Friday, February 6, 2015

जैज़ पर नीलाभ - 1


वरिष्ठ कवि, नाट्यकर्मी, ख्यात अनुवादक, लेखक और पत्रकार नीलाभ को मैं अपना बड़ा भाई मानता हूँ. हिन्दी की बिरादरी ने उन्हें कई साहित्येतर कारणों से वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे सही मायनों में हक़दार हैं. इसका रोना रोने की मेरी कोइ मंशा नहीं है क्योंकि यह हिन्दी की दलिद्दर परंपरा का आवश्यक अंग बन चुका है. 

फिलहाल मैं उन्हें उनके काम की वृहदता और दिलचस्प विविधता की वजह से जानता और पसंद करता हूँ. पिछले पच्चीस सालों से उनका स्नेह मेरे लिए बना हुआ है.

इधर उन्होंने जैज़ संगीत पर एक किताब लिखी है. यह हिन्दी में इस विषय पर संभवतः पहली और बेहतरीन किताब है. उन्होंने मुझ नाचीज़ को इस लायक जाना कि मैं उस किताब के प्रकाशन से पूर्व उसका पाठक बनूँ और अपनी राय दूं.
  
तय यह हुआ है कि वे अपनी इस किताब को अपने ब्लॉग ‘नीलाभ का मोर्चा’ पर सिलसिलेवार लगाएंगे और उसे कबाड़ख़ाने में भी लगाए जाने की इजाज़त होगी. इसके लिए उनका ह्रदय से आभार.

आज से इस किताब का लुत्फ़ उठाना शुरू कीजिये. सबसे पहले पुस्तक का आमुख पेश है.



जैज़ के बारे में बातें करने में हमेशा बहुत मज़ा आता है 
- क्लिंट ईस्टवुड, प्रसिद्ध अभिनेता 


मैं जैज़ संगीत का जानकार नहीं, प्रशंसक हूँ और इस नाते जब-जब मौका मिला है, मैंने इस अनोखे संगीत का आनन्द लिया है. मगर उसके आँकड़े नहीं इकट्ठा किये, उसकी चीर-फाड़ नहीं की. बचपन में स्कूल के ज़माने में ही जैज़ से परिचय हुआ था. बड़े सरसरी ढंग से. तो भी लुई आर्मस्ट्रौंग और ड्यूक एलिंग्टन जैसे संगीतकारों के नाम याददाश्त में टँके रह गये. फिर और बड़े होने पर कुछ और नाम इस सूची में जुड़ते चले गये. लेकिन जैज़ से अपेक्षाकृत गहरा परिचय हुआ सन 1980-84 के दौरान, जब बी.बी.सी. में नौकरी का सिलसिला मुझे लन्दन ले गया.

बी.बी.सी. में सबसे ज़्यादा ज़ोर तो ख़बरों और ताज़ातरीन घटनाओं के विश्लेषण पर था, लेकिन इसे श्रोताओं के लिए कई तरह के कार्यक्रमों की सजावट के साथ पेश किया जाता था. सभी जानते थे - बी.बी.सी. के आक़ा भी और हम पत्रकार-प्रसारक भी - कि मुहावरे की ज़बान में कहें तो असली मुआमला ख़बरों और समाचार-विश्लेषणों के ज़रिये ब्रितानी नज़रिये का प्रचार-प्रसार था और इसीलिए तटस्थता और निष्पक्षता की ख़ूब डौंडी भी पीटी जाती थी जबकि "निष्पक्षता" जैसी चीज़ तो कहीं होती नहीं, न कला के संसार में, न ख़बरों की दुनिया में; चुनांचे, समाचारों और समाचार-विश्लेषण के दो कार्यक्रमों - "आजकल" और "विश्व भारती" - को छोड़ कर (जो रोज़ाना प्रसारित होते, बाक़ी कार्यक्रम हफ़्ते में एक बार प्रस्तुत होते और उनकी हैसियत खाने की थाली में अचार-चटनी-सलाद की-सी थी. चूंकि खबरें और तबसिरे रोज़ाना प्रसारित होते, इसलिए उन्हें प्रस्तुत करने वालों की पारी रोज़ाना बदलती रहती; बाक़ी कार्यक्रम, जैसे "इन्द्रधनुष," "झंकार," "आपका पत्र मिला," "सांस्कृतिक चर्चा," "खेल और खिलाड़ी," "बाल जगत," "हमसे पूछिए," वग़ैरा जो साप्ताहिक कार्यक्रम थे, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग अवधियों के लिए सौंपे जाते. और जब ये लोग अपने कार्यक्रम या खबरें या समाचार विश्लेषण के कार्यक्रम - "आजकल" और "विश्व भारती" - प्रस्तुत न कर रहे होते तो "आजकल" और "विश्व भारती" में बतौर "मुण्डू" तैनात रहते.  

