Wednesday, October 29, 2014

प्राइवेट स्कूल का आदर्श एक कंसल्टेंट एजेंसी की तरह काम करने का होता है

शिक्षा और स्कूल के हालात पर कल (28 अक्टूबर) के''हिंदू' में छपे शिक्षाविद रोहित धनकर के एक आलेख का हिंदी अनुवाद आप सब के मनन के लिए मित्र और सनातन कबाड़ी आशुतोष उपाध्याय ने उपलब्ध करवाया है. आशुतोष का अनूदित एक और लेख हाल ही में आप इस ठिकाने पर पढ़ चुके हैं. शुक्रिया आशुतोष! 

रोहित धनकर

गंभीर खतरे में स्कूल

रोहित धनकर 

राजस्थान सरकार ने हाल ही में 17,000 से ज्यादा स्कूलों को बंद करने का फैसला किया. इसी तरह महाराष्ट्र ने 14,000 और उड़ीसा ने 195 स्कूलों को बच्चों के बेहद कम नामांकन की बिना पर बंद करने का फरमान जारी किया. ये कोई इक्का-दुक्का उदाहरण नहीं हैं, बल्कि सार्वजनिक (सरकारी) शिक्षा व्यवस्था के पतन के स्पष्ट संकेत हैं.
उधर, प्राइवेट स्कूल व्यवस्था के दुर्गुणों को समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी होगा. हाल ही में, एक अभिभावक ने अपने बेटे के स्कूल के अध्यापकों के उस रुख के बाबत बताया जो उसकी कमजोरी को लेकर था. विज्ञान, समाज विज्ञान और अंग्रेजी के अध्यापकों ने पिता से बच्चे की कमजोरियों को दुरुस्त करने की मांग की! हैरान-परेशान पिता के सवाल थे, "बच्चे के कक्षाकार्य पूरा न करने या स्कूल में दुर्व्यवहार करने आदि से निपटने की जिम्मेदारी क्या अध्यापक की नहीं है? अगर मेरा बच्चा घर में शैतानी करता है या हमारे कहने पर पढ़ता-लिखता नहीं है तो अभिभावक के बतौर उसे समझाना-बुझाना हमारी जिम्मेदारी है. इसके लिए हम अध्यापक से शिकायत करने नहीं जाते. मगर आजकल अध्यापक हर बात पर माता-पिता से क्यों शिकायत करते हैं?" पिता के मुताबिक, "बच्चे की पढ़ाई-लिखाई के लिए अध्यापक को जिम्मेदार होना चाहिए, जिस प्रकार उसकी कापी-किताब, पेन-पेन्सिल आदि की व्यवस्था के लिए माता-पिता जिम्मेदार हैं."
यह प्रवृत्ति जो अब तक मझोले और आला दर्जे के प्राइवेट स्कूलों में दिखा करती थी, अब सस्ते निजी स्कूलों में भी जगह बना रही है.

सरकारी स्कूलों का पतन
सरकारी स्कूल मर रहे हैं, क्योंकि वे काम नहीं करते. इस समस्या की शुरुआत 1950 के दशक के अंतिम वर्षों और 60 के दशक में तब हुई, जब स्कूलों की संख्या में इजाफे के साथ-साथ बुनियादी ढांचे और प्रशिक्षित शिक्षकों की उपलब्धता पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. अधिकतर राज्यों में, शिक्षक बहुत कम पगार पाते थे और स्कूल प्रशासन अक्षम था. राजस्थान जैसे राज्य में बड़ी संख्या में अप्रशिक्षित अध्यापक नियुक्त किये गए. इस सब बातों ने शिक्षा की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित किया. शिक्षकों का उत्साह जाता रहा और वे असंतुष्ट हो गए.
कुछ राज्य सरकारों ने 1950 के दशक के बीतते-बीतते स्कूल प्रशासन की जिम्मेदारी पंचायती राज पर डालनी शुरू की. इस कदम से स्कूल में स्थानीय राजनेताओं का दखल बढ़ गया और वे शिक्षकों के तबादलों में हस्तक्षेप करने लगे. इसके अलावा कम सुविधाओं, कम पगार, समय पर पगार देने में कोताही जैसे अनेक कारणों से शिक्षक स्कूलों से गैर-हाजिर रहने लगे. परिणामस्वरूप नए-नए उभर रहे शिक्षक संघों में आत्म-केन्द्रीयता की प्रवृत्ति पैदा होने लगी. स्कूल के कामकाज और शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देने की जगह वे अपनी सुविधाओं व फायदों को तरजीह देने लगे. उनके इस रुख के लिए उन्हें शायद ही कोई जिम्मेदार ठहराए.
समस्याओं को गंभीरतापूर्वक सुलझाने के बजाय शिक्षा योजनाकारों व प्रशासकों ने शिक्षा की बढ़ती ज़रूरतों के मद्देनजर फौरी व चालू उपायों को प्राथमिकता दी. कई ऐसे महत्वपूर्ण कारक थे, जिन्होंने इस मानसिकता को तैयार करने में भूमिका निभाई, जैसे- ज्यादा स्कूलों की मांग, धन व अन्य संसाधनों की कमी, वोट की राजनीति का दबाव और सरोकार का अभाव. यह मानसिकता 60 के दशक के बाद लागू किए गए सभी शैक्षिक कार्यक्रमों में देखी जा सकती है- अनौपचारिक शिक्षा, शिक्षा कर्मी, डीपीईपी और सर्व शिक्षा अभियान. प्रत्येक स्तर पर इन कार्यक्रमों की आलोचना हुई और अनेक शिक्षाविदों ने इनकी अवधारणा और नियोजन में मौजूद समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से आगाह किया. लेकिन इन कार्यक्रमों को कई स्वाभाविक समर्थक भी मिले जिन्होंने इनके पक्ष में तरह-तरह के कुतर्क गढ़ डाले और उन्हें शैक्षिक बदलाव के उदाहरणों के बतौर आगे बढ़ाया.

