“नारीत्व का मिथक आखिर है क्या? क्यों स्त्री को धर्म‚ समाज‚ रूढ़ियां और साहित्य-शाश्वत नारीत्व के मिथक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं? विश्व की प्रत्येक संस्कृति में सीमोन पाती हैं कि या तो स्त्री को देवी के रूप में रखा गया है या गुलाम की स्थिति में. अपनी इन स्थितियों को स्त्री ने सहर्ष स्वीकार किया‚ बल्कि बहुत सी जगहों पर सहअपराधिनी भी रही. आत्महत्या का यह भाव स्त्री में न केवल अपने लिये रहा‚ बल्कि वह अपनी बेटी‚ बहू या अन्य स्त्रियों के प्रति भी आत्मपीड़ाजनित द्वेष रखती आई है. परिणामस्वरूप स्त्री की अधीनस्थता और बढ़ती गई.”
ये शब्द प्रभा खेतान द्वारा किये गए सीमोन द बोउवार की कालजयी पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ के हिन्दी अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ की भूमिका से लिए गए हैं.
प्रभा
जी द्वारा किया गया यह उत्कृष्ट अनुवाद पठनीय होने के साथ साथ हिन्दी के नए
लेखक-लेखिकाओं के लिए आवश्यक भी लगता है मुझे.
प्रस्तुत
कर रहा हूँ उक्त अनुवाद की भूमिका के कुछ महत्वपूर्ण अंश.
आज
स्त्री के विभिन्न पक्षों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है‚ लेकिन मैं यह सोचती हूँ कि
यह पुस्तक हमारे देश में आज भी बहस का मुद्दा हो सकती है. हम भारतीय कई तहों में
जीते हैं. यदि हम मन की सलवटों को समझते हैं‚ तो ज़रूर यह स्वीकारेंगे कि औरत का
मानवीय रूप सहोदरा कही जाने के बावज़ूद स्वीकृत नहीं है. हमारे देश में औरत यदि पढ़ी-लिखी
है और काम करती है‚ तो उससे समाज और परिवार की उम्मीदें अधिक होती हैं. लोग चाहते
हैं कि वह सारी भूमिकाओं को बिना किसी सिकायत के निभाए. वह कमा कर भी लाए और घर
में अकेले खाना भी बनाए‚ बूढ़े सास-ससुर की सेवा भी करे और बच्चों का भरण-पोषण भी.
पड़ोसन अगर फूहड़ है तो उससे फूहड़ विषयों पर ही बातें करे‚ वह पति के ड्राईंगरूम की
शोभा भी बने और पलंग की मखमली बिछावन भी. चूंकि वह पढ़ी-लिखी है‚ इसलिये तेज-तर्रार
समझी जाती है‚ सीधी तो मानी ही नहीं जा सकती. स्पष्टवादिता उसका गुनाह माना जाता
है. वह घर निभाने की सोचे‚ घर बिगाड़ने की नहीं. सब कुछ तो उसी पर निर्भर करता है?
समाज ने इतनी स्वतन्त्रता दी‚ परिवार ने उसे काम करने की इजाज़त दी
है‚ यही क्या कम रहमदिली है! फिर शिकायत क्या?
यह
पुस्तक न ‘मनु संहिता’ है और न ‘गीता’ न ‘रामायण’. हिन्दी में इस पुस्तक को
प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ यह है कि विभिन्न भूमिकाओं में जूझती हुई‚
नगरों-महानगरों की स्त्रियां इसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया मुझे लिख कर भेजें. यह
सच है कि स्त्री के बारे में इतना प्रामाणिक विश्लेषण एक स्त्री ही दे सकती है.
बहुधा कोई पाठिका जब अपने बारे में पुरुष के विचार और भावनाएं पढ़ती है‚ तब उसे
लेखक की नीयत पर कहीं संदेह नहीं होता.
‘अन्ना
कैरेनिना’ पढ़ते हुए या शरत चन्द्र का 'शेष
प्रश्न' पढ़ते हुए हम बिलकुल भूल जाते हैं कि इस स्त्री-चरित्र
को पुरुष गढ़ रहा है‚ और यदि लेखक याद भी आता है तो श्रद्धा से मस्तक नत हो जाता है.
पर यह बात भी मन में आती है कि यदि अन्ना का चरित्र किसी स्त्री ने लिखा होता‚ तो
क्या वह अन्ना को रेल के नीचे कटकर मरने देती? यदि देवदास की
पारो को स्त्री ने गढ़ा होता‚ तो क्या वह यूं घुट-घुट कर मरती?
फ्रांस
की जो स्थिति १९४९ में थी‚ पश्चिमी समाज उन दिनों जिस आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन
के दौर से गुज़र रहा था‚ वह शायद हमारा आज का भारतीय समाज है‚ उसका मध्यमवर्ग है‚
नगरों और महानगरों में बिखरी हुई स्त्रियां हैं‚ जो संक्रमण के दौर से गुज़र रही
हैं.
