैंसर
को हिलाने-मिटाने की कोशिश
बहुत
रोशनी इकट्ठी करनी होगी
पर
मीनारों में नहीं,
बनाने
होंगे उस रोशनी के पुल
जो
जोड़ते हों हर किरण को, हर तार को
उगानी
हो भले ही हथेली पर दूब
या
पूछना पड़े रात से
सुबह
का पता
सूरज
को जगाना होगा
लोगों
को जिलाना होगा
ताकि
जीता रहे सब कुछ
मरे
वह जो आतंक है, स्याह है
बे-ओर-छोर
है, बेलगाम है अब तक
6. अपने-अपने
हिस्से के जादू
मेरे
हिस्से बहुत से जादू आए हैं
साइकिल
सीखने के दौरान न गिरने से लेकर
कार
से कभी टक्कर न करने तक
खिड़कियों-रोशनदानों-ऊंची
चारदीवारियों से होकर
खपरैल
की काई-फिसलन भरी छतों पर कूद-फांद से लेकर
पकी
उम्र में हर छोटे पत्थर और असमतल रास्तों से ठोकरें खाकर लड़खड़ाने तक
कभी
चोट न लगना जादू था
ऑस्टियोपोरोसिस
से लेकर इस अनंत संक्रमण और रेडिएशन
से
भंगुर हड्डियों के चूर होने की हर आशंका तक
इस
ढांचे का संभले रहना जादू था
लगभग
शून्य प्रतिरोधक क्षमता के साथ
शरीर
में अगणित कीटाणुओं को पलते देखना
फिर
भी संगीन सुनना और इत्मीनान से सो पाना
जादू
ही तो था
भीतर
की दुर्घटनाओं से लगातार निबटते संभलते आशंकित होते
बाहरी
देह से परे हो जाना
लंबे
अवकाशों बाद भी
उसके
आवेगों को अपनी जगह सुरक्षित पड़ा पाना
देह
की सुघटनाओं की कमी के बावजूद
प्रेम
का लगातार गहराना फैलते जाना
जादू
नहीं तो और क्या है
अतल
दर्द में ऊब-डूब
और
उबरने की अनवरत प्रयास-यात्राओं के बीच
हंसी
के अमलिन प्रवाह का सतत बने रहना
यह
भी जादू है जो मेरे हिस्से आया है
कई
बार गुज़रना समय की अंधेरी सुरंगों से
सिर्फ
एक स्पर्श के भरोसे
और
हर बार रोशनी पा जाना
गाढ़े
दलदल में तैर कर
मीथेन
की जहरीली हवा में सांस लेकर भी
टिके
रहना
रोशनी
देख पाना
क्या
कहेंगे आप इसे
जादू
के सिवा!
किस्म-किस्म
की जांच रपटों के बीच से
ठोस
सपाट तथ्य उभर कर बाहर आता है आखिर
कि
चमत्कार नहीं हुआ करते
अक्सर
ऐसे हालात में
मैं
समझती हूं कि
चमत्कार
नहीं हुआ करते
पर
अपनी-अपनी जादुओं की दुनिया से गुज़रते हुए
समझते
हैं हम कि
जो
कुछ नहीं समझ पाते
घटनीय
की संभावना जो हम नहीं देख पाते
वह
सब वक्त की मुट्ठी में बंद
पड़ा
होता है अपनी बारी के इंतज़ार में
धीरे-धीरे
खुल रहा है
यह
जादू भी मेरे आगे
7. दर्द
दर्द
का कोई
वर्ग
नहीं होता
प्रजाति
नहीं होती
जाति
नहीं होती
दर्द,
बस दर्द होता है
एक-सा
स्वाद सबको देता है
सब
पर एक-सा असर करता है
चाहे
नज़ाकत से करे
या
पूरी शिद्दत से
कोई
फर्क नहीं करता
हाथ
या गहरे कहीं पीठ में
कसमसाते
दांत मरोड़ खाते पेट या धकधकाते दिल में
आंख
ही रोती है हर दर्द के लिए
सीना
ही हिलकता है हर दर्द के लिए
दर्द
उठता हो कहीं भी
साझा
होता है पूरे आकार में
चाहना
एक ही जगाता है सब में
कि
बस ढीले हो जाएं बेतरह खिंचे तंतु
बंधनहीन
हों मज्जा के गुच्छे
ढूंढता
है शरीर
आराम
की कोई मुद्रा
इत्मीनान
की एक मुद्रा
जीवन
दर्द की एक यात्रा है
सैकड़ों
दर्द के पड़ावों से गुजरते हैं हम
जैसे
पहाड़ों पर मील के पत्थर गिनते
पार
करते ऊपर उठते हैं हम
दर्द
की यह यात्रा
हर
एक की अपनी है
अकेली
है
कुव्वत
है, काबिलियत है, चाहत है
कहते
हैं, दर्द को दर्द से ही राहत है
याद
आता है तो रहता है
भटका
दो उसे, भुला दो उसे
उलझा
दो उसे दुनिया के किसी शगल में
वह
भोला रम जाता है उसी में
भुला
देता है वह मुझे, मैं उसे
मगर
फिर शाम होते-होते जहाज का पंछी
लौट
आता है अपने ठौर
ज्यादा
अधिकार के साथ
गहराता
है, अंधेरे के साथ अथाह सागर सा
तभी
कौंधता है एक मोती गुम होने से ठीक पहले
दर्द-रहित
मिलती है एक झपकी
सबसे
असावधान मुद्रा में
असतर्क,
समर्पण की स्थिति में
वह
छोटी झपकी
आंखें
खुलती हैं और
दर्द
से फिर एकाकार
सतर्कता
की एक और मुद्रा
राहत
पाने की एक और कोशिश
दर्द
की एक और मुद्रा
8.
