(
एम. के लिए )
-नीलाभ
१.
कहां
थीं तुम जब मैं खोजता रहा तुम्हें, ग्रीष्म
की निचाट दुपहरी में
बवण्डर
की तरह झकझोरता रहा पेड़ों को बदहवासी में,
पूछता
पत्तियों से तुम्हारा पता ?
कहां
थीं तुम जब भटकता रहा मैं शहर के पुराने खंडहरों में,
इस
नाशुक्रे नगर के प्राचीन स्मारकों में,
अपनी
विक्षुब्ध हूह से गुंजाता उनकी पथरीली चुप्पी,
सदियों
से तलब करता जवाब उनकी ख़ामोशी का ?
कहां
थीं तुम जब मैं पटकता रहा अपना उद्विग्न मस्तक
सागर
की उन्मत्त लहरों पर, रौंदता रहा तट का
सिकता विस्तार,
बार-बार,
हार-हार, तुम्हारी तलाश में ?
२.
मैं
अकेला था किसी उक़ाब की तरह तरारे भरता नभ के
खुले
विस्तार में, हवा से होड़ करता, अपने डैनों में समेटता
नक्षत्रों
से भरा ब्रह्माण्ड,
नीहारिकाओं
और मन्दाकिनियों में कौंधता हुआ,
छोड़ता
हुआ अपनी उपस्थिति के निशान सुदूर ग्रहों से घिरे तारामण्डलों में,
मैं
अकेला था आकाशगंगा के छोर पर चमकते अन्तरतारकीय
प्रकाश
की तरह,
भोर के आकाश की तरह, उत्तरी ध्रुव के उजास की
तरह,
मैं
अकेला था अजानी यात्राओं पर निकले नाविक की तरह,
पतवार
थामे,
सितारों से करता दिशा का सन्धान,
हेरता
अमानचित्रित द्वीप, नक्शे में दर्ज
करने से छूट गये तट,
वनराजियां,
पर्वत और निर्झर,
लौटता
फिर उन्हीं उन्मत्त लहरों बीच, उन्हीं रक्तिम
सन्ध्याओं में,
अगोरता
तुम्हें प्रलयंकर झंझाओं में, दिशाओं की
वल्गाएं थामे
बढा़
जाता सितारों के मद्धम प्रकाश में, अडिग,
अक्लान्त....
३.
क्यों
लिये फिर रहा था मैं बीते हुए वर्षों के घाव और अभाव,
क्यों
भयभीत था,
लपेटे अपने अकेलेपन को कफ़न की तरह
अपने
गिर्द,
अभिमान में पूछने से हिचकता
गुज़रती
हुई चिड़िया से उसका नाम,
चाहता
सिर्फ़ गुमनाम-सी सीधी-सरल ज़िन्दगी,
अन्तहीन
आपाधापी से मुक्त,
शून्य
निगाहों के निःसंग प्रहार झेलता हुआ,
वारुणी
के अंक को सौंपता हुआ अपने सभी गत-आगत वर्ष,
अपना
सारा आहत दर्प,
खे
रहे थे मदहोश नाविक नाव मेरी, थी क्षितिज पर
किस
अदेखी भूमि की छवि ? आह, रात आती थी
समेटे
सभी दुख अपने, व्यथाएं अनकही,
दबाये
पांव,
आहिस्ता, कि जैसे हृदय में मेरे
बिना
आयास आते थे सभी भूले हुए ग़म मेरे....
४.
तभी
जब वक़्त की रेत चूर-चूर हो कर बिखर रही थी ब्रहमाण्ड में,
झर
रही थी सुदूर आकाशगंगा के निर्जन मरुस्थल में
तारिकाधूलि,
जब
तुम्हारी स्मृति रह गयी थी कण्ठ में अटकी हुई
सांस
की तरह,
फांस की तरह
चुभ
रही थी जाने कौन-सी अनकही बात दिल में,
तब
आयीं तुम आहिस्ता-आहिस्ता अपने केश बिखराये,
अपनी
चमकतीं शफ़्फ़ाफ़ आंखों में प्रलय की झंझाएं समेटे,
तुम
आयीं ,
अकेली, रहःरहस्य में लिपटी हुई वन की
कुज्झटिका
सरीखी,
भीड़-भरे सेतु पर मौन को शाल की तरह लपेटे;
तुम्हारी
आंखों में अनगिनत वर्षाओं की परछाइयां थीं
तुम
अकेली थीं, जैसे ख़ामोशी अकेली होती है,
आवाज़ों के कोहराम में
सच्चाई
अकेली होती है जब कोई सबूत नहीं होता,
जैसे
अकेली होती है स्त्री धोखा दिये जाने के बाद
५.
मैं
तुम्हारी आंखों की गहराई में बहती व्यथा में उतरा हूं,
उतरा हूं तुम में
जैसे
उतरता है कोई मछुआरा नदी में,
महसूस
की है मैं ने वो आंच जिस में झुलसी हो तुम,
लिये
फिरती हो अब भी अपने अन्दर जिसे धुंधुआते अंगारों की तरह,
हरहराते
तूफ़ान की तरह,
सागर
की गहराइयों में डूबे ध्वंसावशेष की तरह,
निराशा
के श्लेष की तरह, ज़लज़लों की धमक की
तरह,
स्त्री
के आंसुओं की चमक की तरह
सुख
सबके एक-से होते हैं मनु, दुख ही अलग-अलग रूप
धारे
आते हैं और हमें हैरान छोड़ जाते हैं,
तोड़
भी जाते हैं कभी-कभी कमज़ोर क्षणों में,
यही
कहा था मेरे साईं ने
तुम्हारा
ही ज़िक्र करते हुए पिछ्ली से पिछली सदी में....
[जारी]
(नीलाभ की इन प्रेम कविताओं की सीरीज उनके ब्लॉग नीलाभ का मोर्चा से साभार ली जा रही है.)
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