Wednesday, November 19, 2014

ज्ञानरंजन की कहानियाँ - ३


अमरूद का पेड़

- ज्ञानरंजन 


घर के सामने अपने आप ही उगते और फिर बढ़ते हुए एक अमरूद के पेड़ को मैं काफी दिनों से देखता हूँ. केवल देखता ही नहीं, इस देखने में और भी चीजें शुमार हैं. तीन-चार साल में बड़े हो जाने, फूलने और फल देने के बाद भी उसकी ऊँचाई गंधराज या हरसिंगार के पेड़ से ज्यादा नहीं बढ़ी. शुरू-शुरू में तो परिवार के सभी लोगों ने उसके प्रति उदासीनता ही रखी या कहूँ लापरवाही बरती तो गलत नहीं होगा. राम-भरोसे पेड़ जब बड़ा हो गया और हमारे मकान का फ्रंट जब भरा-भरा लगने लगा तो सबसे पहले बाबू कन्हैयालाल की बूढ़ी पत्नी ने एक दिन टोका कि पश्चिम की तरफ अगर मकान का मुखड़ा हो और सामने अमरूद का पेड़ तो 'राम-राम बड़ा अशुभ होता है.' अम्मा के चेहरे पर थोड़ा-सा भय अपने कुनबे के लिए आया पर मुझे विश्वास था कि इन सब पिछड़े खयालातों का हमारे घर में गुजर नहीं हो सकेगा.

माँ अजमेर में जेल कर चुकी हैं - लंबा जेल. सत्याग्रह के दिनों में. पिता जी खुद राजनैतिक-सामाजिक उदारतावाले आदमी हैं. हमारी एक बुआ ने विवाह नहीं किया और पढ़ने-लिखने में ही उन्होंने अपनी जिंदगी डुबो दी ओर समाज उन्हें कोई चुनौती देने का साहस नहीं कर सका. एक को छोड़कर हम सभी भाइयों में खिलाड़ीपन है. चचेरे ने अंतर्जातीय विवाह किया है और मुझे तरस आ गया कि कन्हैयालाल की बूढ़ी पत्नी कैसी बेहूदा-फूहड़ बात कहती है. खैर, यह तो ऊपरी बात हुई लेकिन मैं अक्सर पाता कि अंदरूनी तौर पर भी हम सभी लोगों में कहीं पिछड़ेपन की भर्त्सना का भाव अँकुरा रहा है. वैसे अम्मा की प्रीतिकर, सुंदर, गोरी मुखाकृति पर अमरूद के प्रसंग में हमेशा भय की व्याप्ति हो आती थी.

सत्तावन की बरसात में अकस्मात एक दिन मिद्दू ने सबको दौड़-दौड़कर बताया कि अमरूद में तीन-चार सफेद फूल आ गए हैं. मिद्दू की उमर बढ़ रही थी, उसकी आकृति पर वय का ओप चढ़ रहा था. अमरूद बढ़ने में कहीं उसे अपने विकास की-सी संतुष्टि अनुभव हुई होगी. वह खुश थी. बरामदे की खिड़की पर तेज बारिश में हम लोग छोटे-से पप्पू को खड़ा कर यह बताते कि 'वो देखो पप्पू बेटे, अमरूद का फूल.' 'अमरूद ता फूल.' मैं सोचता कि कहीं पानी के झोंकों में नरम फूल टूट न जाएँ. बहुतेरे फूल टूटे भी, लेकिन उनकी जगह नए फूल आते गए और फिर जल्दी से बीत जानेवाले सुखद दिनों में, छोटे-छोटे अमरूदों में बदल गए.

मुझे लगा कि हमारे घर के सामने का यह अमरूद हमारी जिंदगी का एक घरेलू हिस्सेदार होता जा रहा है. घोष बाबू के माली ने माँ को बताया कि पहली फसल के फल तोड़कर फेंक देने से दूसरी बारी में फल खूब अच्छे आते हैं. अमरूद और नींबू के साथ यह बात खास लागू होती है. माँ ने विजय से कहकर अमरूद की पहली फसल बड़ी दिलचस्पी से पूरी बाढ़ के पहले ही तुड़वाकर फिंकवा दी थी. यह बात आसानी से महसूस की जा सकती थी कि माँ में विराट मातृत्व है और वह भविष्य के लिए प्रतीक्षा कर सकती हैं, उसी तरह जैसे हर माँ अपनी संतान के लिए दीर्घ प्रतीक्षा किया करती है और फिर भी उसको अपना स्वप्न अधूरा लगता है. जो भी हो, मुझे प्रसन्नता हुई कि अपशकुनी विश्वासों की जहरीली छाया हमारे कोमल मीठे अमरूद तरु पर नहीं पड़ी.

तोते का पिंजरा सुबह दरवाजा खुलने के साथ ही अमरूद की एक छोटी-सी टहनी पर टाँगा जाने लागा था. वह दोपहरी तक उस पर टँगा रहता. चुन्नू, मिद्दू और पप्पू ने फुर्ती से नाजुक फुनगियों तक चढ़ने की माहिरी इसी पेड़ से प्राप्त की. दशहरा, दीवाली, तीज-त्यौहार पर दादी की जीभ जब सूरन खाने को ललचाती तो अमरूद की पत्तियों में सूरन को पकाकर स्वादिष्ट बनानेवाली जरूरत की पूर्ति भी वही पेड़ करता था. कहते हैं कि अमरूद की पत्तियों में सूरन को पकाने से सूरन गले में काटता नहीं है. लगने लगा था कि अमरूद का पेड़ ज्यों हमारी एक बड़ी सुविधा है या हमारे अंदर आत्मीयता को निरंतर धनिक बनानेवाला कोष.

दूसरे बरस के जाड़े में पेड़ खूब लदा-फदा था. अमरूद गोल, छोटे मगर ललछर चित्तियोंवाली जात के थे. ढेपियाँ मुलायम होते ही लोग उन्हें तोड़ लेते और पूरे जाड़े जी-भरकर घर में टमाटर और अमरूद का सलाद खाया गया. सुग्गे के लिए कई महीन खूब पके अमरूद उपलब्ध होते रहे और बाहर के मेहमान हमारे घर के अमरूदों में इलाहाबाद के अमरूदों की प्रसिद्धि का इत्मीनान कर लेते थे.

यह बात मुझे बहुत रोमांचित करती थी कि हमारे घर तथा निकटतम संबंधियों के यहाँ नई पीढ़ी काफी अनुपात में आधुनिक हो चली है. मुझे मनःस्थितियों और वातावरण की इस तब्दीली का अध्ययन बड़ा सुखद लगा. हममें दृष्टिकोण की उदारता परिलक्षित होती और किसी भी घटना या आकस्मिकता या एक संपूर्ण परिस्थिति को हम लोग अनहोनी नहीं मानते थे. जीवन में सब सहज है, सब संभव. अमरूद की छाया में बेंत की कुर्सियों पर बैठ चर्चाएँ कर-करके हम तीन-चार भाई-बहनों ने अपने उम्र के फर्क को दोस्ताना हरकतों से भर दिया. प्रायः बैठकर, नए-नए विषयों को कुरेदकर, कभी ताप और उग्रता के वशीभूत होकर भी बातचीत करना, तेजी से हम लोगों के मनोरंजन और दैनिक निर्वाह का एक अंग होता जा रहा था. मैंने महसूस किया कि घर के बुजुर्गों के बारे में हम लोग अक्सर तुर्श भी हो उठते हैं, लेकिन हमें इस बात की निश्चिंतता थी कि ऐसा होने में अवांछनीय कुछ भी नहीं है, अपितु यह अच्छी बात है. नई चीजें यूँ ही बनती हैं. जैसे अमरूद का पेड़ हम लोगों के बीच अपशकुन के आरोपों को नष्ट करता हुआ धीरे-धीरे बना और वह अब पूरे परिवार का एक खूबसूरत हिस्सा हो गया है.

अमरूद फलता-फूलता रहा और अब पप्पू ने एक निहायत छोटा-सा झूला भी उस पर डाल लिया. इधर हम भाई लोग धीरे-धीरे अलग-अलग शहरों के भूगोल में जुदा तरीकों की नौकरी के लिए बँटने लगे. यह कोई असामान्य बात नहीं थी, सिवाय इसके कि घर से अलग होने में थोड़ा-बहुत मानसिक क्लेश सबको होता था. जिस दिन मैं नौकरी पर जा रहा था, माँ रो रही थीं, इसलिए मैं शीघ्रातिशीघ्र घर छोड़कर निकल जाने को तत्पर था. जमुना-पुल डूबी हुई साँझ में नदी पर से भारी मन से गुजरते हुए सबसे ज्यादा माँ और अमरूद के पेड़ की याद आई. माँ की याद इसलिए क्योंकि वह दुर्बल हैं और हम लोगों को न समझ पाकर क्रमशः जड़ होती जा रही हैं और अमरूद की याद इसलिए कि उसके माध्यम से मैं अपने अंदर एक जागृति का भान करता रहा. अमरूद का पेड़ मुझमें प्रतीकों का निर्माण किया करता है और फिर एक नए संसार की कल्पना में डूबकर शक्ति और आत्मसंतुष्टि पाता रहा हूँ.

अमरूद के पेड़ के प्रति समर्थन और राग मेरे मन में यूँ भी एकत्र हो आया क्योंकि बाद में कई लोगों ने घर के सामने अमरूद होने को अशुभ बताया और पेड़ को तुरंत कटवा देने की सलाह दी. माँ पर छा जानेवाला स्वाभाविक भय हमें नागवार गुजरता क्योंकि ऐसा लगता जैसे माँ हम लोगों के अंदर पैदा होनेवाले नए और बलिष्ठ खयालों के प्रति असहयोग कर रही हैं. जब-जब अशुभ के ठेकेदारों ने अमरूद की बाबत कुछ कहा, घर के हम सब बच्चे क्षुब्ध हो उठते थे. वस्तुतः यह गुण हमें हमारे बुजुर्गों से ही मिला था. इस निर्णय पर हम लोग तब पहुँचे जब एक समाजशास्त्रीय बोध हमें स्पर्श करने लगा था.

जीवन नए अनुभवों में गुजरने में व्यतीत होता रहा. मिद्दू ने राखाल के साथ अमरूद भिजवाए थे और खत लिखा था कि 'इस बरस जबकि अमरूद भरपूर आया है, घर पर कोई नहीं है.' तथा नम कर देनेवाली जज्बाती बातचीत के कई नाजुक टुकड़े. पिता जी की चिट्ठियाँ हमेशा ही कुछ दूसरे प्रकार की रही हैं. उनमें एहसास की चादर ओढ़ने का प्रयत्न या दबाव रहता है. मैं देखता हूँ कि थोड़े समय में ही दुनिया में बहुत परिवर्तन हो गया है और यह परिवर्तन तेजी से दूसरे परिवर्तन की भूमिका बनता हा रहा है. बड़े-बड़े घातक शरीर दुख मामूली और अचिंतनीय हो गए हैं और पिता जी लिखते हैं कि 'माँ के बाएँ फेफड़े में जो धब्बा था वह पुनः उभर आया है, यह सब किसी अशुभ ग्रह-नक्षत्र का दुष्परिणाम है. शायद हम लोगों के बुरे दिन आ गए हैं.' लेकिन मैं जानता हूँ कि अब यक्ष्मा बहुत आसान है और कहानियों में भी पात्रों का यक्ष्मा से ग्रसित होना, लोगों को द्रवीभूत नहीं कर पाता. अच्छे संपादक ऐसी कहानियों से ऊब गए हैं और उन्हें लौटाना ही श्रेयस्कर समझते हैं. फिर मृत्यु भी आज उतनी असह्य नहीं रह गई है. दुख शरीर से मन पर सिमट आया है. पिताजी ने एक बार यह भी लिखा कि 'सबसे बड़े भाई चूल्हा-चौका अलग करने के लिए एक तनाव पैदा कर रहे हैं. बड़ी चखचख है. बहू ताजी रोटियाँ तो खुद खा जाती है और बासी हम लोगों के लिए रख देती है. तुम क्या जानो, हम लोगों का जीना मुहाल हो गया है. इधर तुम्हारी माँ अमरूद का पेड़ काटने को कहती हैं. सब लोग उसे अशुभ बता रहे हैं' आदि-आदि. यह एक दुखद प्रसंग था. हालाँकि मैंने अमरूद न काटने की अपनी बात पर ही जोर देनेवाली एक चिट्ठी माँ को लिख दी थी.

राखाल हमारे पेड़ के जो अमरूद लाया था वे बाजारू अमरूदों की सुंदरता से बहुत भिन्न होकर भी स्वादिष्ट थे. अमरूदों के और दोस्तों के बीच अच्छा समय गुजारते हुए मैं किंचित भावुक हो आया. मुझे वे दिन याद आने लगे जब हम छोटे-छोटे थे और सुबह, दिन-दोपहरी दूसरे बँगलों की चारदीवारियाँ कूदकर अमरूदों की चोरी करते और पकड़े जाने पर बुरी तरह गिड़गिड़ाया करते. आज हमारे घर में भी अमरूद का पेड़ है तो एक अजीब-सा गौरव होता है - यह कि जिनके घर अमरूद नहीं होंगे, वे बच्चे ईर्ष्यालु हो गए होंगे, हमारी चारदीवारी कूदते होंगे. अमरूद के इस पेड़ की वजह रफ्ता-रफ्ता पप्पू के बहुत-से नन्हें-मुन्ने दोस्त हो गए हैं, ऐसा अम्मा ने लिखा था और भौजाई से उसे इस बात की बहुत डाँट पड़ती है कि वह क्यों अपनी तबीयत का राजा हो गया है, जिसे चाहे अमरूद लुटाया करता है.

अपने इस अमरूद के पेड़ के संबंध में कभी-कभार फैशनेबुल ढंग से भी मैं सोचा किया हूँ. होटलों के लॉन में लगे, बैठनेवालों को सुखद छाँह देते हुए, रंगीन छातों की छाया मेरी आँखों में अक्सर उभरी है. अमारा अमरूद का पेड़ एक हरा छाता. एक डँगरा-सा फलता-फूलता पेड़ जिसमें अनुपातहीन डालें नहीं बल्कि एक सँवरापन.

जब घर जाने को पहली छुट्टी मिली तो मन बेहद आतुर हो गया. सुख तन-मन पर एक वहशत की तरह सवार था. फिर अँधेरे जमुना-ब्रिज से गुजरती हुई गाड़ी ने उत्तेजित कर दिया और रात के सन्नाटे में एक अभूतपूर्व रोमांच के साथ मैंने अपने प्यारे शहर को देखा. वह रात उजाले की प्रतीक्षा में उड़ी हुई नींद की एक सुखद पर बेचैन रात थी. पता नहीं, एक अजीब भयानक-सी विराटता के खयाल मन पर छोटे-छोटे टुकड़ों में बनते-बिगड़ते रहे. जैसे नगर इलाहाबाद की आत्मा में बहुत क्रांति है. अपने आप लोग काम कर रहे हैं, बु़द्धियाँ किसी नए रचनात्मक परिवेश के लिए सक्रिय हैं. स्थूल के नाम पर यह शहर जैसे परम शून्य है. लेकिन धँसने पर.... शायद मैं बहुत व्याकुल था.

तड़के उठकर मुझे इस बात का बड़ा खेद हुआ कि शायद हमारे प्रति घर के बड़ों में कोई स्वागत भाव नहीं है. ऐसी स्थितियों में मुझे बारंबार अवनींद्र बाबू का वह चित्र याद आ जाता है जिसमें एक बूढ़े पेड़ की आत्मा अपने को तोड़ देने के प्रयत्न में सुखी है क्योंकि उसे यह जानकारी है कि उसकी घेर में एक नवल तरु उग आया है. यह बात उतनी बुरी नहीं थी कि अमरूद के पेड़ को काटकर उसकी जगह एक ओर गुलदाउदी और दूसरी ओर केले की क्यारियाँ बना ली गई हैं बल्कि चुनौती इस बात की थी कि हम लोगों में जब धीरे-धीरे जिंदगी की बुलंदी विकसित हो रही थी, तभी माँ को रूढ़ि और अशुभ के मिथ्या भय ने पराजित कर दिया. शायद माँ की हम संतानें उन्हें अशुभ से लड़ सकने की अपनी सामर्थ्य का आश्वासन नहीं दे सकी थीं. मैंने पाया कि वह भय जो माँ के चेहरे पर क्षणजीवी हुआ करता था, अब गहरा गया है. माँ का मन यह मान बैठा था कि बड़ी बहू की अलगाव-भावना, सबसे छोटे का निठल्लापन, खुद उनकी बीमारी और लोगों का धंधे से बिखर जाना और कुछ नहीं है, बहुत दिनों तक दरवाजे पर उसी अमरूद के पेड़ के लगे रहने का दुष्परिणाम है जिसे काफी पहले ही लोगों ने अशुभ बताया था.

कुछ देर बाद मैंने साधारण तौर पर अमरूद की बाबत माँ से पूछा तो मिद्दू के गुस्से का सहारा मिला. उसकी कंडैल-सी आँखों में एक छोटा-सा तूफानी झोंका उठा, बैठ गया. उसका मुँह फूल गया था. मेरे लिए तसल्ली बस इतनी थी कि मुझे उसका क्षोभ अच्छा लगा, क्योंकि यह क्षोभ मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों में निहायत जरूरी है और क्योंकि यह जीवन का परिष्कार करता है, बशर्ते इस क्षोभ का संस्कार हो और उसे स्वयं पोसा तथा सहा भी जा सके. अम्मा ने मेरे प्रश्न का अपने ढंग से ठीक जवाब भी दिया. शायद उन्हें भी दुख था - बहुत दुख, इसलिए कि हम दुखी थे. मिद्दू गुस्सा थी. इसलिए नहीं कि उनसे कोई गलत काम हुआ है.


सूरज पिछवाड़े के पीपल के ऊपर आ रहा था और जहाँ अमरूद की जड़ थी वहाँ धूप का एक चकत्ता तेजी से बड़ा होता दीख पड़ा.

(चित्र: हेनरी रूसो की कलाकृति)

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