आज
१९८९ में हो सकता है कि सीमोन के विचारों से हम पूरी तरह सहमत न हों‚ हो सकता है
कि हमारे पास अन्य बहुत सी सूचनाएं ऐसी हों‚ जो इन विचारों की कमजोरियों को साबित
करें‚ फिर भी बहुत सी स्त्रियां उनके विचारों में अपना चेहरा पा सकती हैं. कुछ
आधुनिकाएं यह कह कर मखौल उड़ा सकती हैं कि हम तो लड़के-लड़की के भेद में पले ही नहीं.
सीमोन के इन विचारों में मैं देश तथा विदेश में अनेक महिलाओं से बातें करती रही
हूँ. हर औरत की अपनी कहानी होती है‚ अपना अनुभव होता है‚ पर अनुभवों का आधार
सामाजिक संरचना तथा स्थिति होते हैं.
परिस्थितियां
व्यक्ति की नियंता होती हैं. अलगाव में जीती हुई स्त्रियों की भी सामूहिक आवाज़ तो
होती ही है. आज से बीस साल पहले औसत मध्यवर्गीय घरों में स्वतन्त्रता की बात करना
मानो अपने ऊपर कलंक का टीका लगवाना था. मैं यहां पर उन स्त्रियों का ज़िक्र नहीं कर
रही‚ जो भाग्य से सुविधासम्पन्न विशिष्ट वर्ग की हैं तथा जिन्हें कॉन्वेन्ट की
शिक्षा मिली है. मैं उस औसत स्त्री की बात कर रही हूँ‚ जो गाय की तरह किसी घर के
दरवाजे पर रंभाती है और बछड़े के बदले घास का पुतला थनों से सटाए कातर होकर दूध
देती है.
हममें
से बहुतों ने पश्चिमी शिक्षा पाई है‚ पश्चिमी पुस्तकों का गहरा अध्ययन किया है‚ पर
सारी पढ़ाई के बाद मैं ने यही अनुबव किया कि भारतीय औरत की परिस्थिति १९८० के
आधुनिक पश्चिमी मूल्यों से नहीं आंकी जा सकती. कभी ठण्डी सांसों के साथ मुंह से
यही निकला‚ " काश! हम भी इस घर में बेटा हो कर जन्म लेते! " लेकिन जब
पारम्परिक समाज की घुटन में रहते हुए और यह सोचते हुए कि पश्चिम की औरतें कितनी
भाग्यशाली हैं‚ कितनी स्वतन्त्र एवं सुविधा सम्पन्न हैं और तब सीमोन का यह
आलोचनात्मक साहित्य सामने आया‚ तो मैं चौंक उठी. सारे वायवीय सपने टूट गए. न
पारम्परिक समाज में पीछे लौटा जा सकता है और न ही आधुनिक कहलाने वाले पश्चिमी समाज
के पीछे झांकता हुआ असली चेहरा स्वीकार करने योग्य था. सीमोन ने उन्हीं आदर्शों को
चुनौती दी‚ जिनका प्रतिनिधित्व वे कर रही थीं. औरत होने की जिस नियति को उन्होंने
महसूस किया उसे ही लिखा भी. उन्होंने पश्चिम के कृत्रिम मिथकों का पर्दाफाश किया.
पश्चिम में भी औरत देवी है‚ शक्तिरूपा है‚ लेकिन व्यवहार में औरत की क्या हस्ती है?
सीमोन
को पढ़ते हुए औरत की सही और ईमानदार तस्वीर आंखों में तैरती है. यह समझ में आता है
कि हम अकेले औरत होने का दर्द एवं त्रासदी को नहीं झेल रहीं. यह भी लगा कि हमारे
देश की ज़मीन अलग है. वह कहीं-कहीं बहुत उपजाऊ है तो कहीं-कहीं बिलकुल बंजर. कहीं
जलता हुआ रेगिस्तान है‚ तो कहीं फैली हुई हरियाली‚ जहां औरत के नाम से वंस चलता है.
साथ ही यह भी लगा कि सीमोन स्वयं एक उदग्र प्रतिभा थीं और उनकी चेतना को ताकत दी सार्त्र
ने‚ जो इस सदी के महानतम दार्शनिकों में से एक हैं. क्या सार्त्र की सहायता के
बिना सीमोन इतना सोच पातीं? हमारी संस्कृति का
ढांचा अलग है. सीमोन औरत के जिन भ्रमों एवं व्यामोहों का ज़िक्र करती हैं‚ हो सकता
है वे हमारे लिये आज भी ज़रूरी हों.
पुस्तक
लिखते हुए स्त्री की स्थिति का उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के विश्लेषण किया.
उन्होंने कहाः
"स्त्री
कहीं झुण्ड बना कर नहीं रहती. वह पूरी मानवता का हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति
नहीं. गुलाम अपनी गुलामी से परिचित हैं और एक काला आदमी अपने रंग से‚ पर स्त्री घरों‚
अलग-अलग वर्गों एवं भिन्न-भिन्न जातियों में बिखरी हुई है. उसमें क्रान्ति की
चेतना नहीं‚ क्योंकि अपनी स्थिति के लिये वह स्वयं ज़िम्मेदार है. वह पुरुष की
सहअपराधिनी है. अतः समाजवाद की स्थापना मात्र से स्त्री मुक्त नहीं हो जायेगी.
समाजवाद भी पुरुष की सर्वोपरिता की ही विजय बन जाएगा.”
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सीमोन द बोउवार (द सैकेण्ड सेक्स)
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