Sunday, October 26, 2014

जलावतन होना महज़ अपने देश से बाहर होना नहीं है - नीलाभ की प्रेम कविताओं की सीरीज -३



(जारी)

अन्तरा
( एम. के लिए )

-नीलाभ

११.

जैसे-जैसे समय बीता है रास्ता साफ़ होने की बजाय और भी दुर्गम,
और भी कांटों-भरा होता चला गया है,
वैसे लाज़िमी नहीं था उसका साफ़ होते चले जाना,
सिर्फ़ एक उम्मीद थी
धुंधलके साफ़ होंगे, समतल हो जायेगा पथ, तलवों पर
पड़ गये छाले और ज़ख़्म पुर जायेंगे
इसी उम्मीद पर बढ़ते चले आये हम इतनी दूर तक
उन शब्दों की रोशनी में
जिन्हें मशाल की तरह हमारे हाथों में सौंप कर
विलीन हो गये थे हमारे पितर
पिछले पड़ाव के अंधेरे में
और हम थामे रह गये एक ख़ंजर जिसकी मूठ पर
कसे हुए थे किसी और के हाथ और हम
लहू-लुहान होते रहते मुतवातिर
सोचते हुए हमारी हार का बदला चुकाने कोई-न-कोई आयेगा
आयेगा ग़मज़दा रातों का महरम बन कर
अधूरी जंग का परचम बन कर....

१२.

वे कहते हैं पांच अरब साल पहले जन्मा था हमारा सूरज
और गुल हो जायेगी हमारे सूरज की रोशनी पांच अरब साल बाद
हमेशा-हमेशा के लिए इस अन्तरतारकीय शून्य में
हवा में उड़्ते दुपट्टे की तरह
उड़ता चला जायेगा हमारी पृथ्वी का वातावरण ब्रह्माण्ड में,
हमारे पास पांच अरब साल हैं एक दूसरे के साथ
समय गुज़ारने के लिए
खोजने के लिए वे सारी चीज़ें जो छूटती रही हैं अब तक
इस अन्तहीन, अविरल आपाधापी में
करने के लिए कितनी सारी चीज़ें और समय कितना थोड़ा
सिर्फ़ पांच अरब साल, लेकिन वक़्त से पहले मरना क्या,
कौन जाने तब तक कोई नया सौरमण्डल नहीं खोज लेंगे हम
जीने और प्यार करने के लिए
वैसे ही जैसे हमने खोज लिया था यह सौरमण्डल
जीने और प्यर करने के लिए
पांच अरब साल पहले....

१३.

आओ फ़र्ज़ करें कि तुम मेरी हो, मेरी हो अपने सारे
रहःरहस्यों के साथ, अपनी फ़ितरत के साथ, अपनी
काया और माया, अपने आलोक और छाया के साथ,
आओ फ़र्ज़ करें वह जो फ़र्ज़ी हिसाब से बाहर है,
बाहर है सभी गणनाओं और गिनतियों से,
अमूर्त संख्या एक जो इतनी अमूर्त है कि संख्या
ही नहीं जान पड़ती
आओ फ़र्ज़ करें कि अब आगे ज़िन्दगी भर
फ़र्ज़ नहीं करना है

१४.

जलावतन होना महज़ अपने देश से बाहर होना नहीं है
अपने समय से बाहर होना भी है,
और अपने लोगों से भी,
कवियों से ज़्यादा इस बात को शायद
कोई और नहीं समझ सकता
इसीलिए कवि सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं
अपने लोगों से, अपने समय से, अपने देश से,
चाहते हैं असम्भव कोशिश करते रहें कि उनका साथ न छूटे
अपने देश से, अपने समय से और अपने लोगों से तो
बिलकुल नहीं, चाहे देश अपरिचित होता चला गया हो,
समय से मिले हों सिर्फ़ बिछोह,
लोगों ने पहुंचायी हों सिर्फ़ तकलीफ़ें, जलावतन होना
महज़ अपने देश से, अपने समय से,
अपने लोगों से बाहर होना ही नहीं है, मनु,
तुम्हारे दिल से बाहर होना भी है....

१५.

हो सकता है हम ने बहुत ज़्यादा गीत गाये हों अवसाद के,
निराशा के, हो सकता है जो हम लिख रहे हैं
वह नया प्रारूप हो उस मशहूर किताब का
और इसमें निराशा के बीस गीत हों और सिर्फ़ एक
कविता हो प्रेम की
हो सकता है यह हुआ हो या न हुआ हो
हो सकता है यह मैंने देखा हो या न देखा हो
हो सकता है ऐसा फ़िकरा है हमारी हिन्दी का, मनु,
जो अनिश्चित अतीत और अनिश्चित भविष्य के लिए,
सन्दिग्ध व्यक्ति और सन्दिग्ध अभिव्यक्ति के लिए
बड़ी आसानी से इस्तेमाल होता है
हो सकता है कह कर हम मुक्त हो जाते हैं
अपने किये और अनकिये से, और अपने वर्तमान से भी....