कबाड़खाने के पुराने पाठक जनाब अशरफ़ अज़ीज़ को नहीं भूले होंगे. हिन्दी फ़िल्मी गीतों के विषय पर उनका ‘सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब’ जैसा आलेख दशकों में एक दफ़ा आता है.
इसी विषय पर उनकी एक ज़रूरी किताब है ‘लाईट ऑफ़ द यूनिवर्स: एस्सेज़ ऑन हिन्दुस्तानी फिल्म म्यूज़िक’. हिन्दी फिल्मों की संगीत परम्परा को एक अनूठी और संवेदनाशील निगाह से देखती, ‘थ्री एस्सेज़ कलेक्टिव’ प्रकाशन से छपी अशरफ़ साहब की यह किताब हर पढ़े-लिखे भारतीय ने पढ़नी चाहिए. पुस्तक को मंगाने का तरीका आसान है और पोस्ट के अंत में बताया गया है.
आपके लिए इस पुस्तक के विज्ञापन के तौर पर पेश है जवरीमल पारेख द्वारा लिखा गया इसके आमुख का हिन्दी अनुवाद. अंग्रेज़ी ओरिजिनल के लिए तो किताब ही लेनी होगी-
डॉ. मोहम्मद अशरफ़ अज़ीज़ के बारे में सबसे पहले मैंने द वॉईस ऑफ़ अमेरिका की हिन्दी सेवा में कार्यरत एक मित्र सुश्री विजयलक्ष्मी देसराम से सुना था. उन्होंने हिन्दी पत्रिका ‘कथन’ में सिनेमा पर मेरा एक लेख पढ़ा था और मुझे वाशिंगटन डी. सी. से फ़ोन भी किया था. हमारी बातचीत के दौरान उन्होंने जिक्र किया कि उनके एक मित्र डॉ. अशरफ़ अज़ीज़ को भी लेख पसंद आया था और यह भी कि वे मुझे सीधे लिखेंगे. मेरे ख़याल से यह अगस्त १९९९ की बात है.
कुछ
दिनों बाद मुझे अज़ीज़ साहब का ख़त मिला. ख़त के साथ दो ऑडियो कैसेट भी थे. उन ऑडियो
कैसेट्स को सुनना एक अविश्वसनीय अनुभव था. वह अनुभव ऐसा था जिसने मेरे लिए एक नया
संसार खोल कर रख दिया, एक ऐसा संसार जो तब तक मेरे लिए अनजाना था. मैंने हमेशा से
ही हिन्दी फ़िल्म संगीत को भारत की अनेकता में एकता के वाहक के रूप में देखा-समझा
था. विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों पर इसके नॉस्टैल्जिक प्रभाव का भी
मुझे ज्ञान है. लेकिन मैं ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति के लिए तैयार नहीं था जहां सिने-संगीत
दरअसल एक ऐसा असर अख्तियार कर लेता है जिसके बाद हिन्दी फ़िल्में और उनका संगीत उन
लोगों की इच्छाओं और स्वप्नों के लिए भारत की आत्मा बन जाता है. एक लोकप्रिय
माध्यम कई लोगों के लिए बीते समय और सुदूर वर्तमान में देखने के लिए एक आकाशदीप बन
सकता है. इन कैसेट्स के नैरेटिव में फिल्मी गीतों को हिन्दुस्तानी फ़िल्म संगीत के
इतिहास, भारतीय मूल के लोगों के जीवन, समय और इतिहास को गूंथा गया था. सघन
अनुभवों, घटनाओं और संवेदनाओं से भरपूर वह नैरेटिव मेरे लिए एक गहन मर्मस्पर्शी और
एस्थेटिक अनुभव बन गया, एक ऐसा अनुभव जो मुझे कभी नहीं हुआ था अलबत्ता मैं इन्हीं
गीतों के साथ बड़ा हुआ था. कैसेट्स पर इस रेडियो प्रोग्राम को सुनते हुए मेरे लिए सुपरिचित
गानों ने नया अर्थ लेना शुरू कर दिया.
