Tuesday, December 9, 2014

हरेक व्यवस्था में एक दूसरे तरह का निर्वासन मौजूद रहता है - अदूनिस


(जारी)

२.

मैंने अभी अभी जो कहा है, वह हमें मिथक और भाषा की जड़ों तक वापस ले जाता है. इन जड़ों के आधार पर इस्लाम ने एक नई शुरुआत पेश की. उसने भाषा को उसके सांसारिक निर्वासन से हटा कर इलहाम के मुल्क की तरफ़ मोड़ दिया – स्वर्ग की तरफ़. भाषा की मार्फ़त इलहाम अध्यात्मिक को प्रकट करता है जबकि कार्य दैहिक को व्यवस्थित करता है. यह व्यवस्था आदमी को नए ख़लीफ़ा यानी पैगम्बर के उत्तराधिकारी के रूप में सौंपी गयी है. इलहाम को उसी समय स्थापित किया गया जब आदमी ने उसे जीवन में उतारना स्वीकार किया था. तब जा कर वह एक नियम और एक व्यवस्था बना.

लेकिन तब भी हरेक व्यवस्था में एक दूसरे तरह का निर्वासन मौजूद रहता है क्योंकि हर व्यवस्था ख़ुद ही एक सीमा और पहले से तयशुदा रास्ता होती है. हरेक व्यवस्था मनुष्य को उसके अस्तित्व से जबरन अलग करती है और उसे उसकी शक्ल-सूरत के आधार पर पहचानती है.

इस तरह अरब जीवन अपनी शुरुआत से ही भाषा और धार्मिक व्यवस्था से निर्वासन रहा है. बीते हुए समय और वर्तमान में अरब कवि ने निर्वासन के कई और रूपों को जाना है – सेंसरशिप, सरकारी प्रतिबन्ध, देशनिकाला, कारावास और हत्या.

‘दूसरा’ इस परिदृश्य में ‘मैं’ की मुक्ति दिखाई देता है. ‘दूसरा’ न तो भूतकाल है न ही भविष्य, न ही वह ऐसा आईना है जो ‘मैं’ को उसके बचपन तक वापस लौटा ले जा सके. अलबत्ता वह कवि को अज्ञात की तरफ, जहां हर चीज़ अजनबी होती है, गतिमान बनाता है.

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