चरित्र
अभिनेता डेविड को कौन याद नहीं करता. फरिश्तों जैसी सूरत वाले इस नाटे कद के
अभिनेता ने सौ से अधिक फ़िल्में की थीं. इनका पूरा नाम था डेविड अब्राहम चेऊलकर.
यहूदी मूल के डेविड का जन्म १९०९ में हुआ था जबकि दिसम्बर २८, १९८१ को उनका देहांत
हुआ.
उनका
यह संस्मरणात्मक इंटरव्यू १९५६ में शाया हुआ था.
कबाड़खाने
के पाठकों के लिए विशेष-
यह
ख़याल कि मैं भारतीय फिल्मों में पिछले बीस सालों से अभिनय कर रहा हूँ ही मुझे
घबराहट से भर देता है – करीब करीब! मेरी हथेली मेरे गंजे सिर और बचे खुचे बालों को
हौले से सहलाती है, और मुझे बूढ़े होने का अहसास होने लगता है. ईमानदारी से कहूं तो
मैं इस बात को लम्बे समय से जानता हूँ और इसने मुझे ज़रा भी परेशान नहीं किया है.
मैं कोई डोरियन ग्रे नहीं हूँ और मनोरंजन की दुनिया में, ग्रीज़-पेन्ट और पाउडर की
दुनिया में, भ्रम और मेक-बिलीव की दुनिया में मैंने जो बीस साल बिताये वे बेहद
शानदार थे. कहाँ से शुरू करून? हमें १९३० में लौटना होगा. अगस्त का महीना था जब एक
नाटा गठीला नौजवान प्रसन्न होकर बंबई विश्वविद्यालय की सीढियां उतर रहा था और
पार्चमेंट का एक चमकीला टुकड़ा उसके हाथों में था. उसने अभी अभी विश्वविद्यालय से
बैचलर ऑफ़ आर्ट्स की डिग्री हासिल की थी (फकत पासिंग मार्क्स से लेकिन उसका कोई
मतलब नहीं था.)
यह
युवक अरमानों और उम्मीद से भरा हुआ था. कॉलेज के अपने चार सालों में उसने विभिन्न
गतिविधियों से अपने आप को मुक्त रखा था और उसके सारे सहपाठी और प्रोफ़ेसर मानते थे
कि उसका भविष्य बहुत उजला है. दुनिया किसी गेंद की मानिंद उसके क़दमों के नीचे थी!
उसे ज़रा भी भान नहीं था कि भविष्य में उसके लिए क्या है.
अपनी
डिग्री लैस वह नौजवान नौकरी की तलाश में निकला जिसने उसे धन और ख्याति के रास्ते
पर ले जाना था, पर उसने पाया कि उसकी ज़रुरत किसी को थी ही नहीं. ऐसा लगता था कि
उसके और उस जैसे कईयों के लिए कोई जगह थी ही नहीं, वे जो काम करने को बेचैन थे मगर
कहीं कोई रास्ता खुला हुआ न था. दिसंबर १९३६ तक रोज़गार की यह उबाऊ और थका देने
वाली जद्दोजहद चलती रही.
यह
नौजवान अब भी उम्मीदभरा तो था पर उसमें वैसा आत्मविश्वास नहीं रह गया था. वह अच्छे
से कुंड हो रहा था लेकिन अगर उसे करतब करना अच्छा नहीं लगता होता तो वह स्नायुवीय
विनाश का शिकार हो गया होता. गैरपेशेवर रंगमंच ने उसे यदा कदा ऐसे मौके उपलब्ध
कराये जहां वह अपने कलात्मक आवेग को अभिव्यक्त कर सकता था. एक उजली सुबह उसने
फैसला किया कि वह अपनी सबसे पसंदीदा गतिविधि में करियर तलाशेगा.
उसने
भारतीय फिल्मों में पेशेवर अभिनेता बनने का निर्णय ले लिया. एक नज़दीकी दोस्त ने
उसे एक निर्माता-निर्देशक से मिलवाया और १५ जनवरी १९३७ को उसे एक फिल्म में चरित्र
अभिनेता के रोल के लिए चुने जाने का अपॉइंटमेंट लैटर मिल गया. वह युवक मैं था –
यानी डेविड. मुझे उम्मीद है आप इस बात को जानते थे. उस नज़दीकी दोस्त ने मुझे
महारथी चरित्र अभिनेता श्री नायम्पल्ली से मिलवाया था और जिन निर्माता-निर्देशक ने मुझे पहला काम दिया वे थे
जनाब एम. भवानी, जो भारत सरकार के फिल्म्स डिवीज़न के मुख्य निर्माता रहे थे पर उन
दिनों स्वतंत्र रूप से फिल्म निर्माण में लगे हुए थे. ‘जैम्बो’ मेरी पहली पिक्चर
थी.
उन
दिनों मैं एरोल फ्लिन की स्टाइल की उम्दा तरीके से छांटी हुई मूंछें रखा करता था. लेकिन
फिल्म में मुझे सफ़ेद दाढी और बाल वाले एक बूढ़े का किरदार करना था. सो न चाहते हुए
भी मैंने अपनी फ्लिन-लाइन को अलविदा कही और स्टूडियो में एक बुज़ुर्ग प्रोफ़ेसर का
रूप धरे क्लीन-शेव के साथ पहुंचा. बीस सालों बाद मैं आज भी क्लीन-शेव्ड हूँ और जब
मैं अपने बैंक बैलेंस को देखता हूँ तो पाता हूँ कि वह बेचारा भी क्लीन-शेव्ड है –
लेकिन वो कहानी दूसरी है.
१९३७
से आज तक समय जैसे भागता रहा है और इस दौरान मेरे साथ बहुत कुछ घटा है. कुछ अच्छी
चीज़ें हुईं, कुछ उतनी अच्छी नहीं लेकिन अपने पेशे से मेरी मोहब्बत और वफ़ा ज़रा भी
कम नहीं हुई. मैं समझता हूँ यह पेशा इस कदर आकर्षक, उत्तेजक और खुशी देने वाला है.
फिल्म
स्टूडियो दुनिया के सबसे अच्छे विश्विद्यालयों में एक होता है.इसमें आपको अनुभव की
ऐसी अनंत विविधता मिलती है, इतना सारा सोचने को मिलता है, और मानव के चरित्र का
अध्ययन करने के इतने मौके मिलते हैं कि आपको अहसास होता है कि जितनी देर आप वहां
रहते हैं ओ वहाँ मिलने वाला हर आदमी आपका परामर्शदाता होता है और हर औरत आपकी
शिक्षिका.
भारतीय
फिल्म उद्योग के अपने अभिनय करियर में मैं और मेरे साथियों को लगातार बढ़ोत्तरी के
मौके मिले हैं और इसने हमें देश विदेश में ख्याति दिलाई है जो दिन-ब-दिन और फैलती
जा रही है.
व्यक्तिगत
रूप से कुछ भी रोमांचक चीज़ मेरे साथ नहीं घटी. मैंने इंडस्ट्री के प्रति एक ख़ास
तरीके का अनासक्त रवैया अपनाए रखा है. मैं अपने पूरे श्रम और चेतना से उस काम को
करने की कोशिश करता हूँ जो मुझे करना है - स्क्रीन पर जो भी मुझे देखे वह निराश न हो मेरे
काम से. बस.
१९३७
से १९४० का समय मेरे लिए सबसे रोचक था क्योंकि उन दिनों, मुहाविरे में कहूं, तो
मेरे दांत निकल रहे थे. मुझे प्रशिक्षित करने वाले मेरे पहले निर्देशक श्री भवानी
खासे सख्त आदमी थे. उनके साथ काम करते समय आपको हर समय चौकस रहना होता था. आपने
ध्यान रखना होता था कि आप ऊंघते हुए न पकड़ लिए जाएं. वह जागे रहने का समय था –
अध्ययन और एकाग्रता का समय, कम पैसे और ढेर काम का समय.
