Saturday, December 6, 2014

फ़िल्मों की बहार उर्फ़ जाने कहां गए वो दिन - 5



(पिछली किस्त से आगे)

और नजीर हुसैन हमेशा न जाने कैसे कोई एक बेहद अमीर आदमी होता है. उसकी बीवी नहीं होती. संतान केनाम पर एक मात्र लड़की होती है - जवान और खूबसूरत. वह फिल्म के शुरू में बी.ए. के साथ पार्ट टाइम इश्क भी करती है. दो-एक गानों के बाद इश्क में होल-टाइमर हो जाती है, कॉलेज पार्ट टाइम जाती है. इस इश्क में कोई पच्चर फंसा होता है. समझ लीजिए कि लड़के के बाप का पता ही नहीं या हो सकता है कि लड़के की माँ के बारे में समाज जब फुर्सत में जुगाली करता है तो कुछ ऐसी-वैसी बातें करता है. यह बात सिर्फ नजीर हुसैन जानता है. कई बार लड़की भी जानती है तो वह बाप से ज़बान लड़ाती है - लेकिन डैडी मैं पूछती हूँ कि इसमें अशोक का क्या दोष है. नजीर हुसैन दीवार में टंगी दिवंगत पत्नी की तस्वीर के पास जा खड़ा होता है - पार्वती अच्छा हुआ तुम चली गईं. मैं अभागा रह गया यह दिन देखने के लिए. इस लड़की के कारण ज़माना आज मुझ पर थूक रहा है. मेरी परवरिश में ही शायद कोई कमी रह गयी होगी. टीम होतीं तो शायद ये दिन न देखना पड़ता ... अब क्योंकि फिल्म की एक-दो ही रीलें बची हैं इसलिए ग्रहदशा एकाएक अनुकूल होने लगती है. लड़के का बाप प्रकट हो जाता है और वह कोई रायबहादुर/ खानबहादुर से कम नहीं निकलता. और अगर लड़के की माँ के बारे में कोई चर्चा है तो वह भी साफ हो जाता है कि दर असल वह उस रात सेठ दीनानाथ की हवेली में उन्हें राखी बाँधने गयी थी जिस से समाज को भूलवश गलतफहमी हो गयी. वरना कौन नहीं जानता कि वो बुढिया तो इतनी शरीफ है कि आज तक अपने पति का मुंह भी उसने नज़र भर कर नहीं देखा. देखा बहन मैं न कहती थी कि सुमित्रा बहन जैसी भली मांस इस जहान में ढूंढें से न मिलेगी. आग लगे इस समाज के मुंह में जो जी में आया बक दिया. ललिता पवार जैसी सास कोई लड़की नहीं चाहेगी और निरुपमा रॉय जैसी सास हर लड़की को मिले. इफ्तखार अगर पुलिस अफसर नहीं है तो वह इफ्तखार किस काम का. ऐसे ही कई और भी अनगिनत सनातन सत्य है हिन्दी सिनेमा के - हवा-पानी की तरह.

जिस इंटर कॉलेज में आठवीं से आगे की पढाई के लिए दाखिला लिया उसका रास्ता पिक्चर हॉल से होकर गुजरता था. नवीन दसवीं में जो फीस पड़ती थी उसे हम बाप की पे-स्लिप दिखाकर पूरी या आधी माफ करा लिया करते थे. फीस पूरी माफ हुई तो घर में आधी बताई, आधी माफ हुई तो घर में कहा इस बार माफ नहीं हुई पूरी पड़ेगी. फीस-डे मतलब पिक्चर-डे.

मैं और मेरा वही पव्वा-चप्पल चोर दोस्त अक्सर बस्ते में जूट का एक कट्टा रख ले जाते. कट्टा कैंटीन में रख देते. इंटरवल में भागकर वहाँ पहुँचते जहां आज अल्मोड़ा की लॉ फैकल्टी है. वहाँ उन दिनों लाल मिट्टी की खान थी. हम एक कट्टा मिट्टी भरते, मैं अपने दोस्त के फटे जूते और बस्ता उठाता वह मिट्टी भरा कट्टा. लिपाई पुताई के काम आने वाली यह मिट्टी चार रूपये में बिकती थी. अब एक अठन्नी की दरकार होती. पिक्चर पक्की.

(जारी)


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