आर. अनुराधा के ब्लॉग से उनकी लिखी आख़िरी पोस्ट पर ध्यान गया तो
मुझे लगा इसे आप लोगों के साथ साझा करना एक तो अनुराधा जी को याद करने का बहाना
बनेगा और उस उत्कट जिजीविषा से भरी स्त्री के अंतिम दिनों के रोज़मर्रा जीवन की एक
झलक देखने को मिलेगी.
सर्दियों की एक और सुबह
सांस की नली में कुछ अटकने के अहसास के साथ गहरी, दर्द निवारक से ठहराई नींद उचट
जाती है. गला दो-तीन बार खांस कर सांस के लिए रास्ता साफ कर सुकून पा लेता है. ऐसा
हमेशा सांस की नली के दाहिने हिस्से में होता लगता है, पर
डॉक्टर भाई इस अवलोकन पर हंस देता है कि फेफड़ों के ऊपर दाहिना-बायां कुछ नहीं
होता.
कड़ी ठंड के अंधेरे कमरे में समय का पता नहीं
चलता. गर्दन के नीचे एक खास तरीके से दबी सहारा देती सी दाहिने हाथ की अंगुलियों
को वहां से निकालकर धीरे से हिलाती-डुलाती हूं. दूसरे हाथ की अंगुलियां दोनों
घुटनों के ठीक ऊपर पैरों के बीच दबी हैं, गर्माहट पाने के लिए. उन्हें भी तत्काल महसूस
करने का ख्याल आता है. सुन्न होने के बावजूद वे चल तो रही हैं, हिलती तो हैं. पैरों के पंजे भी रोज कई बार होने वाली इस कवायद से खुश तो
होते होंगे. दाहिनी करवट सोई मैं हाथ के नीचे रखे नर्म छोटे तकिए पर हाथ का जोर
देकर उठती हूं ताकि रीढ़ पर जोर न पड़े.
प्यास न होने पर भी उठती हूं, दो गिलास उबला पानी पी जाती हूं
क्योंकि रात-दिन कुछ नियमतः पीते रहना शरीर की जरूरत बन गया है. तभी पास की सड़क
पर एक बस के ब्रेक लगने और रुकने की तेज तीखी बेसुरी किर्र-चूं की दोहरी चीखें
गूंजती हैं और मैं समझ जाती हूं कि सुबह का कोई समय हो गया है.
पानी पीकर, बाकी नींद को पकड़ने की इच्छा से बिस्तर पर
लौटते-लौटते दूर कहीं से लाउड स्पीकर से कानों में आती अजान की फूंक साफ बता देती
है कि सुबह की पहली नमाज का वक्त है. इसके साथ ही पास के मंदिर का लाउडस्पीकर
प्रतियोगी जुगलबंदी में उतर आता है- आरती से. कुछ ही मिनिटों में एक और लाउडस्पीकर
पर अजान. आरती-मंत्रोच्चार खत्म होने के पहले एक जगह अजान खत्म हो चुकी होती है.
कुछेक मिनट बाद दूसरी अजान भी शांत. सब तरफ सन्नाटा.
खिड़की पर नजर डालती हूं, सुबह की रोशनी को तौलने के लिए.
बंद खिड़की के कांच के ऊपरी हिस्से का धूसर उजलापन अहसास कराता है कि पौ फटने को
है, जबकि कांच के निचले हिस्से से आती पीली रोशनी साफ-साफ
स्ट्रीट लाइट की तेजी को दिखाती है. यानी अंधेरा कायम है. कांच से आने वाली रोशनी
की तीव्रता में अंतर शायद ऊपरी हिस्से में जमे कोहरे के कारण है. पक्के तौर पर पता
करने के लिए एक बार बाल्कनी की तरफ खुलने वाले दरवाजे के निचले सिरे पर नजर डालती
हूं. दरवाजे का बार्डर अब भी काला है. उसमें उजास का कोई चिह्न नहीं बना है अभी.
बंद खिड़की के कांच पर एक कबूतर की चोंच की
ठक-ठक- जैसे कोई करीने से दरवाजा खटखटा रहा हो. और फिर पंखों की तेज फड़फड़ाहट, जिसमें एक और कबूतर शामिल हो
जाता है.
सुबह की उम्मीद वाले और उठने का समय फिलहाल न
होने का ऐलान करते इन्हीं इशारों के आश्वासन के भरोसे धीरे-धीरे आंख लग जाती है.
और इस तरह सर्दियों की एक और सुबह की शुरुआत होती है.
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