१९३९
के अंतिम महीनों और १९४० की शुरुआत में, मैं एक सहायक निर्देशक, प्रोडक्शन मैनेजर,
क्लैपर बॉय, कंटिन्युटी क्लर्क, टेलीफोन ऑपरेटर और अभिनेता यानी सब कुछ था. काम
मुश्किल होता था पर बहुत रोमांचक. मैं फिल्मों के कई पहलुओं को सीख रहा था अलबत्ता
तनख्वाह मुझे एक ही आदमी की मिलती थी. उन दिनों यह बात सुकून की ज़रूर थी कि
तनख्वाह समय पर और नियमित मिलती थी. वे अच्छे दिन थे, भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के ईमानदारी
और शराफत के दिन.
फिर
एक दिन आया – 1 फरवरी १९४० – जब मुझे विनम्रतापूर्वक बताया गया कि अब मेरी सेवाओं
की ज़रुरत नहीं है. मैं दुबारा सड़क पर था. मैं अलबत्ता फिल्म अभिनेता बनने को अड़ा
हुआ था. मुझे एक और मूवी कम्पनी मिली जहाँ मैंने कम पैसों पर काम करना मंज़ूर कर
लिया. यह बेहतर था क्योंकि मुझे केवल अभिनेता का काम करना होता था.
यह
नौकरी भी ज़्यादा नहीं चली. और कई प्रयासों के बाद मजबूर होकर मुझे क़ानून की अपनी पढ़ाई
फिर से शुरू करनी पड़ी. मैं बताना भूल गया था कि १९३० से १९३७ तक के बेरोजगारी
केदिनों में मैंने गवर्नमेंट लॉ कालेज ज्वाइन कर लिया था, जैसा तकरीबन हर पढ़ा-लिखा
बेरोजगार किया करता था – और आज भी करता है. मैंने एलएलबी परीक्षा का पहला पर्चा
पास कर लिया था और फाइनल पर्चे के लिए मुझे थोड़ी छूट मिल गयी थी. अब १९४० में
मैंने बचे हुए पर्चे दिए और पास हो गया – ज़ाहिर है इस दफ़ा भी पासिंग मार्क्स से.
अब
मेरे नाम के आगे बी.ए., एलएलबी लिखा जा सकता था. विजिटिंग कार्ड पर देखने में ये
अच्छा लगता था पर कानूनी पेशे में इनसे मुझे किसी तरह की मदद नहीं मिली.
मैं
वापस स्क्रीन की दुनिया में लौट आया. उस समय भारतीय फिल्म इंडस्ट्री बहुत भीषण संकट
से जूझ रही थी. दूसरे विश्वयुद्ध ने उसे दुनिया की एनी फिल्म इंडस्ट्रीज़ की तरह
अपाहिज बना छोड़ा था. कच्चा माल मिलना लगातार मुश्किल होता जा रहा था. हम सब के
दिमाग में एक ही सवाल घूमता रहता था – क्या इंडस्ट्री बाख सकेगी? किसी तरह वह बच
गयी और जैसा कहते हैं “द शो वेंट ऑन” लेकिन इस बार नई प्रजाति की शोमैन आ चुके थे.
बड़ी
मात्रा में काला पैसा इंडस्ट्री में बहने लगा और ज़ाहिर है इसके साथ कई बुराइयां भी
आईं. फ्रीलांसिंग शुरू हो गयी. कलाकरों की बहुत मांग रहती थी और उनके दाम खूब बढ़
रहे थे. इस के साथ साथ मोशन पिक्चर का स्तर लगातार गिरता गया जो अब तक जारी है. वह
१९४० के दशक की शुरुआत के स्तर पर आज तक नहीं पहुँच सका है. पिक्चर की बम्पर
फासलें कटीं लेकिन थियेटरों की संख्या बहुत काम थी. यहाँ भी दाम बढे और आख़िरी हिसाब
में घाटा निर्माता का ही होता था.
