आशुतोष उपाध्याय ने शिक्षा
पद्धति को लेकर एक और बढ़िया आलेख भेजा है. बेहद पठनीय इस आलेख के लिए एक बार फिर
आशुतोष को शुक्रिया.
एक कदम पीछे लौटें और
शिक्षा के उद्देश्य के बारे में गहराई से सोचें
पीटर
ग्रे
हमारे
अमेरिका और दूसरे कई आधुनिक मुल्कों में लोग माप-जोख को लेकर बड़े आग्रही हैं. ऐसा
लगता है हमारा ध्येयवाक्य बन गया है- "अगर आप गिन नहीं सकते तो यह गिनती नहीं
है." खास तौर पर बच्चों की शिक्षा की पैमाइश को लेकर तो हम कुछ ज्यादा ही
आग्रही हो गए हैं. और 'नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड' अभियान के बाद हमारा यह आग्रह पागलपन की हद तक जा पहुंचा है. हमारे बच्चे
उस लड़ाई के मोहरे बन गए हैं जिसमें एक अभिभावक को दूसरे अभिभावक से, एक शिक्षक को दूसरे शिक्षक से, एक स्कूल को दूसरे
स्कूल से और एक देश को दूसरे देश से इसलिए भिड़ाया जा रहा है कि कौन अपने बच्चों से
ज्यादा से ज्यादा अंक निकलवाने में कामयाब होता है. हम अपने बच्चों से उनकी नींद
छीन रहे हैं. खेलने और खोजने की उनकी स्वतंत्रता छीन रहे हैं. दूसरे शब्दों में
ज्यादा से ज्यादा अंकों की खातिर हम उनसे उनका बचपन छीन रहे हैं.
अब
वक्त आ गया है कि एक इंसान के बतौर हम एक कदम पीछे हटें,
चंद गहरी साँसें लें और अपने होशो-हवास को हासिल करें. वास्तव में
शिक्षा क्या है? इसके उद्देश्य क्या हैं? इस प्रश्नों के अपने जवाब की रोशनी में गौर फरमाएं कि क्या शिक्षा की
माप-जोख संभव है? और अगर यह संभव है तो इस बात का कोई मतलब
है कि मापने का एक ही तरीका सब पर लागू हो?
आधुनिक
स्कूल के जिस रूप को आज हम जानते हैं, उसकी
जड़ें प्रोटेस्टेंट सुधारों तक जाती हैं. इन सुधारकों की मान्यताओं के अनुसार हर
ईसाई की यह धार्मिक जिम्मेदारी है कि बच्चों को पढ़ना सिखाए ताकि वह बाइबल पढ़ सके.
इसके अलावा बच्चों के दिमाग में चुनिन्दा मान्यताओं को रोपना भी उनकी धार्मिक
जिम्मेदारियों में शामिल था. खास तौर पर आज्ञाकारिता का महत्व और आज्ञापालन न करने
वालों के लिए नर्क की आग का भय. उस जमाने में स्कूली शिक्षा का उद्देश्य बिलकुल
स्पष्ट था- बच्चों को आदम के पाप से दूर रखना, उनके दिमाग
में सत्ता का भय बिठाना और बाइबल के उन नैतिक सूत्रों को रटाना जो सत्ता के प्रति
भय व भक्ति का भाव पैदा करते हों. एक बार अगर स्कूल का उद्देश्य स्पष्ट हो गया तो
सफलता की पैमाइश करना आसान हो जाता है. अगर बच्चा आज्ञाकारी
बन जाय, शिक्षक (तब उन्हें मास्टर कहा जाता था) के
निर्देशानुसार अपना पाठ ठीक से दोहराने लगे तथा बड़ों के सामने जुबान लड़ाने की
जुर्रत न करे तो उसे सफल घोषित कर दिया जाता था. इस बात से बहुत फर्क नहीं पड़ता था
कि उसके पाठ में क्या दिया गया है (जब तक कि उससे बाइबल की अवमानना न होती हो);
हाँ, इस बात का महत्व था कि बच्चों ने कितनी
आज्ञाकारिता और निष्ठा से निर्देशों का पालन किया. अगर वे कहे अनुसार नहीं चलते और
बार-बार पीटे व अपमानित किये जाने के बावजूद मनमर्जी करते तो उन्हें स्कूल की नजर
में असफल घोषित कर दिया जाता था. इन शुरूआती दिनों में स्कूल भेजने का मतलब
सीखने-सिखाने जैसा कोई दावा नहीं किया जाता था. लोग आजीविका और सामाजिक जीवन में
काम आने वाले ज़रूरी हुनर वास्तविक दुनियावी गतिविधियों से सीख लेते थे. स्कूल,
चाहे कितना भी भयावह हो, बच्चे के जीवन के
बहुत छोटे हिस्से को घेरता था.