संगीत
अचानक
कहीं कोई गमक सुनाई पड़ती है
और
लय बहती चली आती है पास
कानों
में बज उठती है तरंग
और
मन पूरा का पूरा उसमें घुल जाता है
एकाग्र
हो जाता है
धीरे-धीरे
और कुछ भी सुनाई नहीं देता
सिवाय
उस संगीत लहरी के
जो
सिर के ठीक ऊपर थिरक रही है
बंद
आंखें खुलना नहीं चाहतीं
जैसे
गहरी नींद हो
आस-पास
दुनिया है
चलती
है अपनी आवाजों के साथ
मगर
मैं तरंगित हूं इस लय के साथ
छंद
की तरह
जिसकी
धुन पर
सिर
अंगुलियां हाथ पैर
और
धीरे-धीरे पूरा वजूद
झूम
उठता है
बेखबर
अनजान
कि
दुनिया
अपनी
गति से चलती रहती है
बगल
से गुज़रती हुई
देखती
है अजीब नज़रों से
मैं
अनोखी बैठी भीड़ में
मुझे
अपनी लय, अपनी गति मिल गई
बाकी
सब कुछ ठहर सा गया
अस्पताल
के उस प्रतीक्षाकक्ष में
9.
चांदों के चेहरे
ज्यादातर
दिन में कभी-कभार रात में भी
अनेक
चांद विचरते हैं
यहां
से वहां
या
किसी प्रतीक्षाकक्ष में बैठे हुए धैर्य से
हर
चांद का एक अदद चेहरा है चिकना चमकता सा
बच्चा-बूढ़ा
स्त्री-पुरुष मोटा या पतला सा
चांद
छुपा है
टोपी
स्कार्फ गमछे या साड़ी के पल्लू से
कहीं
कोई उघड़ा हुआ भी है बिंदास बेफिकर
चांद
और उसके चेहरे का रंग
जैसे
अभी-अभी कोयले या सीधी आंच का भभका लगा हो
न
साबुन-पानी से साफ होता है न तेल-तारपीन से
हाथों
पैरों के नील प़ड़े नाखून
जैसे
हथौड़े से ठुकवा आए हों इत्मीनान से गिन-गिन कर
एक-एक
को बिना नागा बिना कोताही
अस्पताल
में
एक
से दिखते लोग
अलग-अलग
छिटके
कहीं
भी पहचाने जाते हैं
आसानी
से पकड़े जाते हैं
वही
चिकने चमकते चेहरे
उम्मीद
से रोशन सितारे आंखों में लिए
चांद
के टुकड़े
चांद
का उजास भले ही कभी कम हो जाए
भभकों
से या आग से
ये
तारे उसे बुझने नहीं देते
राह
दिखाते हैं आगे की
हर
स्कैन-रक्तजांच-रिपोर्ट से आगे
रजिस्ट्रेशन-रेडिएशन-जलन
से आगे
अनिश्चितता-खर्च-कीमोथेरेपी
से आगे
दर्द
की छांव में बैठे ये यात्री
कभी
मुस्कुराते अनजान सहयात्रियों से बातें करते
या
अपने में डूबे हुए
फिर
भी उत्सुक सब
अपने
आस-पास की गतिविधियों के लिए सचेत
शायद
कोई हलचल उनके लिए हो उनसे मुखातिब हो
जैसे
उनके नाम की पुकार उस बड़े से प्रतीक्षाकक्ष में
बारी
आते ही पिछले हर भाव का चोला उतार
वहीं
प्रतीक्षाकक्ष की कुर्सी पर छोड़
चलते
हैं सब उसी रोशनी में
पैरों
में स्प्रिंग लगाए
जैसे
कि अब हर मिनट की जल्दी उन्हें जल्द फारिग करेगी
अस्पताल
से और इलाज से
अस्पताल
और इलाज तक पहुंचने की देरी
भले
ही लंबी रही हो
10.
