Wednesday, December 10, 2014

झरिया में है नोकिया का टावर - शैफ़ाली फ्रॉस्ट की कविताएँ - 1

शैफ़ाली फ्रॉस्ट की ये कविताएँ मुझे दिल्ली से कबाड़ी पत्रकार राजेश जोशी ने भेजी थीं कुछ समय पहले, लम्बे समय से टेलीविज़न कार्यरत शैफ़ाली कहानियाँ और कवितायें लिखती हैं. लखनऊ में पली बढ़ी शैफ़ाली भारत और इंग्लैण्ड में रहती हैं, आज उनकी कविताओं की पहली क़िस्त पेश करता हूँ - 


1. बढ़ती लड़की

भरे हुए पानी को
फिर-फिर पीती गीली मिट्टी,
अपनी कौंध में फुंकी
अपनी ही रौशनी में बुझी,
खुली ज़ुबान, बंद शब्द
कटकटाते दांत लिए,
फूलती, फटती, फिर बनती
बड़ी होती बच्ची

नुक्कड़ पर मरे जिनावर की गंध जैसी
मंदिर की हर घंटी में बजती है
उसकी आस,
चाह चलती है घुटने तले,
रुके तलुवे से चाटती है आसमान,
सबकी आँखों में चुभती है
इठला के चलती है सड़क पर
वो बढ़ती लड़की

अँधेरे का रास्ता रोकती कीचड़,
कुछ बची-खुची बदनाम रौशनी,
धुंए की फांक सी
आँखों को चबाती है
बंजर माँ की छाती की मूंग,
थके बाप की डरी पसलियां
पूरी तरह बिखेर चुकी अपनी लोच,
धौंकते चौराहों की नज़र बचा
सड़कों पर सर धुनती हैं,
छज्जे ही छज्जे हैं
इस शहर में
हर उबलती खिड़की के नीचे

निर्जल बाढ़ में फूले हुए जिन्न
एक हाथ में आसमान
एक हाथ में परछाई पकड़े
बहते हैं,
जमते हैं बहते हैं
जम जम के बहते हैं,
मरने वाली हर मांसपेशी के
अधकच्चे खोखलों पर
रुक रुक के चढ़ती है परवान,
उस घर की अकेली ज़िंदा आवाज़

अपनी भागती हथेली को
पत्ती भर डन्डियों के पेड़ तले,
देह भर के सूंघती है
अनायास कभी कभी,
वो बड़ी लड़की,
जैसे भौंचक्की सी किसी चाह को
अनजाने में
कोई सपना मिले,
दस उँगलियाँ और एक छोटी सी नाक लिए,
अधपक्का सा
अकेला


2. झरिया में है नोकिया का टावर

तुम आयी हो
लपटती ज़मीन की गुफाओं से निकल,
तुम आयी हो
दो दिन तीन रात के सफर के बाद,
तुम उतर के इधर देखती हो
फिर उधर

बिछा देती हो नए शहर की नालियों में
अपना बिस्तर,
सुखा देती हो
नए मकानों के वॉल पर अपना स्वैटर,
बिखर जाती है गेट पर उनके
तुम्हारी हैरत से खुली आँख,
बाँध लेती हो संथाली कन्धों में अपनी
बाज़ुओं का फैलाव

उतर रहे हैं चौबिस मंज़िली लिफ़्ट से
मालिक के सजनित कुत्ते,
बंधे बाजू, सधे पाँव,
चमकदार पट्टों में,
पुरानी कंपनियों का नया नाम,
नए नक्शों का कथानक,
साढ़े तैंतीस आरपीएम का रिकॉर्ड,
मिला देती हो फटी हुई बिवाई
बूटों से इनकी,
खोंस लेती हो स्वैटर में अपने
नयी मंज़िलों का आतंक

खेल रही हैं चौहद्दी में
किरकेट, बास्केट बॉल
मालिक की संवर्धित औलाद,
भरे हैं विरासती पेट उनके
पेट के सहारे तुम्हारे,
तुम चढ़ाती हो
थोड़ी सी भूख
दबी छाती के नाराज़ कोने में,
झरिया में खनकता है टावर !