समय
के साथ स्कूल सरकार के हाथों में आ गए. अब स्कूल के घंटों और दिनों में धीरे-धीरे
बढ़ोतरी होने लगी और पढ़ाए जाने वाले विषयों की सूची भी लंबी होती चली गयी. बहुत
सारे लोग यह समझने लगे कि स्कूल जाने का मतलब हर तरह की शिक्षा हासिल करना है. औद्योगिक
क्रांति के साथ स्कूलों ने खुद को फैक्टरियों के मॉडल में ढालना शुरू कर दिया.
बच्चे एसेम्बली लाइन की तर्ज पर एक कक्षा से दूसरी में धकेले जाने लगे. प्रत्येक
पड़ाव में एक नया शिक्षक निर्धारित ज्ञान व कौशल का नया पैकेट अपने उत्पाद में
जोड़ता जाता और अंत में तैयार उत्पाद प्रमाणपत्र के ठप्पे के साथ बाहर फैंक दिया
जाता. स्कूली शिक्षा की यह मानक पद्धति आज भी बदस्तूर जारी है,
भले ही अन्य मामलों में हम इतिहास के इस फैक्टरी युग को पीछे छोड़
आये हों. अगर हमारे लिए शिक्षा के यही मायने हैं तो इसकी माप-जोख मुश्किल नहीं है.
इसकी पैमाइश कन्वेयर बेल्ट के हर स्तर पर प्रत्येक बच्चे की परीक्षा लेकर की जाती
है और जांचा जाता है कि उसने निर्धारित तथ्य व कौशल हासिल कर लिए हैं और वह अगले
पड़ाव में भेजे जाने के लिए पूरी तरह तैयार है.
मगर
लंबे समय से इस फैक्टरी सिस्टम में गिरावट देखी जा रही है. प्रत्येक शिक्षक ने
क्या किया और किस तरह उसने बच्चों की प्रगति की पैमाइश की,
ऊपर से नीचे की ओर इस बात को निरपेक्ष रूप से नियंत्रित कर पाना
संभव नहीं. कुछ शिक्षक मानते हैं कि बच्चे स्वभावतः एक-दूसरे से भिन्न होते हैं.
