Thursday, November 13, 2014

ज्ञानरंजन का इलाहाबाद – १०


(पिछली क़िस्त से आगे) 

अज्ञेय की पहली पारी के वैभवभरे उन दिनों में हमने उनको कई बार इलाहाबाद की सड़क, महात्मा गांधी मार्ग पर अधिकतम एक फर्लांग की चहलकदमी में देखा. हम बार-बार जाते और बहानों से लौटते और उनको देखते थे. कुछ बार कॉफ़ी हॉउस के अंदर भी देखा. वे अगर गूंगे होते तो महात्मा बुद्ध या महावीर स्वामी या प्रस्तर देवता मूर्ति की तरह लगते. वे प्रायः उन सड़कों की तरफ मुड़ते थे जो दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की तरफ आती थीं. ये इलाहाबाद की विशाल सिविल लाइंस के सबसे साफ़-सुथरे, ख़ामोश और आच्छादित मार्ग थे. शायद वे ड्रमंड रोड की तरफ जाते थे. ज़ाहिर है कि अज्ञेय इन्हीं तरह के मार्गों पर चल-फिर सकते थे. उन्हें कामताप्रसाद कक्कड़ मार्ग पर चलते हुए देखने पर भी, यह विश्वास नहीं हो सकता था कि ये अज्ञेय हैं और भीड़ उनके चारों तरफ प्रवाहमान है.

चूंकि वे विषैले और तनातनी के दिन नहीं थे और मेरी कच्ची उम्र भी आमना-सामना करने से ज्यादा कौतूहल और स्पर्श की उम्मीदों से भारी थी इसलिए हम बड़े लेखकों को बार-बार देखते थे, और दूर से देखते थे. कई बार अज्ञेय का खादी का कुरता गर्दन के पास झीना या फटा भी होता था. पर वे कॉफ़ी हॉउस से निकलकर एक मंद हाथी की तरह चलते हुए नैसर्गिक दर्प से भरी छवि बिखेरते थे. उनके बिलकुल आजू-बाजू शायद ही कोई होता था. रघुवंश जी, केशव भाई, विपिन कुमार अग्रवाल या रामस्वरूप जी कोई नहीं. इनके अलावा और लोग भी होते थे. वे पीछे पीछे महाजन की लीक पर अनुयायी की तरह चलते थे. साहीजी को नहीं देखा मैंने पीछे कभी. शायद अज्ञेय किसी को साथी का, बराबरी का दर्ज़ा नहीं देते थे. इसलिए मुझे आज भी यही लगता है कि अज्ञेय के भक्त हुए, उनके झंडाबरदार हुए, उनको गहरा सम्मान देनेवाले हुए पर अज्ञेय के मित्र थे इस असार संसार में, इसका मुझे कोई अता-पता नहीं है. प्रतिहिंसा में या उदाहरण के लिए जो लोग आज अज्ञेय का झंडा उठाने की बहुत ज़रूरत महसूस करने लगे हैं और अनेक निर्जीव किताबों को जन्म दे रहे हैं इसकी ज़रुरत अज्ञेय को थी यह मैं नहीं मानता. अज्ञेय ने अपने को पहले के दिनों की तुलना में, बाद के दिनों में ज़्यादा सूझबूझ के साथ एक मूर्ति की तरह गढ़ा था.


(जारी)     

No comments: