(जारी)
अन्तरा
(
एम. के लिए )
-नीलाभ
६.
मैंने
तुम्हें प्यार किया जैसे किसी को किसी ने पहले कभी
प्यार
नहीं किया, मैं ने तुम्हें प्यार किया जैसे
कोई किसी को
प्यार
कर सकता है, लेकिन मैं तुम से कभी
यह
स्वीकार नहीं करूंगा, क़रा कूज़, मैं ने तुम्हें ऐसे प्यार किया है
जैसे
तुम इस दुनिया में क़दम रखने वाली
पहली
औरत हो,
मैं
ने तुम्हें गढ़ा मौत से अपना प्रतिशोध लेने के लिए,
तुम
सदानीरा हो मेरी, मेरे अन्तस्तल में
सृष्टि
के आरम्भ से बहती हुई,
सहती
हुई मेरी सारी उछृंखलताएं,
मिटाती
हुईं मेरे तमाम गुनाहों को,
सहज
सौंपतीं मुझे अपना विश्वास औत अपनी व्यथाएं,
७.
मैं
ने बेवफ़ाई की है तुम से ठीक उसी तरह जैसे करते हैं
प्रेमी
एक दूसरे के साथ,
तुम्हारा
आहत चेहरा कचोटता है मुझे नींद के निरापद लोक में,
आत्म-ग्लानि
के आत्म-हन्ता शोक में,
क्योंकि
पराजय तो है ही, मनु, एक-दूसरे
को नष्ट करना....
मैं
किसी अशुभ अमंगल धूमकेतु की तरह उदित हुआ था
तुम्हारे
नभ में,
जलता और जलाता, अपनी अग्नियों में
डूबता-उतराता,
भरता
आशंकाएं और भय प्रियजनों के मन में,
जाने
किस परिक्रमा-पथ पर बढ़ा जाता अपनी बेलगाम
गति
में,
छोड़्ता हुआ अपने पीछे
चिनगारियां
और ज्वालाएं....
८.
मैं
ने सोचा था मैं चला जाऊंगा किसी दूसरे देश को,
जहां
होंगे दूसरे क्षितिज, दूसरी सीमाएं,
दूसरे लोग,
मैं
ने सोचा था मैं चला जाऊंगा
दूसरी
सुबहों,
शामों, वनस्पतियों, नदियों
और कबीलों के बीच,
मैंने
सोचा था मैं चला जाऊंगा सप्तर्षियों के आगे,
मृगशिरा
के पार,
ऐल्फ़ा सेन्टौरी और विशाखा के परे,
किसी
दूसरी मन्दाकिनी के छोर पर,
किसी
दूसरी नीहारिका में आकार ले रहे किसी दूसरे सौर मण्डल में
रचूंगा
नयी सृष्टि,
नयी
वनस्पतियां, प्रजातियां, पर्वत, नदियां, मैंने सोचा था
रच
दूंगा नये दिन-रात, नयी ऋतुएं, नयी दिशाएं, पवन, नये सागर
और
नये पाप,
अभिशाप, नये शमन और नयी क्षमाएं
और
मैंने सोचा था अन्तरिक्ष के उस छोर पर
अपनी
रची हुई सृष्टि के बीच मैं
अपनी
अभिशप्त घुमक्कड़ी से अवकाश ले कर
प्रतीक्षा
करूंगा तुम्हारी, अन्तहीन
कल्पान्तरों तक....
९.
अपने
संसार से कलह, मनु , मेरा
शौक़ नहीं मजबूरी थी,
मेरी
वहशत और मेरे इश्क़ के बीच,
मेरे
फ़र्ज़ और मेरी चाहत के बीच
नक्षत्रों
जितनी दूरी थी; मैं घिरा हुआ था
श्रम
के सफ़ेद्पोश तस्करों से, ताक़त के बेरहम मस्ख़रों
से,
मैंने
रचा था यह संसार
अपनी
अनुकृति में, तुम चाहो तो इसे प्रतिसंसार कह
लो,
एक
दर्पण बनाया था मैं ने, जो दिखाये मुझे
मेरी छवियां
हू-ब-हू
जैसी वे नज़र आती हैं दूसरों को,
कलंकों
और कालिमा के साथ,
नश्वर
था यह संसार उतना ही जितना नश्वर था मैं
बार-बार
सहता काल के प्रहार मेरा रचा संसार
सहता
रहा मैं भी बार-बार प्रहार समय के,
मरता
हुआ करोड़ों-अरबों मौतें
हर
पत्ती जो पीली हो कर गिरी,
हर
शरीर जो झुर्रियों से लद कर धराशायी हुआ
हर
प्राण जो विलीन हुआ वायु में
मेरा
ही प्रतिरूप था
लेता
हुआ करोड़ों-अरबों बार करोड़ों-अरबों रूपों में जन्म....
१०.
कठिन
थी यह डगर जिस पर वर्षों पहले मैंने
शुरू
किया था सफ़र साधारण को असाधारण में
बदल
देने का संकल्प ले कर
सोचा
था मैंने जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे
छंटती
चली जायेगी
राह
पर तारिका धूलि की तरह बिख्ररी हुई धुन्ध,
सूर्य
की किरणों पर तैरते धूल के कणों की तरह
हलके
हो जायेंगे शब्द,
जब
हम कहेंगे प्रेम, असंख्य दरवाज़े खुल
जायेंगे
मैं
खोलूंगा किवाड़ और उषा दाख़िल होगी सुनहरे पैरों पर
तुम्हारी
तरह....
1 comment:
बहुत सुंदर रचनाऐं ।
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