Wednesday, August 20, 2014

एक रीपोस्ट - नौटंकी वाली ग़ुलाब बाई पर


मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी से सम्बन्धित पिछली पोस्ट की निरन्तरता में आगे जोड़ना चाहूंगा कि अपने ज़माने को बड़े कलाकारों को याद करते हुए मास्टर साहब अक्सर गुलाब बाई का ज़िक्र किया करते थे. मास्टर साहब को इस बात की टीस थी कि मौजूदा ज़माने की तड़क-भड़क और इलैक्टोनिक संगीत के शोर में नौटंकी के क्षेत्र में गुलाब बाई के अविस्मरणीय योगदान को लोग भूल गए हैं. 

मेरे लिए गुलाब बाई के बारे में कुछ भी जानकारी तब हासिल कर पाना भूसे के ढेर में ऑलपिन खोजने जैसा था. तब न इन्टरनेट इस कदर प्रचलन में था और दिल्ली-बम्बई के कला-संस्कृति के गुप्त ठीहों पर हम जैसे स्मॉल-टाउन लौंडे-मौंडों को कोई घास डालता था.

पिछले विश्व पुस्तक मेले में मैंने पेंग्विन के स्टॉल से काफ़ी किताबें खरीदी थीं. उनमें से कुछ को पढ़ने का समय चाह कर भी नहीं निकल सका था. इधर एक सप्ताह पहले तीन-सवा तीन सौ पन्नों की जो किताब समाप्त की उसे पढ़ना जैसे एक अलग ग्रह पर किसी अलग ही कालखण्ड के किसी विस्मृत घटनाक्रम से रू-ब-रू होना था. 

'गुलाब बाई: द क्वीन ऑव नौटंकी थियेटर' नाम की यह किताब उन्हीं गुलाब बाई का जीवनवृत्त है जिनके बारे में मास्टर फ़िदा हुसैन बताया करते थे. दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा की लिखी यह किताब परम्पराओं के संरक्षण के क्षेत्र में किया गया एक बेहद महत्वपूर्ण कार्य है. 

उत्तर प्रदेश के फ़र्रूखा़बाद ज़िले की रहने वाली गुलाब बाई ने सन १९३१ में अपने नौटंकी करियर का आगाज़ किया फ़कत बारह की आयु में. नौटंकी में उस से पहले महिलाओं के रोल पुरुष निभाया करते थे. इस लिहाज़ से गुलाब बाई को नौटंकी की पहली महिला कलाकार होने का गौरव प्राप्त है. वे अच्छी अभिनेत्री के साथ साथ उम्दा गायिका भी थीं. गायन-संगीत का ज्ञान नौटंकी कलाकारों के लिए ज़रूरी गुण माना जाता था. 'लैला मजनूं' में लैला, 'राजा हरिश्चन्द्र' में तारामती, 'बहादुर लड़की' में फ़रीदा और 'शीरीं फ़रहाद' में शीरीं जैसे रोल निभाने वाली गुलाब बाई सन १९४० तक आते आते अपनी लोकप्रियता के चरम पर पहुंच चुकी थीं. १९४० के दशक के आते आते गुलाब बाई की तनख़्वाह सवा दो हज़ार रुपये प्रति माह के आसपास थी, जो उस ज़माने के हिसाब से अकल्पनीय रूप से बड़ी रकम थी. उन्होंने इस रकम से अपने परिवार को सहारा दिया, गांव में एक आलीशान हवेली बनवाई और फूलमती देवी का मन्दिर स्थापित किया. १९५० के दशक के मध्य में उन्होंने अपनी कम्पनी- 'गुलाब थियेट्रिकल कम्पनी' - का निर्माण किया. 

नौटंकी की लोकप्रियता का ये आलम था कि रात १० बजे से शुरू होने वाले शोज़ सुबह ४-५ बजे तक चला करते और जवान-बूढ़े-बच्चे तम्बू के भीतर ठुंसे रहते. जहां नौटंकी होती थी वहां एक अनऑफ़ीशियल मेला जुटा रहता और अमूमन महीने भर तक चलता. कम्पनी हर रात नया खेल दिखाया करती.

... ख़ैर छोड़िये, इन तफ़सीलात के बारे में जानना हो तो किताब खोज कर पढ़ें. मैं कोशिश में हूं कि किसी तरह इस किताब के अनुवाद के अधिकार हासिल कर लूं और जल्द से जल्द हिन्दी के पाठकों के सम्मुख इसे रख सकूं. यह मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी के लिए मेरी व्यक्तिगत श्रद्धांजलि भी होगी और गुलाब बाई के जीवन वृत्त के माध्यम से लोग क्रूरतापूर्वक बिसरा दी गई एक विधा का इतिहास हिन्दी में पढ़ सकेंगे.
आमीन!

१९६६ में अपनी मृत्यु से पहले अपने आख़िरी दिनों में गुलाब बाई इस बात से बेहद आहत थीं कि फ़िल्मों के चलन ने लोगों के भीतर से नौटंकी के प्रति सारा अनुराग ख़त्म कर दिया था.

इन्हीं गुलाब बाई की आवाज़ में सुनिये राग भीमपलासी का एक टुकड़ा.




(किताब की डिटेल्स: 'Gulab Bai - The Queen Of Nautanki Theatre', लेखिका: दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा, Penguin India, 2006)

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