युद्ध
समाप्त हो गया पर बुराई बची रही. १९४७ में भारत आज़ाद हुआ ताकि यहीं के लोग सता पर
काबिज़ हों पर फिल्म इंडस्ट्री को पाकिस्तान बनने से बड़ा नुक्सान उठाना पड़ा. एक के
बाद एक दिक्कतें आईं और फिल्म इंडस्ट्री सिर्फ ऑक्सीजन के सहारे जी रही थी. संकट
पूरी तरह अभी टला न था.
बीस
सालों में कई नए स्टूडियो खुले तो कई पुराने बंद भी हुए. यह पुराने के बदले नए को
लाने की कहानी थी. कई सारे फिल्म-शिष्टमंडल भारत से बाहर गए तो कई यहाँ आये भी.
इन्हें गुडविल मिशन कहा गया. इनका कोई ठोस परिणाम तो देखने को नहीं आया अलबत्ता
उम्मीद के लिए हमेशा जगह रहती है.
बंबई
अब भी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का बैरोमीटर है, जिसपर हालांकि क्रमवार अलग अलग
क्षेत्रों का सिक्का चलता रहा है. एक दौर में महाराष्ट्र सबसे आगे थे, फिर न्यू बरास्ता
थियेटर्स स्टूडियो बंगाल सबसे अव्वल रहा जिसने भारतीय जनमानस को बंगाल के साहित्य
और संगीत से परिचित कराया. अपने बीहड़ ह्यूमर और लोकसंगीत के कारण थोड़े समय को
पंजाब इस भूमिका में आया.इसके लिए दलसुख पंचोली ज़िम्मेदार थे. विभाजन के बाद पंजाब
पृष्ठभूमि में चला गया और आज अपने विराट स्टूडियोज के साथ मद्रास का राज है और
विशाल हिन्दी प्रोडक्शन हाउसेज का. लेकिन देश की फिल्मों का दो तिहाई पैदा करने के
कारण बंबई आज भी देश की फिल्म-कैपिटल है.
इस
इंडस्ट्री का करियर बहुत ऊबड़खाबड़ रहा है पर आमतौर पर इसकी दिशा सुधार की तरफ है.
अभी कुछ समय तक इस सुधार को बमुश्किल महसूस किया जा सकता था पर आज यथार्थ और हमारे
देश की संस्कृति पर बन रही फ़िल्में इसकी धमक सुनाती हैं जब पहली की तरह विदेशी
फिल्मों की कार्बन कॉपी बननी बंद हो गयी हैं.
मैंने
स्त्री-पुरुष दोनों ही में एक से एक प्रतिभाओं के साथ काम किया है. साथियों और
सह-कलाकारों के रूप में वे बेहतरीन रहे हैं. भगवान उन्हें आशीष दे और मेरी कामना
है कि वे भारत को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म संसार के नक़्शे पर जगह दिला सकें.
जब
मैं मुड़कर अपने करियर को देखता हूँ तो मुझे कार्डिनल वोलसे के उन शब्दों की याद
आती है जो मेरी अपनी भावना को भी ध्वनी देते हैं – “जिस शिद्दत से मैंने भारतीय
फिल्म प्रोड्यूसरों के साथ काम किया था, अगर वैसे ही मैंने और काम किये होते तो इस
बुढापे में मैं कंगाल न होता.”
मैं
आपको यकीन दिलाना चाहता हूँ कि बावजूद तमाम मोहभंगों और निराशाओं के मुझे अपने
पेशे से अब भी प्यार है और तमान कलाकारों, स्टेज और स्क्रीन में विश्वास करता हुआ
मैं कहता हूँ “देयर इज़ नो बिज़नेस लाइक शो बिज़नेस.”
(मूल अंग्रेज़ी के लिए सिनेप्लॉट डॉट कॉम का आभार.)
1 comment:
इस पोस्ट के लिए शुक्रिया.....डेविड को याद करना एक शानदार अतीत को याद करना है.....
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