स्कूल का विचार
इन कार्यक्रमों के साथ बुनियादी समस्या यह रही कि इन्होंने स्कूल की अवधारणा को कमजोर किया. स्कूल का स्पष्ट उद्देश्य है- सीखना. और सीखने की प्रक्रिया शिक्षक और छात्र, दोनों से तल्लीनता की अपेक्षा करती है. विचारों के सतत एवं सुसंगत अन्वेषण के लिए तथा बौद्धिक श्रम व मानसिक अनुशासन के लिए निर्धारित समय व स्थान चाहिए. यह सब संभव नहीं अगर क्या सीखना है और कैसे सिखाना है, जैसे सवालों के समुचित उत्तर न तलाशे जाएं. इसलिए एक व्यवस्थित स्थान के रूप में स्कूल अपेक्षा करता है कि शिक्षक में बच्चों की बौद्धिक व भावनात्मक ज़रूरतों की पेशेवर समझ और उनके प्रति गहरी संवेदनशीलता तथा शिक्षणशास्त्रीय निर्णय की क्षमता हो. जब इन सब ज़रूरतों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता है तो स्कूल का विचार ही विद्रूप हो जाता है. पिछले पांच दशक से शिक्षा व्यवस्था दरअसल यही कुछ कर रही है.
उदाहरण के रूप में, अनौपचारिक शिक्षा परियोजना में करोड़ों रुपये खर्च किये गए और यह योजना पूरे देश में 1960 दशक के अंतिम वर्षों से 1990 दशक की शुरुआत तक चली. इस परियोजना में शिक्षण, शिक्षक प्रशिक्षण और शैक्षिक योजना के पेशेवर ज्ञान के विचार की पूरी तरह उपेक्षा की गयी. इस प्रकार पूरे देश में एक सन्देश फैलाया गया कि कोई भी पढ़ा सकता है. इसने स्कूलों के लिए अलग से समुचित जगह के विचार को दरकिनार कर यह साबित करने की कोशिश की कि शिक्षा के लिए किसी तरह के बुनियादी ढांचे की खास ज़रूरत नहीं है. इसने शिक्षक व छात्र दोनों की बौद्धिक ज़रूरतों की उपेक्षा की. कुल मिलाकर इसने शिक्षा, शिक्षक और स्कूल के विचार का अवमूल्यन किया.
जब तक इस गड़बड़झाले की असफलता का पता चलता, कई अन्वेषक राजस्थान में शिक्षा कर्मी जैसी अन्य पहलकदमियों के साथ हाज़िर हो गए. डीपीईपी कार्यक्रम भी लागू किये जाने के लिए लगभग तैयार था. सर्व शिक्षा अभियान समेत ऐसे तमाम कार्यक्रमों में पेशेवर ज्ञान, बौद्धिक श्रम, बच्चों के प्रति संवेदनशीलता और बुनियादी ढांचे की ज़रूरत जैसी बातों के बीच संतुलन बैठाने की कतई कोशिश नहीं हुई. कभी संवेदनशीलता को शैक्षिक ज्ञान के बरक्स खड़ा किया और कभी शिक्षक की स्कूल में लगातार मदद को उसके शैक्षिक ज्ञान के बरक्स. अच्छी शिक्षा की जरूरतों की स्पष्ट समझ के अभाव तथा पिछली खराब नीतियों का सीधा परिणाम आज स्कूलों के खात्मे के रूप में दिखाई पड़ रहा है.