ज़ाहिर है, ऐसे में एक अजीब क़िस्म का भेद-भाव भी पैदा हो गया था. पुराने लोगों को "आजकल" और "विश्व भारती" ही सौंपे जाते, जबकि नये लोगों को ख़ास तौर पर ये अचार-चटनी वाले कार्यक्रमों की क़वायद करायी जाती. इनमें भी "झंकार" और "बाल जगत" जैसे कार्यक्रमों को "फटीक" का दर्जा मिला हुआ था. कारण यह कि कौन श्रोता विदेश से हिन्दी फ़िल्म संगीत सुनने का इच्छुक होता; और "बाल जगत" बिना बच्चों की शिरकत के, ख़ासा सिरदर्द साबित हो सकता था. ये दोनों कार्यक्रम इस बात के भी सूचक थे कि कौन उस समय हिन्दी सेवा के प्रमुख की बेरुख़ी और नाराज़गी का शिकार था. जिन दिनों मैं वहां था, बी.बी,सी. हिन्दी सेवा और उसके प्रमुख की यह अदा थी कि सीधे-सीधे नाख़ुशी नहीं ज़ाहिर की जाती थी. यही नहीं, ऐसे काम को भी, जिसमें ख़ासी ज़हमत का सामना होता, आपको यों सौंपा जाता मानो आपको फटीक की बजाय सम्मान दिया जा रहा है. एक आम तकिया-कलाम था "रस लो," अब यह आप पर था कि उस काम को करते हुए आप नौ रसों में से किस "रस" का स्वाद चख रहे होते. 

बहरहाल, मेरी मुंहफट फ़ितरत के चलते चार वर्षों के दौरान मुझे ये दोनों कार्यक्रम - "झंकार" और "बाल जगत" - मुसलसल छै-छै महीने तक करने पड़े थे. ख़ैर, इस सब की तो एक अलग ही कहानी है. जो किसी और समय बयान की जायेगी. यहां इतना ही कहना है कि जब मुझे "झंकार" सौंपा गया तो मुझे इस कार्यक्रम का नाक-नक़्शा और ख़ाका बनाने में कुछ वक़्त लगा. लेकिन मैंने सोचा कि भई, फ़िल्मी गाने तो हिन्दुस्तान में हर जगह सुने जा सकते हैं, लिहाज़ा एक और भोंपू लगा कर शोर में इज़ाफ़ा करने की क्या ज़रूरत है; और शास्त्रीय संगीत की भी लम्बी बन्दिशें इस बीस मिनट के कार्यक्रम में कामयाब न होंगी; न हर ख़ासो-आम को पश्चिमी शास्त्रीय संगीत पसन्द आयेगा. सो, कुछ अलग क़िस्म से कार्यक्रम पेश करना चाहिए. इसी क्रम में मैंने पहले तो अमीर ख़ुसरो के कलाम और लोकप्रिय, लेकिन स्तरीय, ग़ज़लों के कार्यक्रम पेश किये. फिर जब मुहावरे के मुताबिक़ हाथ "जम गया" तो मैंने वहां के लोकप्रिय संगीत के साथ-साथ अफ़्रीकी-अमरीकी और वेस्ट इण्डियन संगीतकारों और गायकों से अपने श्रोताओं को रूशनास कराना शुरू किया और रेग्गे और दूसरे अफ़्रीकी मूल के पश्चिमी गायकों-वादकों का परिचय अपने श्रोताओं को दिया. ध्यान रखा कि इस सब को, जहां तक मुमकिन हो और गुंजाइश नज़र आये, अपने यहां के संगीत से जोड़ कर पेश करूं. प्रतिक्रिया हौसला बढ़ाने वाली साबित हुई. तब अपने हिन्दुस्तानी श्रोताओं के लिए मैंने एक लम्बी श्रृंखला जैज़ संगीत पर तैयार की. यह श्रृंखला कुल मिला कर परिचयात्मक थी. एक बिलकुल ही अलग किस्म की परिस्थितियों में पैदा हुए निराले संगीत से अपने श्रोताओं को परिचित कराने के लिए तैयार की गयी थी. उसी श्रृंखला के नोट्स बुनियादी तौर पर इस आलेख का आधार हैं, हालाँकि कुछ आवश्यक ब्योरे और सूचनाएँ मैंने एवरग्रीन रिव्यू’ (न्यूयॉर्क) के जैज़ समीक्षक मार्टिन विलियम्स की टिप्पणियों से प्राप्त की है और पहले विश्व युद्ध से पहले के परिदृश्य का जायज़ा देने के लिए ड्यूक बॉटली और जॉन रशिंग के संस्मरणों का भी सहारा लिया है. इन सब का आभार मैं व्यक्त करता हूँ.

