(आशुतोष कुमार की फेसबुक वॉल से साभार)
गीता को
राष्ट्रग्रंथ बनाने का मतलब
मोदी साहेब विदेशी
राजनेताओं को हमेशा गीता की प्रति भेंट करते हैं. देश भर में गीता की 5151 वीं बरसी (काल्पनिक?)
मनाई गयी. दिल्ली में ऐसे ही एक समारोह में विदेशमंत्री सुषमा
स्वराज ने हिस्सा लिया. समारोह में उन्होंने फरमाया कि गीता को राष्ट्रीय
धर्मग्रन्थ का दर्जा दिए जाने की केवल औपचारिक घोषणा बाकी है. यानी अनौपचारिक रूप
से गीता को राष्ट्रीय धर्मग्रन्थ का दर्जा मिल चुका है .
मंत्री ने ईमानदारी से अपनी सरकार का मौलिक एजेंडा साफ़ कर दिया है.
गीता के राष्ट्रीय धर्मग्रन्थ घोषित होने का सीधा मतलब है एक धर्म -सम्प्रदाय विशेष
को राष्ट्रीय धर्म घोषित करना. यह धर्मनिरपेक्षता की संविधान-सम्मत
मजबूरी से छुट्टी पा लेने का आसान तरीका है. वैसे भी गीता के
राष्ट्रीयग्रन्थ घोषित होते ही संविधान की हैसियत उसी तरह दूसरे दर्जे के ग्रन्थ
की हो जानी है, जिस तरह मौजूदा सरकार में सभी 'अ -राष्ट्रीय' धर्म -सम्प्रदायों की है.
लेकिन इस सरकार का असली निशाना
कहीं और है.
गीता इस सरकार का दिलोदिमाग इसलिए
बनी हुई है क्योंकि वह वर्ण व्यवस्था को एक सनातन ईश्वरीय व्यवस्था के रूप में
स्थापित करती है.
गीता में स्वयं कृष्ण ने घोषणा की
है –
“चातुर्वर्ण्य मया सृष्टां
गुणकर्मविभागशः”
अर्थात “मैंने ही गुणकर्मों का
बंटवारा कर चार वर्णों की सृष्टि की है”
जब भगवान ने ही घोषणा कर दी तो संविधान की क्या मजाल जो इसे
बदल दे!
कुछ लोग तर्क देते हैं कि भगवान
ने तो 'गुणकर्म' के आधार पर वर्ण
बनाए थे न कि जन्म के आधार पर.
ये लोग होशियारी से यह नहीं
बताते कि गीता के अनुसार भगवान कृष्ण ने खुद सभी वर्णों के गुणकर्म तय कर
दिए हैं. उन्होंने इन्ही गुणकर्मों को इन वर्णों का 'स्वभाव' और 'स्वधर्म' कहा है. यह नहीं कहा है कि जिनके ऐसे कर्म होंगे, उन्हें उन वर्णों की श्रेणी या उपाधि प्रदान की जायेगी. कहा यह है कि ये
कर्म ही उनके स्वाभाविक गुण हैं. इसके अनुसार ज्ञान विज्ञान का अध्ययन ब्राह्मण का,
युद्ध क्षत्रिय का, कृषि और गोरक्षा वैश्य का
स्वभावजन्य कर्म है. और शूद्र का स्वभावजन्य कर्म है इन सभी वर्णों की परिचर्या या
सेवा करना.
शमो दमस्तपः शौचं
क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं
युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म
स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥
गीता में भगवान कृष्ण ने यह
भी साफ़ कर दिया है कि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपने स्वधर्म ( स्वभावजन्य धर्म) को
छोड़कर किसी दूसरे धर्म को अपनाने की कोशिश करे तो उसका परिणाम मृत्यु से भी अधिक
भयावह होगा!
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह”
गीता में तीन श्रेणियों को स्पष्ट
रूप से पापयोनि की संज्ञा दी गयी है - वैश्य , शूद्र
और स्त्री!
ब्राह्मण क्षत्रिय पुरुष पापयोनि की गिनती से बाहर पुण्ययोनि में शामिल हैं .ये तीनों केवल कृष्ण की शरण में जा कर ही पापयोनि से छुटकारा पा सकते हैं.
“मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येपि
स्यु पापयोनयः
स्त्रियो वैश्यास्तथा
शूद्रास्तेपि यान्ति परां गतिं”
2 comments:
भारत में जब भी कोई अच्छा कार्य होता है उस से पहले विरोध अवश्य होता है।
गीता सिर्फ भारत ही नहीं दुनियाभर को नई दिशा देने वाला ग्रंथ है। मात्र हिन्दुओं के लिए ही नहीं बल्कि समूचे
मानव मात्र के लिए यह एक दिव्य प्रेरणा है। अध्यात्म का सजग प्रहरी होने के साथ-साथ व्यावहारिक-व्यापारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय - हर समस्या का
कारण और समाधान है भगवत गीता में। यही नहीं, इस ग्रंथ में हर तरह के आदर्श जीवन को करीने से संजोया गया है।
Tulsi is sansar me koi na bhed kee jisko jesi jaan padi vesi kah dee
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