बाजार का प्रवेश
इस बीच, शिक्षा की स्थिति से चिंतित अभिभावकों की बेचैनी को भुनाने के लिए निजी क्षेत्र आगे आ गया. आज प्राइवेट स्कूल दिन दूनी-रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रहे हैं. कुछ विश्लेषक कहते हैं कि जहां सरकारी स्कूल व्यवस्था पतन की ओर अग्रसर है, वहीं प्राइवेट व्यवस्था बेहतर से बेहतरीन होती जा रही है.
यह झूठी धारणा संभवतः जान-बूझकर फैलाई जा रही है. प्राइवेट स्कूल मुनाफे के लिए काम करते हैं; यह तथ्य ही अपने आप में बच्चों के विकास की परवाह करने वाले अच्छे स्कूल की अवधारणा के विपरीत है. एक अच्छा स्कूल वह होता है जहां ज्ञान संजोया जाता है, जहां बुद्धि का विकास होता है, जहां बच्चे के प्रति संवेदनशीलता होती है और जहां आवश्यक संसाधनों की कमी नहीं होती. ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में स्कूल मालिक अवधारणाओं की समझ की जगह प्रतियोगिता पर जोर देते हैं. प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर जानकारियों को रटने का दबाव होता है- और यह बात समझ का घोर अवमूल्यन करती है. वास्तविक समझ अवधारणात्मक स्पष्टता की मांग करती है. यह एक कठिन प्रक्रिया है और इसमें समय लगता है. प्राइवेट स्कूल स्वभावतः रट्टा आधारित पहली विधि को प्रोत्साहित करते हैं. दूसरे शब्दों में, वे एक अच्छे स्कूल की अपेक्षाओं का अवमूल्यन कर सीखने के मूल विचार को ही दरिद्र बना देते हैं.
इन सब के आगे, प्राइवेट शिक्षा व्यवस्था का सबसे हानिकारक पहलू कुछ और है- प्राइवेट स्कूल बच्चे के नैतिक विकास, समझ के विकास और व्यवहार की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते. उनका आदर्श एक कंसल्टेंट एजेंसी की तरह काम करने का होता है. अगर किसी बच्चे में कोई नैतिक या व्यवहारगत समस्या है तो ये स्कूल अभिभावक से उसे ठीक करवाने को कहेंगे. बच्चे की शैक्षिक कमजोरी के लिए ये प्राइवेट ट्यूशन करवाने की सलाह देंगे. किसी भी स्थिति में ये अपनी बुनियादी शैक्षिक जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं. इस तरह उनकी भूमिका बेहद सीमित हो जाती है, जो ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के अनुकूल है. ये स्कूल की अवधारणा का ही दिवाला निकाल देते हैं.
सरकारी स्कूलों में बच्चों के न पहुंचने और प्राइवेट स्कूलों में स्कूल की अवधारणा के ही सीमित हो जाने की इस दोहरी बीमारी के कारण स्कूल आज गंभीर खतरे में हैं. एक समाज के बतौर ऐसा प्रतीत होता है हम इस अहसास से बहुत दूर हैं कि सभ्यताएं शिक्षा पर निर्भर होती हैं और शिक्षा की प्राथमिक जगह स्कूल है. अगर स्कूल मरते हैं तो सभ्यताओं का भी पतन होता है. जब तक हम शिक्षा की समझ, नियोजन और कार्यान्वयन में श्रम की जरूरत को मान्यता नहीं देंगे, इस अधोगति को रोक नहीं सकेंगे और हमारे स्कूल या तो बंद हो जायेंगे या कंसल्टेंसी सेवाओं में बदल जायेंगे. उनकी जगह ट्यूशन की दुकानें खुल जायेंगी. बेशक इन स्थितियों को उलटने के लिए सही राजनीतिक और आर्थिक फैसलों की दरकार होगी, पर ये फैसले अगर गहरी शैक्षिक समझ के बिना लिए जाएंगे तो सफल नहीं होंगे.

(रोहित धनकर अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बंगलुरु में अकादमिक विकास के निदेशक व प्रोफ़ेसर तथा
दिगंतर, जयपुर के मानद सचिव हैं.)

-28 अक्टूबर, 2014 को 'द हिंदू' में प्रकाशित आलेख, अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सटीक विश्लेषण ।

virender said...

सटीक विश्लेषण. उम्मीद है आप शिक्षा से जुड़े ऐसे लेखो को लगातार पोस्ट करते रहेगे एक का लिंक दें रहा hun


http://rohitdhankar.com/2014/10/31/building-hollow-pride-on-ludicrous-claims/