Wednesday, December 17, 2014

'अभी और कितना जलूं मैं – शेफ़ाली फ्रॉस्ट की कविता


प्रतिवाद - १  

सड़क पार छज्जे से 
काले कुर्ते वाली  
एकटांग औरत ने
ललकारा मुझे,

मैं खोल के खिड़की,  
कूद जाना चाहती थी 
हज़ार मंज़िल के मकान से
कि इस विलय में 
वो आसमान भी साथ हो 
जो बंद दीवारों से ढँक गया है

मेरे खुले मुंह के सारे गड्ढे  
चीख रहे थे एक साथ,  
खोदने लगे उसके दांत  
मेरे नाराज़ मुहं से प्यार

'दर्द हुआ क्या?'
उसने होठों के पीछे से
पुकारा मुझे
'नहीं!' मैंने कहा
'अभी और कितना कटूँ मैं?'


प्रतिवाद - २ 

मैने सर का एक एक बाल 
चाँद के रेशे में गबड़ाया,  
और दिया बुझा के 
घर की चौखट जला दी
आसमान आ आ के लपकने लगा 
अपने हिस्से की आग
धू धू कर पीने लगा धुआं 
बुझती जीभों से सांस
सड़क पार छज्जे से 
काले कुर्ते वाली  
एकटांग औरत ने ललकारा मुझे
मैने जलती चौखट फेंक कर मारी 
उसकी ओर,  
'दर्द हुआ क्या?', 
उसने धुंए के अंदर से पुकारा मुझे
'नहीं!' मैने कहा
'अभी और कितना जलूं मैं?


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