Wednesday, January 28, 2015

किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी


कौन आज़ाद हुआ

-अली सरदार जाफ़री

किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी 
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का 
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही 
कौन आज़ाद हुआ


खंज़र आज़ाद है सीने में उतरने के लिए 
मौत आज़ाद है लाशों पे गुजरने के लिए 
काले बाज़ार में बदशक्ल चुडैलों की तरह 
कीमतें काली दुकानों पे खड़ी रहती हैं 
हर खरीदार की जेबों को कतरने के लिए 

कारखानों में लगा रहता है 
सांस लेती हुई लाशों का हुजूम 
बीच में उनके फिरा करती है बेकारी भी 
अपने खूंखार दहन खोले हुए 


रोटियाँ चकलों की कहवाएं हैं 
जिनको सरमाये के दल्लालों ने 
नफाखोरी के झरोखों में सजा रखा था 
बालियाँ धान की गेहूं के सुनहरे खोशे 
मिस्र-ओ-यूनान के मजबूर गुलामों की तरह 
अजनबी देश के बाज़ारों में बिक जाते हैं 
और बदबख्त किसानों की तड़पती हुई रूह 
अपने अफलास में मूह ढांप के सो जाती है 
कौन आज़ाद हुआ

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