यह
उनके साथ मेरा पहला संपर्क था. बाद में हिन्दी सिनेमा और दक्षिण एशियाई संस्कृति
को लेकर हमारे दरम्यान लेखन और विचारों का आदान-प्रदान हुआ. जब मैंने उनके लेख
पढ़े, मुझे महसूस हुआ कि हिन्दी सिनेमा और फ़िल्म संगीत की उनकी व्याख्या कई मायनों
में अनूठी थी. कि लोकप्रिय संगीत को उसके सामाजिक-राजनैतिक सन्दर्भों में इतनी
सफलता के साथ व्याख्यायित किया जा सकता है, मेरे लिए आँखें खोल देने वाली बात थी. हिन्दुस्तानी फ़िल्म संगीत,
विख्यात गायिका नूरजहाँ, संगीतकारों सज्जाद हुसैन और नौशाद, गीतकार शैलेन्द्र पर
उनके लेख, और आवारा, बैजू बावरा, काग़ज़ के फूल जैसी फिल्मों का उनका विश्लेषण अपने
साहस और फैलाव के कारण उकसाता बल्कि अचंभित कर देता है. हालांकि मैं उनके दृष्टिकोण
और अप्रोच से सहमति रखता था, उनके निष्कर्षों से मेरा हमेशा इत्तेफाक़ नहीं रहा. तब
भी यह बात उनकी तर्कशक्ति और विश्लेष्ण पर किसी तरह का विचार नहीं है. साउथ एशियन
सिनेमा के संपादक श्री ललित मोहन जोशी को भेजे एक पत्र में उन्होंने लिखा था, “मेरा यह विचार है कि समकालीन भारतीय (दक्षिण
एशियाई) यथार्थ को उसके लोकप्रिय सिनेमा का मूल्यांकन किये बिना नहीं समझा जा
सकता. आम आदमी के स्वप्नों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति – यह यही सिनेमा है जिसके
माध्यम से लोकतंत्र अपने आपको अभिव्यक्त करता है.” उन्हें भेजे एक दूसरे ख़त में
उन्होंने लिखा, “सो लोकप्रिय हिन्दुस्तानी/हिन्दी फ़िल्म के साथ सबसे बड़ी समस्या
आलोचनात्मक विश्लेष्ण की विफलता है, इस क़िस्म के सिनेमा का मूल्यांकन करने में
विद्वानों की विफलता है. सत्यजित राय को बिमल रॉय या महबूब खान से उच्चतर मानने का
कोई औचित्य नहीं है. उन्होंने अलग अलग तरह के दर्शक तैयार किये. आप संतरों और
सेबों की तुलना कैसे कर सकते हैं? हम अलग अलग श्रेणियों का घालमेल कर रहे हैं. इस
से विश्लेष्ण के तर्क की विफलता का पता मिलता है.” अपने लेखन में वे ऐसी ही
संवेदना और दृष्टिकोण लेकर आते हैं. चाहे उनके लिखे से हम सहमत हों या नहीं,
उन्हें पढ़ने में हमें आनंद आता है.
नूरजहाँ
पर उनका लेख उनके इस ख़याल को बयान करता है कि किसी कलाकार का मूल्यांकन सिर्फ़ उसके
कलात्मक योगदान की रोशनी में नहीं बल्कि एक कलाकार और व्यक्ति के तौर पर उसके द्वारा किये गए सामाजिक योगदान में
किये जाने के साथ इस बात पर भी निर्भर होना चाहिए कि उसके समय के इतिहास में उसका
व्यक्तित्व किस तरह प्रतिविम्बित होता है. यही बात किसी कलाकार के रचनात्मक कार्य
पर भी लागू होती है. सज्जाद हुसैन और शैलेन्द्र पर उनके लेख दर्शाता है कि अशरफ़
अज़ीज़ का सरोकार न सिर्फ़ उनकी कला के सामाजिक – राजनैतिक आयामों से है बल्कि वे
उनके कार्य के गहन विश्लेषण के लिए मनोविश्लेष्ण की विधि का इस्तेमाल भी करते हैं.