मेरे बालों में
उलझी मां
मां
बहुत याद आती है
सबसे
ज्यादा याद आता है
उनका
मेरे बाल संवार देना
रोज-ब-रोज
बिना
नागा
बहुत
छोटी थी मैं तब
बाल
छोटे रखने का शौक ठहरा
पर
मां!
खुद
चोटी गूंथती, रोज दो बार
घने,
लंबे, भारी बाल
कभी
उलझते कभी खिंचते
मैं
खीझती, झींकती, रोती
पर
सुलझने के बाद
चिकने
बालों पर कंघी का सरकना
आह! बड़ा आनंद आता
मां
की गोदी में बैठे-बैठे
जैसे
नैया पार लग गई
फिर
उन चिकने तेल सने बालों का चोटियों में गुंथना
लगता
पहाड़ की चोटी पर बस पहुंचने को ही हैं
रिबन
बंध जाने के बाद
मां
का पूरे सिर को चोटियों के आखिरी सिरे तक
सहलाना
थपकना
मानो
आशीर्वाद है,
बाल
अब कभी नहीं उलझेंगे
आशीर्वाद
काम करता था-
अगली
सुबह तक
किशोर
होने पर ज्यादा ताकत आ गई
बालों
में, शरीर में और बातों में
मां
की गोद छोटी, बाल कटवाने की मेरी जिद बड़ी
और
चोटियों की लंबाई मोटाई बड़ी
उलझन
बड़ी
कटवाने
दो इन्हें या खुद ही बना दो चोटियां
मुझसे
न हो सकेगा ये भारी काम
आधी
गोदी में आधी जमीन पर बैठी मैं
और
बालों की उलझन-सुलझन से निबटती मां
हर
दिन
साथ
बैठी मौसी से कहती आश्वस्त, मुस्कुराती संतोषी मां
बड़ी
हो गई फिर भी...
प्रेम
जताने का तरीका है लड़की का, हँ हँ
फिर
प्रेम जो सिर चढ़ा
बालों
से होता हुआ मां के हाथों को झुरझुरा गया
बालों
का सिरा मेरी आंख में चुभा, बह गया
मगर
प्रेम वहीं अटका रह गया
बालों
में, आंखों के कोरों में
बालों
का खिंचना मेरा, रोना-खीझना मां का
शादी
के बाद पहले सावन में
केवड़े
के पत्तों की वेणी चोटी के बीचो-बीच
मोगरे
का मोटा-सा गोल गजरा सिर पर
और
उसके बीचो-बीच
नगों-जड़ा
बड़ा सा स्वर्णफूल
मां
की शादी वाली नौ-गजी
मोरपंखी
धर्मावरम धूपछांव साड़ी
लांगदार
पहनावे की कौंध
अपनी
नजरों से नजर उतारती
मां
की आंखों का बादल
फिर
मैं और बड़ी हुई और
ऑस्टियोपोरोसिस
से मां की हड्डियां बूढ़ी
अबकी
जब मैं बैठी मां के पास
जानते
हुए कि नहीं बैठ पाऊंगी गोदी में अब कभी
मां
ने पसार दिया अपना आंचल
जमीन
पर
बोली-
बैठ मेरी गोदी में, चोटी बना दूं तेरी
और
बलाएं लेते मां के हाथ
सहलाते
रहे मेरे सिर और बालों को आखिरी सिरे तक
मैं
जानती हूं मां की गोदी कभी
छोटी
कमजोर नाकाफी नहीं हो सकती
हमेशा
खाली है मेरे बालों की उलझनों के लिए
कुछ
बरस और बीते
मेरे
लंबे बाल न रहे
और
कुछ समय बाद
मां
न रही
------------------------
* नोट- कैंसर के दवाओं से इलाज (कीमोथेरेपी) से बाल झड़ जाते हैं
-----------------------------------------------------
मैं अब खाली हो गया हूं.
बिल्कुल खाली – दिलीप मण्डल
मैं अब खाली हो गया हूं.
बिल्कुल खाली.
