Saturday, January 17, 2015

अर्थशास्त्र नहीं, समाजशास्त्र पहनेगा ताज़ हमारे ओलिम्पिक में - फ़रेन की दूसरी कविता

पेरू के फ़ोटोग्राफ़र टॉमस हॉपकर का खींचा
१९६२ के एक भारतीय गाँव का चित्र


हमारा ओलिम्पिक

-फ़रेन
अण्डाकार इमारतों में नहीं
खुले मैदानों में होंगे
हमारे ओलिम्पिक

टिकट नहीं आँख लगेगी देखने में!

जीयस के घर से जो आग चुराकर
लाया जा सोफोक्लीज़
उस साहस की मशाल जलेगी

अर्जुन नहीं
एकलव्य जायेगा इस बार

मैडल नहीं
छाती पर मोहर लगेगी प्रतिभागियों के
हमारे ओलिम्पिक में

खेलों के आगाज़ में
रौशन फ़ाख़ते नहीं
प्लाई फाड़ते बर्मे का शोर होगा
कोलंबस की माँ होगी मुख्य अतिथि
कल्पनाओं को आशीर्वाद बांटती
खिलाड़ीपन की खाल उधेड़ती
* * *

पंक्तिबद्ध हो जाओ सारे
टीम चुनी जाएगी अब!

बिल गेट्स तुम्हारा बाबा हमारे
स्टेप्लर तुम्हारा आलपिन हमारी
लगाम तुम्हारी नकेल हमारी

प्लेटो तुम्हारा सुकरात हमारा!

प्रतियोगिताओं के सारे बोनसाई तुम्हारे
पहाड़ का हिनहिनाता देवदार हमारा

तुम्हारे सारे माने गुलजार के
हमारा गान गद्दर का
* * *

साइकिलों पर नहीं
नंगे पाँव होगी दौड़
फर्राटे नहीं चौकी दौड़ होगी
लंबी नहीं ऊँची कूद होगी

पूल के अचल जल में नहीं
बरसाती लोहित में होंगे मुकाबले

भार नहीं 
आदर्श उठाए जाएंगे इस बार
संतरे का जूस नहीं
असंतोष का ज़हर होगा बिस्लरी

हथेलियाँ नहीं
हरे तने पीटे जाएंगे
बारदार कुल्हाडिय़ों से
हमारे ओलिम्पिक में

ओलिम्पिक तक पहुँचने की शतरंज
नज़र आती है साफ-साफ
अब मात समझो!

कोलार का बेरोजगार जीत लेगा
लोहे की चाबी से
सारे सुनहले ताले
* * *

और कविताएँ होंगी न्यायाधीश!

धर्मेंद्र के लिए नाचती है बसन्ती
कविताएं कभी नहीं नाचती!

कोई नहीं हारेगा
सब जीतेंगे!

अर्थशास्त्र नहीं
समाजशास्त्र पहनेगा ताज़
हमारे ओलिम्पिक में


(इसे भी पढ़ें - तोड़ देना उनकी दूरबीनें तेरी आबादी घट रही है)

1 comment:

santoshkumar mishra said...

आप चाहे तो फ़रेन से बतिया सकते हैं ....
उनका मोब न उनकी अनुमति से
9760259733