शैलेन्द्र के गीतों पर उनका लेख कई मायनों में उल्लेखनीय है. फ़िल्मी गाने पहले से
बनी-बनाई सिचुएशंस के हिसाब से लिखे जाते हैं जिसके कारण लेखक की रचनात्मक
स्वतंत्रता बाधित होती है. लेकिन शैलेन्द्र ने इस सीमा को बड़े कल्पनाशील तरीक़े से
इस्तेमाल किया. अज़ीज़ साहब सावधानी से उनके गीतों की विशिष्ट इमेजरी और शब्दावली को
उद्घाटित करते हैं. अगर हमें शैलेन्द्र के बारे में ज़्यादा जानकारी हो तो इस
विशिष्ट इमेजरी को बेहतर समझा जा सकता है.
शैलेन्द्र
(१९२३-१९६६) का जन्म ग्रामीण उत्तर प्रदेश के एक भोजपुरी भाषी दलित परिवार में हुआ,
जिसका मूलस्थान पंजाब में था. एक युवक के रूप में वे प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन
से जुड़े और थियेटर और रंगकर्म में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के प्रतिरोध को
अभिव्यक्त करने में अग्रगामी संस्था इप्टा
(इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) के जाने-पहचाने चेहरे बन गए. १९३० के दशक
के आख़िर में प्रारंभ होकर पी.डब्लू.ए. (प्रोग्रेसिव राइटर्सएसोसिएशन) के
साथ मिलकर इप्टा सबसे मज़बूत धारा बन गयी जिसने सभी आधुनिक भारतीय भाषाओँ और इलाक़ों
में कला, साहित्य, थियेटर और सिनेमा के सांस्कृतिक एजेंडे का मसौदा दुबारा से
तैयार किया. शैलेन्द्र जो पहले झांसी में रेलवे में काम कर चुके थे और ट्रेड
यूनियन की गतिविधियों में भाग भी ले चुके थे, बाद में एक लोकप्रिय क्रांतिकारी
गीतकार के रूप में उभरे. उन्होंने कई राजनीतिक और सांस्कृतिक रचनाओं का हिन्दी में
अनुवाद भी किया. उपमहाद्वीप के कामगारों के बीच सबसे दीर्घजीवी नारा भी उनका ही
दिया हुआ है: हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में, संघर्ष हमारा नारा है. १९४० के दशक के आख़िर में इप्टा के एक कार्यक्रम में
शैलेन्द्र की कविताएं सुनकर राज कपूर ने उन्हें अपनी अगली फ़िल्म के गीत लिखने का
मौक़ा पेश किया. शुरू में शैलेन्द्र ने इनकार किया लेकिन बाद में जब उनके बेटे का
जन्म हुआ और उन्हें पैसों की ज़रुरत हुई, उन्होंने अपना इरादा बदल दिया. फ़िल्म थी
बरसात, जिसके साथ अंत तक चलने वाली एक साझेदारी की शुरुआत हुई.
आज
भारत काफ़ी चुनौतियों के दौर से गुज़र रहा है. सभी समुदायों और राष्ट्रीयताओं द्वारा
निर्मित भारत की मिली जुली संस्कृति और
सम्पन्न विरासत जो न सिर्फ़ हमारी कला और
साहित्य में बल्कि सिनेमा जैसे हमारे लोकप्रिय माध्यम में प्रतिविम्बित होती है,
आज गम्भीर ख़तरे में है. यह ख़तरा उग्र राष्ट्रवादी और कट्टर-दक्षिणपंथी ताक़तों से
है जो हमारे सामाजिक तानेबाने और संवैधानिक आधार को तहसनहस कर एक फासीवादी राज्य
की स्थापना करना चाहती हैं. यही ताक़तें अब लोकप्रिय सिनेमा को भी प्रभावित करने की
कोशिश कर रही हैं. यह एक खतरनाक उभार है. हिन्दी सिनेमा पर अशरफ़ अज़ीज़ के लेख इसे
समझने के लिए हमें शर्तिया एक उचित दृष्टिकोण मुहैया कराएँगे. हिन्दुस्तानी सिनेमा
दक्षिण एशिया साझी विरासत है, और दक्षिण
एशिया के विविध राष्ट्रों और समुदायों की एकता को यही मज़बूत बना सकती है.
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गारन्टी.
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