बजती है गले में तुम्हारे
नोकिआ की धुन,
खींच लेता है ज़ुबान से लोरी
तुम्हारे अपने का तोतला प्रतिरोध,
दबा देती हो स्वेटर तले सर अपना,
बुझने लगती है
आँखों में तुम्हारे
दबे कोयले की आग

चार कुत्तों वाली मालकिन
दरवाज़ों के अंदर
खा रही है
तुम्हें, तुम्हारे ही हाथ,
तुम करती हो दरकार
थोड़ी सी सांस,
मुंडारी बोलता है न सुनता है
चबाते मुंह का दांत वाला कोना,
बाँध कर कपड़ा नाक पर
खाती जा रही है वो

बजती है एक बार फिर
नोकिया  की धुन
खाए हुए कानों में तुम्हारे,
तुम कलपती हो उलगुलान
झरिया की पहाड़ी में जलता है टावर,
दबाती हो बटन क्रांति का,
दौड़ के बुलाती हो उतरती हुई लिफ़्ट,
भौंकता है साढ़े तैंतीस आरपीएम में
लिफ़्ट वाला कुत्ता,
पकड़ लेता है स्वैटर तुम्हारा
चमकीले पट्टों का कथानक,
अधचबे नक्शों का आतंक
  

गिरती हो गुज़री हुई
शहर की नालियों में तुम,
फाड़ देती हो
कालका मेल का टिकिट
पट्टे वाले हाथ से,
बिछ जाती हो
चुके साये में,
उठ कर गुज़रने को
कल सुबह,
एक बार फिर

3. इन्तजार

रात
थके पैरों का मनहूस रुकना,
कितनी चुप्पी है
मेरी सरहद में

इस बंद कमरे में
जो भूल चुकी हूँ
वो भी है,
भाप की तरह

सुबह के बँटते ही,
चुके साये में
रोकूंगी नहीं शरीर

सुनती, थरथराती, सांस लेती,
मेरे मरने में
मृत्यु दुखती है मेरी

पलकों पर भारी है
सन्नाटा
आभास का

आज भी नहीं आये
तुम शोर बन कर

४. प्रलय  से पहले

छोड़ न दे उसे पीछे कहीं
निकल जाए नावों में नयी,
दो हथेलियाँ पकड़ रही हैं
उस भागते पाँव को
हो रहा है उनसे अलग ,
जो ढूंढ रहा है घर
उन तमाम गड्ढों में
जहां शायद पानी हो


हथेली की लकीरों में
सो रही है वो चिड़िया,
जिसका रिश्ता
दोनों के इतिहास से टूट चुका है,
जिसका संगीत
बै-मौसम पानी से रूंध चुका है

वो पाँव जो ऊपर से
लात मार रहा है,
वो हथेली जो पिट रही है
उस पाँव से,
दोनो की संधि में
अटक गयी है
वो चिड़िया

अमन का दूत
पुरानी टहनी, दांतों में पहन,
जली जा रही है, ठंडे गुस्से से ,
डूब रही है
आग और पानी के भंवर में,
पर गाए जा रही है
शांति का गीत
अब भी



५. शाम

 आज नीचे से देख रहे हैं
ऊपर हम,
उस पुराने दिन को
जब तन्हा गुंथे हुए हाथ लिए
हवा से हिलती पहाड़ी पर
मैने पहला नाख़ून रखा था

लहरों की कुर्सियां
नदी के हर छोटे पत्थर पर
पैर रख कर कूद रही थीं ,
उस दिन
तुमने कहा था ,
पास आ कर बैठो
मेरे ...

गुज़रते रहे
कितने नदी, नाले, चश्मे, समंदर
माथे की शिकन पर अपनी,
मैने बादल में मुहँ डाल लिया
तुमने बिजलियाँ कानों पर चढ़ा ली थीं

'देखो ,
सवेरा बरस रहा है !'
तुमने कहा,
और नाख़ून के पोरों से
मेरी पलकें बंद कर दीं

बंद आँखें ढूंढने लगीं
हमारी गुंथी उँगलियों का हुसूल,
ताकते रहे
बरसाती नदी का उफ़ान
तैरती कुर्सियों से हम

ऊतर गयी शाम आखिर
उस पहाड़ की छाँव में,
न तुम मिल सके
न मैं,
चुभता रहा
कुर्सियों की पीठ पर
इस नज़्म का नाख़ून


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