यह उनका अधिकार है कि प्रत्येक दिन का अच्छा-ख़ासा हिस्सा खेलने, आजादी से खोजने में तथा अपनी रुचियों व रुझानों को विकसित करने में
बिताएं. बच्चों को उत्तीर्ण करने के आधार को देखें तो एक कक्षा से दूसरी कक्षा तथा
एक स्कूल से दूसरे स्कूल के बीच भारी असमानताएं हैं. इसके बाद आया 'नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड' (एनसीएलबी) अभियान जो इन
असमानताओं को दूर करने के लिए कमर कसे हुए था. अब हर उत्पाद के लिए निर्धारित
मानकों को पूरा करना लाजिमी था, भले ही कच्चे माल में बहुत
ज्यादा अंतर क्यों न हो, भले ही बच्चे के जीवन पर स्कूल से
बाहर रहने का भारी प्रभाव हो, और निश्चित तौर पर वे क्या
करना या सीखना चाहते हैं इस मामले में भले ही बच्चे की व्यक्तिगत इच्छा कुछ भी
क्यों न हो. एनसीएलबी फैक्टरी मॉडल को गंभीरता से लेने की तार्किक परिणति है ताकि
ज्यादा से ज्यादा समरूप और मानक उत्पाद तैयार हो सकें. एनसीएलबी ने शिक्षकों के
काम को भी सूत्रबद्ध कर दिया- अगर छात्र मानक परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन नहीं
करते तो उन पर इन परीक्षाओं के लिए पढ़ाने का भारी दबाव बन जाता है. चूंकि मानक
परीक्षाओं का फोकस गणित, पढ़ पाने की क्षमता और कुछ हल्के
स्तर के विज्ञान (जिसे बड़ी संकीर्णता से परिभाषित किया गया है) पर रहता है,
बाकी विषय पीछे धकेल दिए जाते हैं. वही पढ़ाया जाए जिसकी गिनती हो
सके.
लेकिन
अब, जैसा कि मैंने पहले भी कहा, इस
पागलपन से एक कदम पीछे लौटें, चंद गहरी सांस खींचें और
शिक्षा के बारे में विवेकपूर्ण तरीके से सोचने की कोशिश करें.
हम
अगर शिक्षा की परिभाषा को पढ़ पाने और गणित करने की क्षमता तक सीमित मान लें,
तो भी हम गलती कर रहे हैं. बच्चे तभी पढ़ना सीखते हैं जब वे सचमुच
पढ़ना चाहते हैं. और वे गणित भी बड़ी आसानी से सीख लेते हैं जब वे ऐसा करना चाहते
हैं. यहां एकमात्र कुंजी है उनकी 'चाहत'. हम पढ़ने और गणित करने को बच्चों के लिए नफ़रत की चीज़ बना देते हैं, जब हम इन कौशलों को दिमागी संख्याओं, जबरन एसेम्बली
लाइन कदमों में बदल डालते हैं. सिर्फ पढ़ने के लिए कौन पढ़ना चाहेगा. इसी प्रकार
सिर्फ करने के लिए कौन गणित करेगा. बच्चे जानकारियां हासिल करने या कहानियों का
आनंद उठाने के लिए पढ़ना चाहते हैं. उन मजेदार वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए
वे गणित सीखना चाहते हैं, जो गणित पर निर्भर हैं. ठीक उसी
तरह जैसे लोग वास्तविक जीवन में सीखते हैं और लोकतान्त्रिक स्कूलों व परिवारों में
बच्चे सीखते हैं, जहां वे अपनी शिक्षा के स्वयं प्रभारी हैं.
चलिए
अब पढ़ने और गणित से हट के कुछ ज्यादा जरूरी चीज़ों पर बात करें. वास्तव में शिक्षा
का उद्देश्य क्या होना चाहिए? या, इसे दूसरे ढंग से कहें तो अपने बच्चों के विकास के लिए हमारे क्या लक्ष्य
होने चाहिए? हममें से ज्यादातर लोग नहीं चाहते कि हमारे
बच्चे किसी बड़ी हस्ती के खामोश पिछलग्गू बनें. इस नज़रिए का दुष्परिणाम हम देख चुके
हैं. और मैं यह नहीं समझता कि हममें से अधिकतर शिक्षा का सही उद्देश्य उस टीवी शो
में अच्छा प्रदर्शन मानते होंगे, जिसका नाम है'
"क्या आप पांचवीं पास से ज्यादा स्मार्ट हैं?" हम जानते हैं कि पांचवी (या किसी और कक्षा) पास के ज्ञान का जीवन की सफलता
से कोई खास संबंध नहीं होता. लेकिन हम तब शिक्षा से क्या चाहते हैं? शायद मैंने इस सवाल को कुछ इस तरह पूछना चाहिए: आप क्या चाहते हैं और मैं
क्या चाहता हूं? यह कतई संभव है कि जीवन के अर्थ को लेकर
आपके और मेरे विचार बिलकुल अलग-अलग हों और अपने-अपने बच्चों के लिए हम अलग-अलग
चीज़ों की उम्मीद करें.
