Saturday, November 15, 2014

ज्ञानरंजन का इलाहाबाद – १२


(पिछली क़िस्त से आगे) 

इलाहाबाद में ही मैंने पहली बार और केवल एक बार मुक्तिबोध को देखा था, सुना था अधिक-से अधिक दस-पन्द्रह मिनट. वह एक रोमांचकारी झलक थी. उनको गिरिजाकुमार माथुर तांगे पर लाये थे. वे आकाशवाणी के निदेशक थे और मेरे एक सहपाठी रस्तोगी के तांगे पर अक्सर अपने दफ्तर जाते थे. आकाशवाणी का वह एक असाधारण खुला मंच था और काव्यपाठ में हिन्दी कविता के अनेक दिग्गज वहां मौजूद थे. वह कवियों का सौरमंडल लगता था. मैं विश्वविद्यालय से निकला ही था और थार्नहिल रोड पर आकाशवाणी के उस काव्यपाठ को बाड़ों की चारदीवारी के बाहे से सुन रहा था. हमारे पास प्रवेश पत्र नहीं था. मेरे साथ प्रभात था. मैंने तब तक मुक्तिबोध का नाम ही सुना था. मुक्तिबोध ने अपनी ‘ओरांग उटांग’ कविता पढ़ी. वे कविता पढ़ रहे थे और उनके हाथ का कागज़ बुरी तरह हिल रहा था. उनकी टांगें काँप रही थीं. भद्रलोक में एक ग्रामीण जैसी हालत थी उनकी. लेकिन ‘ओरांग उटांग’ कविता सुनकर हम सन्न रह गए. श्रोता भी लगभग इसी हालत में थे. हम उसे आधा-अधूरा समझ रहे थे लेकिन इतना लगता था कि यह हमारी कविता है, हमारे भविष्य की कविता है. प्रभात बहुत उन्मत्त था. वह बाकी लोगों को हूट करने लगा. तब मैं फुसलाकर उसे दूर ले गया. हमारे लिए इसके बाद चिरागों में रोशनी न रही जैसी हालत थी. हम मुक्तिबोध को किसी मैटिनी आइडल की तरह देख रहे थे. वहां एक फ़िल्मी सितारे को पा लेने जैसी उत्तेजना थी. उसके दो-चार साल बाद मुक्तिबोध को जबलपुर में, मैंने परसाईजी के साथ भरपूर देखा और पाया.

वह ऐसा समय था कि रचनाकार का बीज अपनी ललक और प्रतिभा के अलावा तीन बाहरी चीज़ों से प्रस्फुटित होता था. सोहबत, शहर और मोहब्बत. तब ठस यथार्थ और आकाशचारिता की दबिश नहीं थी. इलाहाबाद की अपनी गोप्नीय्ताएं और चुप्पियाँ बहुत सारी हैं. जैसे चींटियां अचानक कब कहाँ से पंक्ति-की पंक्ति निकल आती हैं और गायब हो जाती हैं. जैसे तितलियों का मूल स्थान और विश्रामस्थली साहसी, खोजी फोटोग्राफर्स या सालिम अली जैसे लोग ही खोज सकते हैं, उसी तरह इलाहाबाद को खोज पाना एक कठिन रचनात्मक प्रक्रिया है. इसको तसले, फावड़े, कैम्रोंम, तूलिका, दूरबीन, आँख या खोपड़ी-तन्त्र मात्र से नहीं देखा जा सकता या किताबी पन्नों पर. अगर हमारे फेफड़ों में देर तक सांस बाँध सकने की क्षमता है तो डूब जाना होगा और देर तक बहुत-बहुत देर तक डूबकर निकलना होगा. इलाहाबाद के लिए मेरी यही शैली है. यह शहर किसी भी चमकीले शहर को पछाड़ नहीं सकता.


(अगली क़िस्त में समाप्य)    

1 comment:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले