Wednesday, November 12, 2014

ज्ञानरंजन का इलाहाबाद – ९


(पिछली क़िस्त से आगे) 

मलयज का गद्य, नामवरजी को छोड़ दिया जाए तो उनके गुरु और तमाम दूसरे आलोचकों के लद्दड़, पूर्वीपने या आजकल के चुस्त पश्चिमीपने से अलग हिन्दी की जातीय परंपरा का बहुत ही अनुपम हिस्सा है. दुर्भाग्य की बात है कि जब उनका उदय हो रहा था, वे अस्त हो गए. मलयज को इलाहाबाद में और शायद दिल्ली में भी काफी एककी रहना पड़ा. विष्णुचंद्र शर्मा ने बताया था कि एक बार जब वे इलाहाबाद में कहानी के सम्पादन के सिलसिले में गए तब मलयज की एक अच्छी कहानी को भैरवजी ने केवल इसलिए छापने से इनकार कर दिया था कि मलयाल परिमिलियन थे. बाद में वह कहानी कल्पना में छपी. इन चीज़ों को मलयज बहुत भोलेपन से, बहुत विस्मय के साथ देखते थे. और इन सबके भीतरी घाव भी उनके दिल पर बने होंगे. बाद में मलयज भीतरी तौर पर परिमल से भी अंतराल में आते गए. उनका स्थान कहीं नहीं था. और आज भी बस चले तो उन्हें भुलाने का उपक्रम सत्ता-संस्कृति, सर्वोच्च प्राथमिकता से कर सकती है. हिन्दी में आलोचना ही नहीं सम्पूर्ण समकालीनता का कलेजा ही बहुत छोटा है. और पूर्वग्रह-समास चौकड़ी का कलेजा तो कलेजा नहीं पेसमेकर है.

मलयज ने रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और अशोक वाजपयी, हिन्दी आलोचना के इस त्रिकोण (हिन्दी फिल्मों से यह त्रिकोण अब साहित्य में भी आ गया है) का अतिक्रमण किया है. और ये त्रिकोणी स्वयं कुछ न भी करें, तो भी उनकी पठ्ठे कम ताकतवर और सक्रिय नहीं हैं. रामविलास जी तथ्यों के सम्राट है, नामवर जी जिरह को मनमाफिक मोड़ दे सकने में उस्ताद हैं और अशोक वाजपेयी ऊबे हुए सुखी लोगों की एक अन्वेषित चमकीली भाषा का उपहार देने में अग्रणी हैं. मलयज इन सबसे अलग एक नई राह और कथों राह बना रहे थे.


(जारी)       

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