मैं अपनी सबसे प्रिय दोस्त के
लिए अब पानी नहीं उबालता. उसके साथ में बिथोवन की सिंफनी नहीं सुनता. मोजार्ट को
भी नहीं सुनाता. उसे ऑक्सीजन मास्क नहीं लगाता. उसे नेबुलाइज नहीं करता. उसे
नहलाता नहीं. उसके बालों में कंघी नहीं करता. उसे पॉल रॉबसन के ओल्ड मैन रिवर और
कर्ली हेडेड बेबी जैसे गाने नहीं सुनाता. गीता दत्त के गाने भी नहीं सुनाता. उसे
नित्य कर्म नहीं कराता. उसे कपड़े नहीं पहनाता. उसे ह्वील चेयर पर नहीं घुमाता.
उसे अपनी गोद में नहीं सुलाता. उसे हॉस्पीटल नहीं ले जाता. उसे हर घंटे कुछ खिलाने
या पिलाने की अक्सर असफल और कभी-कभी सफल होने वाली कोशिशें भी अब मैं नहीं करता.
उसकी खांसने की हर आवाज पर उठ बैठने की जरूरत अब नहीं रही. मैं अब उसका बल्ड
प्रेशर चेक नहीं करता. उसे पल्स ऑक्सीमीटर और थर्मामीटर लगाने की भी जरूरत नहीं
रही. मेरे पास अब कोई काम नहीं है. हर दिन नारियल पानी लाना नहीं है. फ्रेश जूस
बनाना नहीं है. उसके लिए हर दिन लिम्फाप्रेस मशीन लगाने की जरूरत भी खत्म हुई.
यह सब करने में और उसके के साथ
खड़े होने के लिए हमेशा जितने लोगों की जरूरत थी, उससे ज्यादा लोग मौजूद रहे. उसकी बहन
गीता राव, मेरी बहन कल्याणी माझी और उसकी भाभी पद्मा राव से
सीखना चाहिए कि ऐसे समय में अपने जीवन को कैसे किसी की जरूरत के मुताबिक ढाल लेना
चाहिए. इस लिस्ट में मेरे बेट अरिंदम को छोड़कर आम तौर पर सिर्फ औरतें क्यों हैं?
देश भर में फैली उसकी दोस्त मंडली ने इस मौके पर निजी प्राथमिकताओं
को कई बार पीछे रख दिया.
यह अनुराधा के बारे में है, जो हमेशा और हर
जगह, हर हाल में सिर्फ आर. अनुराधा थी. अनुराधा मंडल वह कभी
नहीं थी. ठीक उसी तरह जैसे मैं कभी आर. दिलीप नहीं था. फेसबुक पर पता नहीं किस
गलती या बेख्याली से यह अनुराधा मंडल नाम आ गया. अपनी स्वतंत्र सत्ता के लिए बला
की हद तक जिद्दी आर. अनुराधा को अनुराधा मंडल कहना अन्याय है. ऐसा मत कीजिए.
कहीं पढ़ा था कि कुछ मौत
चिड़िया के पंख की तरह हल्की होती है और कुछ मौत पहाड़ से भारी. अनुराधा की मृत्य
पर सामूहिक शोक का जो दृश्य लोदी रोड शवदाह गृह और अन्यत्र दिखा, उससे यह तो
स्पष्ट है कि अनुराधा ने हजारों लोगों के जीवन को सकारात्मक तरीके से छुआ था. वे
कई तरह के लोग थे. वे कैंसर के मरीज थे जिनकी काउंसलिंग अनुराधा ने की थी, कैंसर मरीजों के रिश्तेदार थे, अनुराधा के सहकर्मी
थे, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता थे, प्रोफेसर
थे, पत्रकार, डॉक्टर, अन्य प्रोफेशनल, पड़ोसी और रिश्तेदार थे. कुछ तो
वहां ऐसे भी थे, जो क्यों थे, इसकी
जानकारी मुझे नहीं है. लेकिन वे अनुराधा के लिए दुखी थे. किसी महानगर में किसी की
मौत को आप इस बात से भी आंक सकते हैं कि उससे कितने लोग दुखी हुए. यहां किसी के पास
दुखी होने के लिए फालतू का समय नहीं है.
अनुराधा बनना कोई बड़ी बात नहीं
है.
