(पिछली क़िस्त से आगे)
वे दिन हमारे अंधाधुंध आवारगी के थे.
मैं देवकुमार और विशम्भर मानव का बेटा प्रभात दिन-रात साथ रहते, बातें करते और
वर्जित कामों की तरफ रुझान रखते थे. साहित्य छाया की तरह था. उसमें लोग कम थे,
साहित्य दर्शन ज्यादा था. भूख, नींद क्या जीवन ही गायब हो चुका था. बस एक नशा था
जो अपने-अपने घरों को उजाड़ रहा था. प्रभात बाद में विक्षिप्त होकर एक दिन इलाहाबाद
की किसी सड़क पर लगभग लापता मर गया. लंबा काला फ्रेंच कोट उसके साथ अंतिम समय तक
था. भुवनेश्वर के बाद वह इलाहाबाद का दूसरा जीनियस था. उसकी यह मौत बिलकुल तय थी.
देवकुमार की कविताएँ अज्ञेय ने सुनी थीं और पसंद की थीं. इस तरह वह हमारे बीच सबसे
सफल व्यक्ति था. ग्रामीण और आधुनिक संवेदना का एक अजीब और दिलचस्प घपला था देवकुमार.
एक दिन वह हमारे चाय के अड्डे पर एक पुर्जा लेकर आया. वह चित वह कहाँ से, किससे,
किस तरह कबाड़ के लाया यह पता नहीं. यह पुर्जा अज्ञेय के हाथ का लिखा एक नोट था. या
निवेदन या आदेश या प्रेमल गिड़गिड़. यह नोट उस समय की एक बोहेमियन कवयित्री के नाम
लिखा गया था, जिसमें संगम तट पर, रेत के कछार में, सूर्यास्त की वेला में मिलने की
अरज थी. नहीं-नहीं उसमें लिखा था सैकत. पुर्जे के ऊपर कवयित्री का प्रेमपगा नाम था
और नीचे लिखा था वात्स्यायन. कवयित्री घर में कविताएँ लिखती रह गयी और उधर सैकत तट
पर वाकई सूर्यास्त हो गया. इस सिचुएशन को मैं आज निराला की मनोदशा और आधुनिक संगति
में देखता हूँ :
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा
श्याम
तृण पर बैठने को निरुपमा
हम दिन भर ही रोड पर चाय पीते रहे,
बार-बार चिट पढ़ते रहे. किलोल करते रहे. हमारे लिए यह एक कॉमिकल सिचुएशन थी इससे
ज्यादा उसकी महत्ता नहीं थी. अब मैं सोचता हूँ कि अज्ञेय एक बोहेमियन को भी इस हद
तक स्वीकार कर सकते थे. अज्ञेय को अगर आप पुराने और बाद के अज्ञेय में विभाजित
करें तो बाद के अज्ञेय एक कल्चर मोती की तरह थे. पहली पारी के अज्ञेय एक जन्मजात
उत्पन्न व्यक्ति थे और बाद में, बहुत साधना से उन्होंने अपने को गढ़ लिया था. लेकिन
यह उम्दा गढ़ा हुआ व्यक्ति भी कभी-कभी रिलैप्स कर जाता था. यह मुमकिन है कि
उन्होंने सैकत तट पर प्रेम नहीं विचार के लिए बुलाया हो कवयित्री को. क्योंकि
अज्ञेय सारा जीवन अपने अजूबे एकांतों के लिए तरह-तरह के प्रयास करते रहे. उन्हें
प्रचलित समयानुकूल एकांत प्रिय नहीं थे.
(जारी)
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