Sunday, November 9, 2014

ज्ञानरंजन का इलाहाबाद – ६


(पिछली क़िस्त से आगे) 

धार्मिक कर्मकांडियों के संसार में मजदूर एक गैर-अहमियत रखनेवाला शूद्र और लगभग शोषित रहनेवाला वर्ग था. ऊपर मैंने जिन धाराओं का उल्लेख किया है उनकी चिंताओं में शामिल होने का सवाल ही नहीं था और ये तीनों धाराएं ही इलाहाबाद की गंगा, यमुना, सरस्वती थीं. ये बहुत ही प्रबल, प्रतिष्ठित और शोषक धाराएं थीं. इस पृष्ठभूमि में हमें निराला की इस कविता को देखना होगा. निराला जब इलाहाबाद को कविता में रखते हैं तो वे एक मार्मिक पदाघात या व्यंग्यात्मक स्थिति का बयान इलाहाबाद का कर रहे हैं:

वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे
इलाहाबाद के पथ पर

वहां एक टहनी भी नहीं थी, छाया के लिए. वह श्रम श्लथ थी. इसी श्रम को, सदियों संसार के कवियों ने दमकाया है.

इलाहाबाद न तो पुराना ही बचा और न ही नया बन सका. इससे ज्यादा गिरता या थम जाता ऐश्वर्य किसी शहर का होगा कह नहीं सकता. अब बेली का श्मशान इलाहाबाद के समस्त पर्यावरण में पसर चुका है. विश्वविद्यालय, न्यायालय और धर्मस्थल सभी असफल हो गए हैं. उनका कोई सगुन निशान नहीं दीखता. वे द्वीपों की तरह बचे हैं. इलाहाबाद को इससे ऊपर या अक्लग बनना संवरना था. लेकिन कुशिक्षा, अन्याय और धर्महीनता इन सभी संस्थाओं की बुनियाद से ही घर कर चुकी थीं. जिस तरह हिंसा और रक्तपात, दिनदहाड़े इलाहाबाद की सबसे ज़्यादा आच्छादित हारी छात्वाली सड़कों पर आये दिन हो रही हैं उसका सिरा इन्हीं संस्थाओं का निर्माण करनेवाली, उन्हें चलानेवाली पूर्वात्माओं में मिलता है. हरी छत के नीचे, रक्त-प्रवाह यह इलाहाबाद का नया दृश्य है.

शहरों की प्रकृति और उनकी कौंध बड़ी भिन्न और अजीब होती है. आप देखेंगे कि कुछ शहर  चाकू की तरह तेज़ और चमचमाते हैं, कुछ धीरे-धीरे मलिन सुस्त जुगाली करते रहते हैं, कुछ बिना बात बीहड़ और उद्दंड हैं. कुछ शहर बगीचों की तरह भारी-पूरी सक्रिय स्त्रियों की तरह दमदमा रहे हैं. कुछ शहर धीमे, लापता आपको लपेट लेंगे. हम उनसे भागना चाहते हैं, भाग नहीं पाते और मर्ज़ लाइलाज हो जाता है. सारी उम्र भागते रहते हैं, लानत-मलामत करते हैं और वहीं ढेर हो जाते हैं. सवाल यह है कि शहर के बारे में दूसरे जीवनयापन करने वालों से अलग एक रचनाकार की दृष्टि या आधुनिक नज़र क्या होनी चाहिए. नास्टेलजिया की, स्वप्न की, मलामत की, या विवशता की. इलाहाबाद एक ऐसा शहर है जिसने कई शताब्दी हुए अपनी पताका पंडों की पताकाओं की तरह नदी की घाट पर निरंतर फहराई. इसी नदी के किनारे भारतीय लोक-जीवन का एक मेहनतकश नाविक राम के पैर पखार रहा था. तब से आज तक अखाड़ों, धर्मस्थलों, विश्वविद्यालय और न्यायालय ही इलाहाबाद के तिलिस्म को अपने भीतर क़ैद किये हुए हैं. तिलिस्म की यह डिबिया अब खुल गयी है.

(जारी) 

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