आप भी आर. अनुराधा हैं अगर आप
अपनी जानलेवा बीमारी को अपनी ताकत बना लें और अपने जीवन से लोगों को जीने का सलीका
बताएं. आप आर. अनुराधा हैं अगर आपको पता हो कि आपकी मौत के अब कुछ ही हफ्ते या
महीने बचे हैं और ऐसे समय में आप पीएचडी के लिए प्रपोजल लिखें और उसके रेफरेंस
जुटाने के लिए किताबें खरीदें और जेएनयू जाकर इंटरव्यू भी दे आएं. यह सब तब जबकि
आपको पता हो कि आपकी पीएचडी पूरी नहीं होगी. ऐसे समय में अगर आप अपना दूसरा एमए कर
लें, यूजीसी
नेट परीक्षा निकाल लें और किताबें लिख लें, तो आप आर.
अनुराधा हैं.
दरवाजे खड़ी निश्चित मौत से अगर
आप ऐसी भिड़ंत कर सकते हैं तो आप हैं आर. अनुराधा.
जब फेफड़ा जवाब दे रहा हो और तब
अगर आप कविताएं लिख रहें हैं तो आप बेशक आर. अनुराधा हैं. आप आर अनुराधा हैं अगर
कैंसर के एडवांस स्टेज में होते हुए भी आप प्रतिभाशाली आदिवासी लड़कियों को लैपटॉप
देने के लिए स्कॉलरशिप शुरू करते हैं और रांची जाकर बकायदा लैपटॉप बांट भी आते
हैं. अगर आप सुरेंद्र प्रताप सिंह रचना संचयन जैसी मुश्किल किताब लिखने के लिए
महीनों लाइब्रेरीज की धूल फांक सकते हैं तो आप आर अनुराधा हैं.
और हां, अगर आप कार
चलाकर मुंबई से दिल्ली दो दिन से कम समय में आ सकते हैं तो आप आर अनुराधा हैं.
थकती हुई हड्डियों के साथ अगर आप टेनिस खेलते हैं और स्वीमिंग करते हैं तो आप हैं
आर अनुराधा. अगर महिला पत्रकारों का करियर के बीच में नौकरी छोड़ देना आपकी
चिंताओं में हैं और यह आपके शोध का विषय है तो आप आर. अनुराधा हैं. अपना कष्ट भूल
कर अगर कैंसर मरीजों की मदद करने के लिए आप अस्पतालों में उनके साथ समय बिता सकते
हैं, उनको इलाज की उलझनों के बारे में समझा सकते हैं,
उन मरीजों के लिए ब्लॉग और फेसबुक पेज बना और चला सकते हैं तो आप
आर. अनुराधा हैं.
आप में से जो भी अनुराधा को
जानता है, उसके
लिए अनुराधा का अलग परिचय होगा. उसकी यादें आपके साथ होंगी. उन यादों की
सकारात्मकता से ऊर्जा लीजिए.
अलविदा मेरी सबसे प्रिय दोस्त, मेरी
मार्गदर्शक.
तुम्हारी मौत पहाड़ से भारी है.
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आर. अनुराधा का संक्षिप्त परिचय:
जन्मः 11 अक्टूबर 1967 को मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के बिलासपुर जिले में.
छह महीने की
उम्र में परिवार जबलपुर आ गया. तब से लेकर नौकरी के लिए दिल्ली आकर बसने तक का
जीवन वहीं बीता.
जीव विज्ञान
में डिग्री. जबलपुर के रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से पत्रकारिता और संचार में
उपाधि, समाजशास्त्र और जनसंचार में स्नातकोत्तर उपाधियां. दिल्ली
में बाल-पत्रिका चंपक में कुछ महीनों की उप-संपादकी के बाद टाइम्स प्रकाशन समूह
में सामाजिक पत्रकारिता में प्रशिक्षण और स्नातकोत्तर डिप्लोमा. हिंदी अखबार दैनिक
जागरण में कुछ महीने उप-संपादक. 1991 में भारतीय सूचना सेवा में प्रवेश. पत्र सूचना कार्यालय
में लंबा समय बिताने और डीडी न्यूज में समाचार संपादक की भूमिका निभाने के बाद
दिसंबर 2006 से प्रकाशन विभाग,
सूचना और प्रसारण मंत्रालय,
भारत सरकार में संपादक.
14 जून 2014 को नई दिल्ली में देहांत.
6 comments:
नमन!
नमन व श्रद्धाँजलि ।
Horrible.
अविस्मरणीय हैं अनुराधा और उनकी कविताएं । दिल को छू लेने वाली । नम नमन ।
A life well Lived Anuradha Mam. Salaam. and Dilip sir you are a true friend could sense from your post.Thanks for telling us the inspiring story. We cry on small small things this is an eye opener now we have to live not to complain. Thanks Lot .
_/\_ Prayers for such a Brave soul.. Hats Off to you Anuradha..
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