चलिए मैं बताता हूं- अगर आज मेरे छोटे बच्चे होते तो मैं उनके लिए
क्या चाहूंगा? मैं चाहूंगा कि वे अपने जीवन के प्रभारी की भावना
से बड़े हों. मैं चाहूंगा कि वे खुश रहें लेकिन दूसरों की खुशियों की भी परवाह
करें. मैं चाहूंगा कि वे भावनात्मक रूप से लचीले हों ताकि जीवन में आने वाले
अवश्यम्भावी दबावों और हताशाओं से उबर सकें. मैं चाहूंगा कि सीखने की और पहले से
भी ज्यादा तेजी से बदल रही दुनिया में खुद को ढाल पाने की अपनी क्षमता पर उनका
जीवनपर्यंत भरोसा बना रहे. मैं चाहूंगा कि उनके कुछ लक्ष्य हों- ऐसे लक्ष्य जिनको
हासिल करने का जुनून उनके भीतर पैदा होता हो. मैं चाहूंगा कि उनमें तार्किक ढंग से
सोचने के क्षमता हो और अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए वे सही फैसले ले सकें. मैं
चाहूंगा कि उनमें ऐसे नैतिक मूल्य हों जो उनके जीवन को सही ढांचा और अर्थ दें और
मैं उम्मीद करूँगा ये मानवीय मूल्य हों- ऐसे मूल्य जिनका संबंध मानव अधिकारों से
और उन अधिकारों को बनाए रखने की जिम्मेदारी से हो.
अब यहां एक कठिनाई है. ये सारी बातें स्कूल के पाठों में नहीं
मिलती हैं. ये सारी बातें हरेक को खुद खोजनी पड़ती हैं या बड़े हो रहे सक्रिय बच्चे
के द्वारा खुद रची जाती हैं. इन्हें हासिल करने के लिए हर बच्चे को खेलने,
खोजने और अन्वेषण का ढेर सारा समय चाहिए. ज्यादा से ज्यादा हम यही
कर सकते हैं कि खुद उनके लिए अच्छे मॉडल बनें और उन्हें एक स्वस्थ, और प्रेरणादाई नैतिक वातावरण उपलब्ध कराएं. ऐसा वातावरण जो हमारे बच्चों
को अपनी मनपसंद चीज़ों को खोजने की और अपने अलावा दूसरे के नज़रिए से भी सीखने की
इजाजत देता हो. अंततः, शिक्षा का उद्देश्य जीवन में सार्थकता
की खोज ही होता है और हर व्यक्ति को इसे अपने लिए स्वयं इजाद करना पड़ता है.
तब, क्या आप शिक्षा की माप-जोख कर सकते हैं? क्या आप जीवन का मतलब परिभाषित कर सकते हैं? शायद
व्यक्तिगत तौर पर, जिसका अर्थ मात्र हमारे लिए हो, अपने जीवन का अर्थ खोजने की दिशा में हम अपनी खुद की शिक्षा की माप-जोख कर
सकते हैं. लेकिन निश्चित तौर पर हममें से कोई भी दूसरे की शिक्षा की पैमाइश कतई
नहीं कर सकता.
(अनुवाद:
आशुतोष उपाध्याय)
3 comments:
zaroori aalekh...behtreen anuwad!
अशोक भाई यह मानते हुए कि आपकी अनुमति है, इस लेख को मैंने टीचर्स ऑफ इंडिया पोर्टल पर अपलोड किया है।
राजेश जी, कबाड़खाना की हर पोस्ट सार्वजानिक सदुपयोग के लिए है. इसके लिए अनुमति की बात कहकर शर्मिंदा न करें. हाँ ब्लॉग का ज़िक्र कर देन तो अहसान होगा.
धन्यवाद!
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