 जैज़ अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर अमरीका लाये गये लोगों का संगीत है, श्रम और उदासी और पीड़ा से उपजा. मेरी श्रृंखला भी "फटीक" से उपजी थी. इस नाते इस आलेख से मेरा एक अलग ही क़िस्म का लगाव है.

इसके अलावा, रेडियो पर तो संगीत के नमूने पेश करना सम्भव था और मैंने किये भी थे, लेकिन सिर्फ़ छपे शब्दों तक ख़ुद को सीमित रख कर वह बात पैदा नहीं हो सकती थी . सो, हालांकि मित्र-कवि मंगलेश डबराल ने "जनसत्ता" में इसे दो हिस्सों में प्रकाशित किया था, मैं बहुत सन्तुष्ट नहीं हुआ. उस ज़माने में न तो इण्टरनेट था, न यूट्यूब. अब जब यह सुविधा उपलब्ध है तो इसे मैं आप के लिए पेश कर रहा हूं.

यों, जैज़ हो या भारतीय शास्त्रीय संगीत - उस पर बात करनासम्भव नहीं. जैसा कि सुप्रसिद्ध जैज़ संगीतकार थिलोनिअस मंक ने कहा है "संगीत के बारे में लिखना वास्तुकला के बारे में नाचने की तरह है." चित्रकला जिस तरह " देखने" से ताल्लुक रखती है, उसी तरह संगीत "सुनने" की चीज़ है, "बताने" की नहीं. तिस पर एक नितान्त विदेशी संगीत की चर्चा! वह तो और भी कठिन है. विशेष रूप से मेरी अपनी कमज़ोरियों को मद्दे-नज़र रखते हुए. लिहाज़ा इस टिप्पणी में मैंने प्रमुख रूप से जैज़ के सामाजिक और ऐतिहासिक स्रोतों की चर्चा की है और प्रमुख संगीतकारों का और समय-समय पर जैज़ संगीत में आये परिवर्तनों का परिचय भर दिया है. जैज़ के बारीक समीक्षापरक विश्लेषण की यहाँ गुंजाइश नहीं, न ही मेरे भीतर उस तरह की क़ाबिलियत या सलाहियत ही है. लेकिन अगर इस टिप्पणी के बाद पाठकों में इस विलक्षण संगीत के प्रति रुचि उपजे, वे ख़ुद इस संगीत के करीब जायें, उसे सुनें और परखें तो मैं समझूँगा मेरी मेहनत बेकार नहीं गयी.

 एक बात और. ऐन सम्भव है कि इस चर्चा में कई नाम छूट गये हों. जिस संगीत को रूप ग्रहण करने की प्रक्रिया में तीन सौ वर्ष लगे हों, उसकी परिचयात्मक टिप्पणी में नामों का छूट जाना स्वाभाविक है. इसलिए भी कि ऐसी टिप्पणी में महत्व नाम गिनाने का नहीं, बल्कि जैज़ की शुरूआत और उसके विकास को और उसके साथ-साथ उसकी प्रमुख धाराओं को पाठकों के सामने किसी हद तक बोधगम्य बनाने का है.


(जारी)

2 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1882 में दिया जाएगा
धन्यवाद

pradeep pande said...

१९७८ से बीबीसी सुनता रहा,नीलाभ ने पुरानी यादें ताज़ा की , अंदरखाने की बातें भी पता चली.जैज़ के बारे मैं और ज्ञान मिलेगा आगे के अंकों मैं, आशा है.